भाग – 6
दीवाली की छुट्टियों में बच्चों ने बहुत आनंद किया। पता ही नहीं चला दिन कब गुज़र गए? रामनाथ की माँ अब काफ़ी ठीक हो गईं थीं। स्टैला की सेवा व व्यवहार ने उनमें एक नई जान डाल दी थी। घर की बेटी जैसी हो गई थी वह! बच्चे तो उसके दीवाने हो ही चुके थे।जब रामनाथ जी के परिवार की गाज़ियाबाद लौटने की तैयारी शुरू हुई तभी स्टैला ने भी कहा कि अब दादी जी बिलकुल ठीक हैं,उसे भी लौट जाना चाहिए किन्तु रामनाथ व दयानाथ ने उसे कुछ दिन और रुकने के लिए कहा। उनका कहना था कि सबके एकसाथ जाने से कहीं माँ फिर से एकाकी महसूस न करने लगें! शैलजा ने भी स्टैला को यह कहकर रोक लिया कि शांति दीदी के वापिस चले जाने से वह भी अकेली पड़ जाएगी।
इस बार प्रबोध दादा जी घर से खाली नहीं आया था ,उसके मन में ‘बेगमपुल की बेग़म’ की कहानी कुछ ऎसी रच बस गई थी मानो वह उसका स्वयं साक्षी रहा हो।एक कहानी सी बनकर स्टैला उसके साथ ही चली आई थी जैसे ,उसकी यादों में कैद होकर। लेकिन रात में उसे कुछ उलझन सी होने लगी थी। जैसे कोई उसे पुकारता था —किस नाम से पुकारता ,उसे बहुत स्पष्ट न होता लेकिन वह प्रभु, प्रबोध या डॉ. प्रबोध गौड़ नहीं था। वह फुसफुसाहट कुछ और ही थी। कॉलेज शुरू हो चुके थे ,उसकी क्लासेज़ लेना भी। थोड़े ही समय में ही वह अपने छात्र/छात्राओं में बहुत लोकप्रिय हो चुका था।उसके पढ़ाने का तरीका बहुत ही रोचक था। वह अपने छात्रों को मनोविज्ञान के ऐसे पहलुओं से रूबरू करवाता कि छात्र उसके ज्ञान का लोहा मानने लगे थे।
डॉ.प्रबोध गौड़ का कहना था कि मनोविज्ञान मन का विज्ञान है। सब बड़े वैज्ञानिकों को पढ़ो लेकिन अपने मन के आँगन में ज़रूर झाँको ,वो क्या कहता है? बड़े मनोवैज्ञानिकों की परिभाषाओं को समझकर अपनी परिभाषा बनाओ और जीवन के सत्य को जानने,समझने की चेष्टा करो।बच्चों को अपने युवा प्रोफ़ेसर के साथ चर्चा करने में बहुत आनंद आता और वे अपने मन की ग्रंथियों को उनके सामने खोलकर रख देते।लेकिन प्रबोध जैसे अपने ही किसी मकड़जाल में फँस गया था। मनोविज्ञान के शिक्षक को अपने मन की बात ही उलझाने लगी थी। बेग़म पुल की बेग़म उसे जैसे पुकारने लगी थी।
एक दिन कॉलेज के किसी प्रोफ़ेसर के साथ प्रबोध को दिल्ली चाँदनी-चौक जाना पड़ा। हुआ कुछ यूँ कि प्रोफ़ेसर सिन्हा की पत्नी कुछ ख़रीदारी करने चाँदनी-चौक गईं थीं। दरसल वो चाँदनी-चौक में पली-बढ़ीं थीं। उनके पिता का घर वहीं था। यद्यपि अब वहाँ की काया पलट हो चुकी थी। उनके पिता व भाईयों ने राजौरी गार्डन में अपनी कोठियाँ बना लीं थीं लेकिन उनके परिवार की कुछ दुकानें कई पीढ़ियों से बँधी हुईं थीं। सिन्हा साहब के ससुराल के लोग एलेक्ट्रोनिक की कुछ चीज़ें वहीं से लेना पसंद करते। दुकान अब ‘बंसल शो-रूम’ में परिवर्तित हो गई थी और अब वहाँ तीसरी पीढ़ी अपने अनुसार काम करने लगी थी।
प्रोफ़ेसर सिन्हा के पास बंसल शो-रूम से फ़ोन आया था कि उनकी पत्नी की तबियत खराब हो गई है ,शायद उनका बी.पी लो हो रहा था। सिन्हा जानते थे कि उनकी पत्नी मीना की तबियत ठीक नहीं थी ,उन्होंने कहा भी था कि दो-चार दिन रुक जाएँ तो वो अपने साथ उन्हें लेकर गाड़ी से चलेंगे।वैसे इतने भीड़-भड़क्के वाले स्थान पर गाड़ी ले जाना आसान न होता था। उस दिन उनकी गाड़ी भी गैराज में थी।
मीना को अपनी पड़ोसन सखी का साथ मिल गया और वो पति को पटाकर निकल आईं।वो अक़्सर ऐसा ही करतीं थीं ,जहाँ कोई कंपनी मिली नहीं कि बाज़ार-हाट की फेरी शुरु! खूब घूमतीं,मस्ती करतीं,चाट-पकौड़ी खातीं ,अपनी पसंददीदा जगहों पर जातीं ,अपनी मनपसंद चीज़ें खरीदतीं और पतियों के आने से पहले घर लौट आतीं। हाँ,पतियों को पता होता था कि उनकी पत्नियाँ आनंद करने घर से निकली हैं।प्रो. सिन्हा ने भी सोचा अकेली तो जा नहीं रही हैं ,उनके साथ उनकी पड़ौसन व सहेली है,वो भी निश्चिन्त हो गए।
