भाग – 8 (अंतिम)
प्रबोध की गाड़ी गाज़ियाबाद की ओर मुड़ने के बजाए सरधना की ओर कब और क्यों मुड़ने लगी उसे पता ही नहीं चला। रविवार का दिन था,मेला लगा था वहाँ। उस सरधने के चर्च की बहुत मान्यता थी। लोग न जाने कहाँ-कहाँ से अपनी मानताएँ लेकर आते थे।
लगभग दो घंटे बाद वह सरधना के उसी चर्च के सामने खड़ा था जिसके प्राँगण में उसे पहली बार घुंघुरुओं की छनक के साथ ‘नहीं ऐसो जनम बारंबार’ सुनाई दिया था।
अच्छा – ख़ासा हुजूम जुड़ा था उस दिन ,खूब लोग जमा थे। वह गिरजाघर के अंदर जाकर हॉल में उस बड़ी सी मूर्ति के सामने खड़ा हो गया जिसके सामने न जाने कितने श्रद्धालु ,आँखें मूँदे खड़े थे।
जब वह पहली बार यहाँ पर आया था तब उसने ध्यान से इस मूर्ति को क्यों नहीं देखा था,उसकी समझ में यह बात नहीं आई। आज वह उसे गौर से देख रहा था । उसे लगा मानो मूर्ति उसके सामने बाहर निकलकर खड़ी हो गई है।
वह न जाने कितनी देर तक वहाँ खड़ा रहा ,उसे न खाने का होश था न पीने का। धीरे-धीरे हॉल ख़ाली होने लगा। अब वह हॉल में अंदर ही एक पिलर के सहारे बैठ गया था। उसके सामने पापा की बताई हुई कहानी घूम रही थी। घूम क्या रही थी एक चलचित्र की तरह देख पा रहा था वह उस जाँबाज़ औरत को! लेकिन स्टैला?
वह लगातार फ़रज़ाना उर्फ़ बेग़म समरू उर्फ़ स्टैला या फिर बेग़म पुल की बेग़म को उस हॉल में अपने चारों ओर महसूस कर रहा था। जैसे कोई रंग बदलता हो,आकार बदलता हो, शेड्स बदलता हो। कुछ ऎसी मनोदशा में न जाने कब तक बैठा रहता वह यदि उसके सामने कोई आकर नमूदार न हो जाता।
“सर! हॉल बंद करना है —-”
गिरजाघर के किसी कर्मचारी ने आकर उसे कहा।
“ओह! सॉरी” वह लगातार स्वयं को कई पात्रों में घिरा पा रहा था जो उसे छोड़ने के मूड में नहीं थे और न ही वह चाहता था कि वो उसे छोड़ें लेकिन गिरजाघर के अपने उसूल थे , उसे उनका पालन करना उसका कर्तव्य था और अनुशासन भी।
“सॉरी! जा रहा हूँ। माफ़ करना भाई!” उसने उस कर्मचारी से एक बार फिर से ‘सॉरी’ बोलकर माफ़ी माँगी।
“इट्स ओ .के सर। आप बाहर घूम सकते हैं।” उसने विनम्रता से कहा।
प्रबोध धीमे कदमों से बाहर की ओर आ गया था। साँझ होने लगी थी। घुँघुरूओं की छन-छनन उसके साथ बाहर निकल आई।
ख़ूबसूरत बगीचे के बाहर रंग-बिरंगे सुगंधित फूलों की बहार छाई हुई थी। बगीचे में बहुत करीने से सजाई गई ख़ूबसूरत सीमेंट की बैंचें थीं। वह उनमें से एक पर जाकर बैठ गया। जेब में सोया मोबाईल आवाज़ लगा रहा था।
” कहाँ हो प्रबोध?” पापा थे।
“जी! पापा! मैं जल्दी आ जाऊँगा।” उसकी ज़बान लड़खड़ा रही थी।
“अरे! हो कहाँ? सारा दिन निकल गया। माँ का फ़ोन आया था। तुम मेरठ कैसे पहुँच गए ?” रामनाथ की आवाज़ में चिंता थी।
“आ जाऊँगा पापा जल्दी। ऐसे ही दादीजी और दादा जी से मिलने का मन हो गया था। वो ठीक हैं बिलकुल — मोबाइल की बैट्री लो है। आपकी आवाज़ कट रही है।” उसे कहना पड़ा।
रामनाथ व शांति ने बीसियों फ़ोन कर दिए थे लेकिन वह तो हॉल में समरू के साथ था। पापा की कही हुई बातें उसके सामने चित्रित हो रही थीं। स्टैला का प्रश्न उलझा हुआ था। बेग़म पुल की उस बेचारी ग़रीब,दृष्टिहीन बेग़म का चलचित्र उसके सामने बार-बार आ-जा रहा था। उसकी मचली-कुचली कृश देह उसके सामने न जाने कितने अनुत्तरित प्रश्न दाग रही थी जिसे खिलौना बना दिया गया था और ‘बेग़म-पुल’ की बेग़म’ से उसका नामकरण करके उसका मज़ाक़ बना दिया गया था।
