भाग – 7
चाँदनी -चौक के घुँघरू प्रबोध के मनोमस्तिष्क में बजते ही जा रहे थे। कैसे पीछा छुड़ाए उस छनछनाहट से,उस आवाज़ से? स्टैला सिंह को फ़ोन किया प्रबोध ने जिसका कोई उत्तर उसे नहीं मिल पाया। मेरठ के सिटी हॉस्पिटल में फ़ोन करके पता चला, वहाँ स्टैला सिंह नाम की कोई नर्स ही नहीं थी। बहुत बरसों पहले कभी हुआ करती थी, वह एंग्लोइंडियन थी और बाद में वहाँ से इंग्लैण्ड चली गई थी। लेकिन इस समय तो इस नाम की वहाँ कोई नर्स नहीं थी।
“क्या—–?” उसके मुख से बेसाख़्ता निकला। उसका दिल बैठने लगा। जिसके साथ वह इतनी सारी बातें करके आया था, जिसने उसे कितनी ऎसी बातों से परिचित करवाया था जो उसे मेरठ में बालपन से जाते रहने पर भी मालूम नहीं थी, उस व्यक्ति का अपना ही कोई अस्तित्व नहीं था !!
पापा से यह बात साझा करना उसे उचित नहीं लगा लेकिन मन की खुदर-बुदर उसे उलझा रही थी उसने पापा से पूछ ही लिया, “पापा,चाँदनी-चौक में एक बहुत बड़ी विशाल टूटी हुई इमारत दूर से देखी थी। कुछ अजीब सी लगी वह। क्या आपको उसके बारे में कुछ पता है?” प्रबोध ने अपने पिता रामनाथ से सारी बातें बताकर पूछा। उसके दिल पर एक बड़ा बोझ था जिससे वह छुटकारा पाकर हल्का होना चाहता था।
“शायद तुम दिल्ली की उस जगह की बात कर रहे हो, जहाँ एक कोठा था। वहाँ एक नाचने वाली थी जो बाद में सरधना की सल्तनत की मलिका बन गई थी। हाँ, वह तो बहुत मशहूर तवायफ़ थी जो बाद में ईसाई बन गई थी। उसने सरधना में चर्च बनाया है। बहुत सुंदर कारीगरी है उस चर्च की! लेकिन तुम अचानक उसे क्यों पूछ रहे हो?”प्रबोध ने पिता से कुछ नहीं कहा। उसने स्टैला के बारे में भी कोई ज़िक्र नहीं किया। उसे डर था कि रामनाथ शायद उससे इस विषय पर कोई बात करना पसंद नहीं करेंगे।
” पापा, उसके बारे में मुझे कुछ बताइए न —-“प्रबोध ने कभी भी अपने पिता से किसी बारे में ज़िद नहीं की थी लेकिन उस दिन वह कुछ बेचैन सा था। रामनाथ ने न जाने क्या सोचा और कहानी सुनाने लगे।
“उसका नाम फ़रज़ाना था तब! भोली,मासूम लड़की; जिसके पिता भारी डील-डौल वाले पठान थे और माँ कश्मीर की ख़ूबसूरत औरत। उसकी माँ, उसके पिता की दूसरी बीवी थी। उसके पिता के मरने के बाद उसके सौतेले भाई ने फरज़ाना और उसकी माँ यानि अपनी सौतेली माँ व बहन को घर से निकाल दिया था । माँ-बेटी बेसहारा थीं, जो न जाने कैसे भटकते हुए दिल्ली आ पहुँचीं थीं। यहाँ जामा मस्ज़िद की सीढ़ियों पर बैठकर वे दोनों पशोपेश में थीं, अंधकारयुक्त भविष्य उनके सामने डरावना चेहरा लेकर मुँह फाड़े जैसे लीलने को तैयार था कि फ़रज़ाना की माँ बेहोश हो गई। यह ईश्वर की कुदरत ही थी कि चाँदनी -चौक से आई कोठे की मालकिन गुलबदन वहाँ से गुज़र रही थी, वह उन माँ-बेटी पर तरस खाकर उनको चाँदनी-चौक में अपने कोठे पर ले गई। उसने फ़रज़ाना को नाचने,गाने की विधिवत शिक्षा दिलवाई —” रामनाथ थोड़ा रुके,पास रखे ग्लास से दो घूँट पानी पीया और बोले, “सोलह साल की थी फरज़ाना, जब कोठे पर रेनहार्ट सोंब्रे नाम का एक फ्रैंच सैनिक नाच-गाना देखने पहुँचा। जहाँ फ़रज़ाना ने उसके सामने नृत्य व गायन पेश किया। पहली बार में ही उन दोनों में प्रेम हो गया और उम्र में काफ़ी फ़र्क होने पर भी सोंब्रे ने फ़रज़ाना से शादी कर ली —-!”
