पश्चाताप और क्षमा का कोई विकल्प नहीं होता। यह केवल एक भ्रम ही है जो संवेदनाओं के उत्स से मानवीय त्वचा को गीला रखता है। किसी घटना का पश्चाताप कैसे हो सकता है? जिस अबोध जीव के अल्प जीवन की स्मृतियों के सूक्ष्म अवशेष भी नहीं रख छोड़े हैं अपने ज़हन में, मैंने सिवा इस चित्तबोध के कि घोर अन्याय हुआ था उस रोज हमसे टिन-टिन पर। हालांकि यह सामूहिक रुप से बरपाया गया कहर था उस जीव पर, नहीं जानती कि उस घटना के उपरांत अन्य लोगों के हृदय का रंग वही प्राकृत बना रहा या मेरी तरह पश्चाताप की भट्टी में तपकर अभी तक रंग बदल रहा है?
यद्यपि यह संस्मरण एक अदने से जीव के बारे में है। इसलिए हमारे साथ क्या हुआ? क्यों हुआ? फलत: हमने क्या किया? ऐसी किसी जवाबदेही की मांग नहीं करता, किंतु मेरा अंतर्मन उस संपूर्ण विवरण को कलम से कागज़ पर उड़ेलकर एक न्यायसंगत विमर्श की मांग करता है। किसी अपभ्रंश की भरपाई उसी ताने-बाने की परिधि में रहकर समान विषयवस्तु को अवलंबन देना स्वयं को शायद आश्वस्त करने जैसा ही हो है आज मेरे लिए।
हालांकि समय बहुत आगे निकल आया है, जीवन में बहुत अनुभव हुआ है- किसका अनुगमन करना है? किसको छोड़ देना है?…..आदि। किंतु जीवन के अंधेरे अनुभव ऐसे हैं कि किसी बिंदु पर स्थिर होते ही नहीं। ज़रा सा प्रकाश कौंधा नहीं इन पर कि आंखों की पुतलियों के समक्ष झट से तस्वीरों की विथिकाएं तीव्र गति से दौड़ने लगती हैं।
सावन जब भी मेरे दरवाज़े पर आकर खड़ा होता है, शिव की स्तुति के साथ-साथ मेरे मस्तिष्क से बद्धमूल, मुझे भीतर तक हिलाकर रख देने वाली घटनाएं मेरी आंखों से बरसने का प्रयास करती हैं और मैं फिर मैं अनायास ही इन घटनाओं के समक्ष समर्पण कर देती हूं। इस सावन की झरती हुई बारिश में आज मैं बरबस ही तक़रीबन अट्ठाईस -उन्नतीस साल पीछे चली जा रही हूं। उन दिनों मैं, और मेरी बड़ी बहन (मां के अनुसार हंसों की जोड़ी) दोनों की ग्रेजुएशन की परीक्षायें थीं। परीक्षा का मतलब जैसे कि सभी घरों में होता है एक डर का बुखार.. बच्चों को सिर्फ़ पढ़ना होता है और कुछ नहीं.. और इस दरमियान बच्चों को खाने के लिए कुछ न कुछ स्वादिष्ट मिलता ही रहता है।
हम दोनों बहनें पढ़ने में व्यस्त थीं और हमारी व्यस्तता के क्रम को सहसा बीच में आकर जीजाजी ने तोड़ दिया। यूं तो कहने को बड़ी दीदी की सहेली के पति लेकिन दीदी की सहेली और उनके पति हमारे लिए बड़े दीदी और जीजाजी जैसे ही हैं। आज तक भी….. हमारे घर के परिवार के सदस्यों की तरह हमारे सुख-दुख में हमेशा साथ खड़े रहना अपने हर सुख में हमें शामिल करना। इसी आदतानुसार जीजाजी -दीदी ने इतवार को आकर हमें चुपके से यह कहकर कि “नीलकंठ” के दर्शन के लिए चलोगे? हमारे पढ़ाई में स्थिर मन को थोड़ी देर के लिए विचलित कर दिया। मन में घूमने की उमंगें कुलांचें भरने लगीं लेकिन फिर हम मन मसोस कर रह गये यह सोचकर कि मां तो भेजेंगी नहीं, क्या फायदा मन ही मन फुदक कर ?