अनमना सा प्रबोध बाहर बगीचे में शिथिल सा बैठा था, सोचते हुए कि उसे घर तो जाना ही होगा। अब चलना चाहिए। उसे किसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था। एक शून्य में घिरा उसका शिथिल मन ज़रा सी आहट पर ज़ोर से धड़कने लगता और फिर से जैसे गुम हो जाता।
“हैलो” उसके कंधे पर किसीने हाथ रखा ,वह चौंक गया।
आवाज़ बहुत परिचित थी। वह घूमा और जैसे उसने अपने सामने के व्यक्ति पर दृष्टि डाली उसे चक्कर आने लगे।
“स्टैला??” उसके मुख से कुछ ऐसे निकला जैसे उसने किसी भूत को देख लिया हो।
“क्यों घबरा रहे हैं? स्टैला ही हूँ।” चिर-परिचित मुस्कान से उसने प्रबोध को विश्वास दिला दिया कि वह वही स्टैला थी जिसे वह तलाश करता रहा था।
स्टैला उसके पास बैंच पर आकर बिना किसी तक़ल्लुफ़ के बैठ गई। प्रबोध का असमंजस गहराता जा रहा था। जिस स्टैला को वह कबसे तलाश कर रहा था, बेचैन था उससे बात करने के लिए। अब उसके पास शब्द ही नहीं थे। वह बिना पलकें झपझपाए उसके चेहरे पर आँखें गडाए था।
“भूत नहीं हूँ।” कहकर स्टैला खिलखिलाई। वह बहुत स्वस्थ्य व प्रसन्न लग रही थी। किसी प्रकार का कोई द्वन्द उसके चेहरे पर नहीं था।
“आपने मेरठ सिटी-हॉस्पिटल में फ़ोन किया था?” अचानक स्टैला ने प्रबोध से सीधे-सीधे पूछ लिया। वह सकपका गया।
“क्या कोई काम था ?” वह बड़ी सहज थी। फिर हँसकर बोली, “मैं भी—!! अरे! आपका आश्चर्य में आना स्वाभाविक था। मैंने ही तो आपको बताया था कि मैं सिटी-हॉस्पिटल में जा रही हूँ लेकिन होना वही होता है जिसकी रूपरेखा बन चुकी होती है।” स्टैला ने एक लंबी साँस ली।
प्रबोध के पास जीती-जगती स्टैला बैठी थी। उसे आश्वस्त होना चाहिए था लेकिन वह असमंजस में था।
अचानक स्टैला उठकर खड़ी हो गई और उस ओर तेज़ी से चलने लगी जिस ओर प्रबोध पहले दिन किसी अनमनी मानसिक स्थिति में जा रहा था।
“स्टैला! कहाँ जा रही हो?” वह रुकी। उसने घूमकर पीछे देखा।
यह क्या? वह स्टैला कहाँ थी? वह तो वो औरत थी जो उसे चाँदनी-चौक में कहानी बताकर मुस्कुराते हुए लुप्त हो गई थी।
वह उस टूटी हुई दीवार की ओर भागी जा रही थी। प्रबोध उसके पीछे लगभग भागते हुए गया।
“स्टैला!लिसन प्लीज़!”
वह उसकी आवाज़ अनसुनी करके भागी जा रही थी। आगे बढ़कर प्रबोध ने उसके हाथ पकड़ लिए, “कहाँ जा रही हो?” धीरे से उसके मुख से निकला।
“सोंब्रे! तुम भूल गए! मैं नहीं! न जाने कितने जन्मों से तुम्हें ढूँढ रही थी। तुम मिलते ही नहीं थे। अब मिल गए हो तब मेरी सोल मुक्त होगी। बिशप तुम्हें ढूँढ रहे हैं। गुड बाय माय लव! आई एडोरड यू। तुम्हारी याद में मैंने यह चर्च बनवाया। तुम यहाँ आते रहना। मैं हर क्रिसमस पर तुम्हें मिलूँगी। नाऊ,आई हैव टू गो बैक टू कम अगेन!” अचानक स्टैला फ़रज़ाना में बदली दिखाई दी थी। उसने उसी जगह से छलाँग लगा ली थी जहाँ उस दिन वह अनजाने में चला जा रहा था।
सूर्यास्त हो चुका था। वह दीवार के पास उलटे मुँह गिर गया था। झुटपुटे में लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। प्रबोध ने फुसफुसाहट सुनी, “आख़िर ,कितने लोग जाएँगे ऐसे?” वह बेहोश हो चुका था। अगले दिन वह दिल्ली के सफदरजंगअस्पताल में था. उसका इलाज़ करने अस्पताल के मनोविज्ञान के विशेषज्ञ आ चुके थे और उससे उसके साथ हुई घटनाओं के बारे में पूछने की चेष्टा कर रहे थे।