प्रबोध के सामने चलचित्र सा चल रहा था। एक किराए के फ्रेंच सिपाही सोंब्रे का हिंदुस्तान ऐसे समय में आना जब चारों तरफ़ से लोग हिंदुस्तान पर कब्ज़ा करने की ताक में थे। एक तरफ़ ईस्ट इण्डिया कंपनी की ठगी और दूसरी ओर दिल्ली के बादशाह का कन्फ्यूज़न! रेनहार्ट सोंब्रे ने अपनी बहादुरी दिखाकर सिराजुद्दौला और मीर कासिम का भरोसा हासिल किया और धीरे-धीरे उसकी पैठ मुग़ल दरबार तक हो गई। मुगलों के साथ रहकर वह हिन्दुस्तानी तहज़ीब और फ़ारसी ज़ुबान बड़ी ख़ूबसूरती से सीख गया। उसकी बहादुरी का लोहा मानते हुए मुग़ल दरबार के तख़्त पर बैठे शाहआलम से उसे सरधना की बड़ी सी जागीर इनाम में मिली। और वह समरु साहब के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
सन 1773 में उसे शाह आलम ने बुला लिया और सरधना की जागीर के साथ आगरा का सिविल और मिलिट्री गवर्नर भी बना दिया,उसके अधिकार बढ़ते रहे लेकिन 1778 में आगरा में उसकी मृत्यु हो गई। उसके बाद फ़रज़ाना जो अब बेग़म समरु के नाम से विख्यात हो गई थी, उसको मुगल बादशाह ने सरधना की जागीर का नियंत्रण दे दिया। अपने पति की मृत्यु के बाद फ़रज़ाना बेग़म ने ईसाई धर्म अपना लिया और फिर निर्माण किया सरधना के विशाल गिरजाघर का।
रामनाथ न जाने किस रौ में बोले जा रहे थे। प्रबोध ने अपने पिता को कभी ऐसे बोलते हुए नहीं देखा था,वह चुपचाप बैठा सुनता रहा।
“इस बेग़म समरु की ज़िंदगी में कई और भी आदमी आए। उसका संबंध भी उनके साथ रहा। इसकी कहानी बहुत लंबी है। यूँ बेग़म समरू को बहुत अधिक लोग नहीं जानते, उसके बारे में बातें भी नहीं की जातीं लेकिन यह भी सच और काबिले तारीफ़ है कि 85 साल की उम्र में इस औरत ने जो इतिहास रचा, उसका कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता। वह मर्द सिपाही की पोशाक पहनकर लड़ाई के मैदान में कूद जाती थी। ऎसी जांबाज़ी किसी और महिला में नहीं दिखाई दी! रामनाथ क्षण भर को रुके फिर बोले, “यह हिन्दुस्तान का वो दौर था जब यहाँ राजनीति में कुचक्र, साज़िशें, षड़यंत्र, लूटपाट आम बात थी। न राजा सुरक्षित था, न ही प्रजा। न ब्रिटिशर्स, न उनका कलेक्टर, न ही कंपनी! ऐसे समय में इस बेग़म ने अपनी बहादुरी से बार-बार अपनी रियासत बचाकर सत्ता को संतुलित रखा। ”
“कौनसा समय ऐसा रहा है पापा जब हिन्दुस्तान की राजनीति में यह सब न रहा हो?” प्रबोध के मुख से निकला।
“बेटा! राजनीति में ये सब बातें आम हैं। सबको अपने स्वार्थ प्रिय रहते हैं। बात यह थी कि एक नाचने वाले कोठे से निकली बहादुर औरत ने कैसे अपने राज्य को सँभाला!”