दीदी ने कहा “ये सब हम पर छोड़ दो”। फिर उन दोनों ने मां को न जाने कैसे मनाया और मां ने हमें जाने की सहर्ष स्वीकृति भी दे दी। शायद पूजा-पाठ और धर्म की बात थी वरना परीक्षाओं में कहीं घूमने के लिए मां की स्वीकृति कदाचित नहीं मिलती। दीगर परीक्षा दो दिन बाद ही होनी थी। पिताजी नौकरी के सिलसिले में मसूरी थे तो माँ से मिली स्वीकृति काफी थी।
दीदी और जीजाजी के जाने के बाद हमने पढ़ाई पूरी करके शाम को ही नीलकंठ जाने की तैयारियां कर लीं ताकि सुबह जल्दी निकलने से उसी दिन घर वापस लौट सकें। सुबह मां ने जल्दी से उठकर हमारे लिए पाथेय तैयार कर दिया था। अल्हड़ उम्र थी, निरपेक्ष जीवन था किसी चीज़ की फ़िक्र नहीं। बस हम सुबह उठे अच्छे-अच्छे सूट पहने और घूमने की लालसा में दीदी-जीजाजी के साथ उनकी कार में सवार होकर नीलकंठ मंदिर की ओर उद्यत हुए।
नीलकंठ मंदिर मेरा पैतृक मंदिर भी है। मेरे गांव से महज़ पन्द्रह मिनट आगे यह पौराणिक मंदिर ऋषिकेश से लगभग 5500 फीट की ऊंचाई पर स्वर्गाश्रम की पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। इस मंदिर की मान्यता यह है कि शिव ने इसी स्थान पर समुद्र मंथन से निकला विष ग्रहण किया था। रास्ते भर में कहीं बादलों का झुंड और कहीं दिनकर हमारे साथ आंख मिचौली करते रहे। गंगा नदी के किनारे बसा होने के कारण उमस के कारण ऋषिकेश में गर्मी बहुत रहती है, जिसका असर गंगा नदी के किनारे-किनारे चलने के कारण हमारे ऊपर भी पड़ रहा था किंतु महादेव के दर्शन के लिए यह भीषण गर्मी भी सहज स्वीकार्य थी हमको।
नीलकंठ मंदिर पहुंचकर परिदृश्य यह है कि लाईन में लगे श्रद्धालुओं के छोर का कहीं अंत ही नहीं है। नन्हीं चींटियों की तरह हर पंक्त धीरे धीरे सरक रही है। अंततोगत्वा जैसे-तैसे धक्का-मुक्की में नीलकंठ महादेव के दर्शन और शिवलिंग को जल चढ़ाया। ऐसी मशक़्कत मैंने पहली बार की थी ज़िंदगी में। मुझे समझ ही नहीं आता पर्व का बहाना करके क्यों हम श्रद्धालु भीड़ का हिस्सा बनते हैं? श्रद्धा हममें किसी भी देवत्व और दैवीय शक्ति के प्रति तो हमेशा बनी रहती है, फिर किसी अवसर की ही तलाश और प्रटीक्षा क्यों? जहां सिर्फ औपचारिकता भर ही निभाई जायें श्रद्धा के नाम पर। यात्रा कहने को तो हमारी सफ़ल ही रही किंतु अंतस से तृषातोषक न थी। कहां जल चढ़ाया गया, कहां शिवलिंग था, कुछ पता पता ही नहीं था। भीड़ के एक रैले ने, जो मेरे पीछे था, एकाएक मुझे अपने साथ बहाकर मंदिर से बाहर कर दिया मानो किसी नदी की लहर अपने किनारे स्थित मंदिर के चरणों को छूकर सर्र से वापस लौट रही हो। लेकिन दर्शन सही से न होने की भरपाई आने-जाने के सफ़र के दौरान जो हम सभी ने लुत्फ़ उठाया उसने कर दी थी।
घर वापस पहुंचते-पहुंचते अंथेरा हो गया था। दीदी-जीजा जी ने हमें घर के गेट के बाहर ही छोड़ दिया था। अंदर देखकर हमें यह समझ ही नहीं आया कि मां ने आज घर की बत्ती क्यों नहीं जलायी? वैसे ही बरसात की काली सघन विभावरी, तिस पर यह बिना बत्ती का अंधेरा और पास पहुंचे तो मां बरामदे में कुर्सी पर अकेली बैठीं हमारे लौटने का इंतज़ार करती हुई नज़र आयीं। मैंने बत्ती जलायी तो मैंने मां की रोती हुई आंखों को महसूस किया। किसी अनहोनी की आशंका से दिल धक से रह गया, पूछने से पहले ही मां रोते-रोते कहने लगी – “बेटा ये तुम क्या करके चले गये? जाते-जाते तुम तो टिन-टिन को ही अपनी कार से कुचलकर चले गये….. बिना पीछे मुड़कर देखे….. मेरे साथ कोई भी नहीं था, किसी तरह पड़ोसियों की मदद से मैंने उसे दफनवाया” माँ रो-रोकर कहने लगीं – “बेटा तुम दोनों नहीं जानतीं, आज का सारा दिन मैंने इस आशंका में गुजारा है कि यात्रा से पूर्व ही मेरे बच्चों से भयंकर पाप हो गया है, आगे न जाने कौन सा अनर्थ होने वाला है? मैं सारा दिन भोलेनाथ से प्रार्थना करती रही कि हे प्रभु! मेरे सभी बच्चों की रक्षा करना”
हम दोनों हतप्रभ थे, शरीर में ‘काटो तो खून नहीं’। टिन-टिन हमारा प्यारा कुत्ता जिसे खिलाना, नहलाना मेरे ही अख़्तियार में था। कोई और उस पर पानी डाल दे तो वह वहशी-सा हो जाता था। पालतू कुत्ते कुत्ते कहां रह जाते हैं? वजनी अस्तित्व हो जाता है। हमारे साथ ही बीच में रहकर, हमारे साथ ही रहना-सोना सीख जाते हैं। अब अचानक से यह सुनना कि टिन्नी को हमने अपने ही पहियों से रौंद डाला, सुनने-समझने-सहने के लिए असंभव था मेरे लिए। मानो बदन का कोई एक हिस्सा बिछुड़ गया मुझसे। पैर कांपने लगे मेरे इस हत्या का इल्ज़ाम हमारे सर पर आता देखकर।
मां को सफ़र कैसा रहा ? यह सुनाने का तो कोई औचित्य ही नहीं शेष बचा था। हम जैसे थे वैसे ही रात में बिना कुछ खाये-पिये सो गये। यात्रा का सुखद असर भी कैसे तारी रहता हम पर, न जाने कब काफ़ूर हो गया। अगले दिन भी मातम जैसा पसरा हुआ था घर पर। मुझे याद नहीं, अपनी उम्र के उस अवचेतन में कि मैंने कभी मृत्यु की भयावह पीड़ा का यथार्थ कभी भोगा था। किंतु टिन-टिन की मौत ने हमें किसी भी मौत के उपरांत कैसे स्थिर व जड़वत रहा जाता है, इतना तो परिपक्व बना ही दिया था। इस घटना के बाद दादी की मृत्यु, फिर पिता का अचानक चले जाना….. सिलसिलेवार मृत्यु से हम रूबरू होते ही चले गये।
टिन-टिन की असमय मौत ने आख़िरकार मुझे जीवन जीने का एक मूलमंत्र तो दे ही दिया था कि दुखों से दूर रहना है तो किसी से भी आंतरिक जुड़ाव ठीक नहीं। किंतु प्रारब्ध यही हुआ न..? जिन दृश्यों से मस्तिष्क दूर भागना चाहता है वही हमारे आसपास घेरा बनाकर बैठ जाते हैं।
बीते समय से वापस आ-आकर वर्तमान की ड्योढी में मैंने कदम रख दिया है। मेंरे घर पर शिफ्ट होने से पूर्व ही मेरे गेट पर स्वागत के लिए तीन गली के कुत्ते खड़े थे, जिन्हें देखकर तुरंत मैंने स्वयं को इन विचारों में परिमित कर लिया था कि इनसे मेल बिल्कुल नहीं बढ़ाना है। तुझे खाना भर दूंगी उससे आगे कुछ नहीं। प्रारंभ में इन तीनों के मध्य भी वर्चस्व के लिए ख़ूब द्वंद हुआ। कई दिनों तक ये तीनों इस एक तरह के विशेष आधिपत्य के लिए एक-दूसरे को दूर खदेड़ते रहे, जगह नहीं छोड़ने के लिए एकदम दृढ संकल्प और प्रतिबद्ध.. किंतु रोज़ तीनों को बराबर भोजन मिलते रहने की प्रतिक्रिया यह रही की तीनों के मध्य अब कोई द्वंद नही है, साथ खाते हैं, साथ ही रहते भी हैं। समय और आगे बढ गया है इन तीन कुत्तों के रहन-सहन में तब्दीली मेरे मन के बदलाव के अनुरुप हो रही है। इनका भीषण गर्मी में हांफना और भीगना मुझसे देखा नहीं जा रहा है, इसीलिए तीनों को अपने घर के गेट के भीतर मैंने आश्रय दे दिया है।
उमस भरे दिन है। सूरज प्रचंड चमक रहा है इन दिनों। मानव प्राण वातानुकूलित और पंखे की हवा में भी सूख रहा है किंतु इन तीन कुत्तों के लिए तो ये सब कुछ भी नहीं.. है तो सिर्फ़..! खुला विस्तृत आकाश जिसकी धूप, हवा, बारिश, ठंड की मार को तो इन्हें हर हाल में झेलनी ही होती है।
टिन-टिन मेरी धूमिल स्मृतियों में है किंतु उसकी हत्या के ऐवज़ में इन तीन कुत्तों का पोषण व संरक्षण मेरे द्वारा बिठायी गयी व्यवस्था कदाचित नहीं है शायद प्रायश्चित करने हेतु ईश्वरीय अदृश्य आदेश है मेरे लिए। फिर सोचती हूं जैसा कि मैंने ही लिखा है कि संरक्षणवाद प्रकृति द्वारा खा़रिज की गयी व्यवस्था है ताकि हर किसी के हिस्से में अपना-अपना संघर्ष हो और संघर्ष से ही उपजता अपना-अपना वज़ूद हो। किंतु मेरे इस संस्मरण के संदर्भ में यह तथ्य भी स्वीकार्य है मुझे कि संरक्षणवाद प्रकृति द्वारा ख़ारिज की गयी व्यवस्था के बावजूद एक अदृश्य व औचक अवसर भी है – खून में सने अपने हाथों को पश्चाताप में धोने का।