“मैं भी कहाँ की बातों में खोने लगा —-” रामनाथ बोले और खड़े होने को तत्पर हुए, “बताओ,तुम्हें इतना इंटरेस्ट क्यों और कैसे आया इस सब में —?” उन्होंने फिर प्रबोध से पूछा।
“अरे ! कुछ नहीं,बस ऐसे ही पापा! उस टूटी-फूटी हवेली को देखा न! तो –बस —-”
“उधर जाने की ज़रूरत नहीं है! अब भी वह जगह कोई बहुत सेफ़ नहीं है —“रामनाथ अचानक ही स्ट्रिक्ट अनुशासित पिता बन गए।
“मतलब —?”
” मतलब, वतलब कुछ नहीं! बदनाम मुहल्ला रहा है। अब तो टूट-फूट भी गया! लोग वहाँ जाना पसंद नहीं करते!” रामनाथ न जाने कैसे इतना सब बोल गए थे। अब जैसे इस विषय पर कुछ बात ही नहीं करना चाहते थे, वे विषय को मोड़ रहे थे ।
प्रबोध पापा से सब कुछ शेयर करना चाहता था कि उसके साथ क्या हो रहा है? लेकिन पापा का मूड देखकर वह बात नहीं कर पाया। पापा के मुख से इतनी सारी बातें सुनकर उसे और भी बेचैनी होने लगी थी किन्तु वह जानता था, उसका चुप रहना ही ठीक था।
उसने उसके बाद पापा से इस बात का कोई ज़िक्र नहीं किया। लोग तो अब भी वहाँ खूब जाते थे, देखकर तो आया था वह! उसके मन में सारी चीज़ों का गड्मड होने का कोई मतलब ही समझ नहीं आ रहा था।
भोर से प्रबोध पापा के साथ बात कर रहा था। लगभग दस बजे के करीब तैयार होकर उसने गाड़ी उठाई और बोला, “थोड़ा बाहर जाकर आता हूँ —” कहकर घर से निकल गया। किसीने उसे टोका भी नहीं । लगता था, वह किसी पशोपेश में है। माँ,पिता ने सोचा दोस्तों से मिलकर बेहतर महसूस करेगा।
प्रबोध ने सोचा कि गाज़ियाबाद के अपने कुछ मित्रों से मिलकर उसे अच्छा लगेगा। वैसे भी सबको उससे बहुत शिकायतें रहती थीं। अपने आप तो कभी दोस्तों से मिलने जाता ही नहीं था।
उसकी गाड़ी दौड़ती रही और न जाने कैसे मेरठ जा पहुँची! उसने सोचा कि मेरठ सिटी-हॉस्पिटल जाना चाहिए किंतु उसका साहस नहीं हुआ यदि सच में वहाँ स्टैला न मिली — !
बेग़म-पुल से गुज़रते हुए उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा,उसे वो अंधी भिखारन की कहानी याद आने लगी। वह वहाँ से भाग जाना चाहता था। उसका मनोविज्ञान जैसे उसके सामने लहराता हुआ उसे चिढ़ा रहा था। कुछ सोचते हुए वह दादा -दादी से मिलने चला गया। वहाँ मुश्किल से एक घंटा ही बैठा होगा कि उसे फिर बेचैनी सी होने लगी।
दादाजी, दादी जी या किसी और ने उससे कभी भी इन सब बातों की चर्चा नहीं की थी जिन्होंने उसके मनोमस्तिष्क में उपद्रव मचा रखा था। दादी ने बहुत कहा कि खाना खाकर जाए किन्तु उसने बताया कि घर पर मालूम नहीं है कि वह मेरठ आया है। उसे गाज़ियाबाद लौटना होगा, वहाँ अपने मित्र से उसे कुछ ज़रूरी काम है।
.……. क्रमशः……….