फ़ोन आने पर डॉ. सिन्हा को चिंतित देखकर डॉ. प्रबोध ने उन्हें अपने साथ चलने का प्रस्ताव रखा। सिन्हा जानते थे कि चाँदनी-चौक के भीड़ भरे इलाक़े में गाड़ी से जाना आसान नहीं था। जैसे ही पुरानी दिल्ली में पहुँचे कि प्रदूषण और भीड़ का इलाका शुरू हो गया। लेकिन पत्नी के लिए चिंतित प्रोफ़ेसर सिन्हा को प्रबोध ज़बरदस्ती अपने साथ लेकर चाँदनी-चौक पहुँचा| वह इस तरफ़ कभी आया ही नहीं था ,दरसल कोई काम ही नहीं पड़ा था।
“क्या भीड़ है —! आपको मुश्किल में डाल दिया डॉ.गौड़ —” डॉ.सिन्हा परेशान थे ,उन्हें महसूस हो रहा था कि उन्होंने इस शरीफ़ बच्चे को भी परेशानी में डाल दिया।
“इट्स ओ.के सर —ये सब तो होता रहता है –लेकिन यहाँ गाड़ी पार्क करने की मुश्किल होगी –भाभी जी को कैसे लाएँगे?” उसकी परेशानी स्वाभाविक थी ,वन-वे में गाड़ी को डालना यानि —“वैसे शो-रूम सामने ही है —” उन्होंने इशारे से दिखाते हुए कहा।
“मैं वहाँ पहुँच जाऊँ और उन्हें किसी तरह यहाँ तक ले आऊँ,न जाने कैसी तबियत होगी —-?” कहकर सिन्हा गाड़ी से उतरकर भीड़ भरी सड़क पार करने लगे। चारों ओर छोटी दुकानें ,बीच में कहीं ठेले जिन पर सस्ते लड़कियों के साज-श्रृंगार के सामान ,कपड़े की लारियाँ और सामने लाईन में लगे बड़े-बड़े स्टोर्स ,उन्हीं में एक स्टोर बंसल जी का भी था।
“सॉरी—-” सिन्हा हड़बड़ी में किसी ख़ूबसूरत स्त्री से टकरा गए थे,चिंता उनके प्रौढ़ चेहरे पर साफ़ पसरी दिखाई दे रही थी।
“मियाँ –ज़रा देखकर चलिए —” स्त्री ने बुरखा नहीं पहन रखा था लेकिन पहनावे व भाषा से मुस्लिम लग रही थी।
“माफ़ कीजिएगा मैडम —-” उन्होंने हाथ जोड़ लिए और बंसल शो-रूम की ओर बढ़ गए।
प्रबोध यह सब देख-सुन रहा था। वह स्त्री सामने कहीं दुकानों के पीछे से निकली थी ,प्रबोध ने उसे निकलते हुए देखा था। जाने क्यों प्रबोध उस टूटी-फूटी,बहुत बड़ी सी इमारत की ओर ध्यान से देखने लगा जिसके बाहरी ओर कुछ छोटी दुकानें थीं और जिनको दो बाँसों के सहारे एक तिरपाल जैसे कपड़े से आगे का भाग कवर किया गया था।
“उस इमारत की तरफ़ देख रहे हैं —? जनाब ख़त्म हो गई वो अब ,खंडहर ही बाक़ी हैं। कभी जब हुआ करती थी उसमें एक नाज़नीन ,महज़बीन–अब भी यादें भरपूर हैं —-हाँ,अब भगीरथ पैलेस में स्टेट बैंक की बिल्डिंग है —देख रहे हैं —वो –“उस औरत ने इशारे से प्रबोध को बिल्डिंग दिखा भी दी। प्रो. सिन्हा से टकराने वाली स्त्री ने उसे यह सब क्यों बताया? वह कुछ परेशान सा हो उठा।
प्रोफ़ेसर सिन्हा से टकराने वाली मुस्लिम स्त्री काफ़ी खूबसूरत थी ,उसने एक नज़र गाड़ी में बैठे प्रबोध पर डाली और मुस्कुराते हुए ऊपर वाले शब्द कहे और उसकी गाड़ी के क़रीब से लहराती हुई निकल गई।प्रबोध हक्का-बक्का देखता ही रह गया।उसे क्यों सुना गई वह औरत ये सब? कुछ दिनों से कुछ अजीब-अजीब बातें हो रही थीं उसके साथ! वह खुद मनोविज्ञान का अध्यापक था ,मन में जैसे धागों की लच्छियाँ उलझ रही थीं और वह उनमें फँसता जा रहा था।
उस औरत ने आगे जाकर एक बार फिर पीछे मुड़कर गाड़ी में बैठे प्रबोध की तरफ़ देखा और फिर से मुस्कुरा दी। प्रबोध ने अपनी गाड़ी के शीशे में से उसका मुस्कुराना देखा और उसका दिल धक-धक करने लगा।अजीब सा क्यों लग रहा था उसे —-?
‘नहीं —ऐसो जनम बारंबार —–छन–छनाक —-” उस दिन गिरजाघर में सुनी आवाज़ उसके मस्तिष्क से टकराई और वह असहज हो उठा।
उस औरत का बार-बार मुड़कर देखना ,मुस्कुराना प्रबोध के मन में खलबली पैदा कर रहा था।
प्रो.सिन्हा अपनी पत्नी को सहारा देकर भीड़ भरे रास्ते से सँभालकर निकालने की कोशिश कर रहे थे। अधेड़ उम्र के प्रोफ़ेसर सिन्हा के चेहरे पर चिंता की लकीरें पसरी हुईं थीं।उनकी पड़ौसन ने अपने बड़े से पर्स के साथ उनकी पत्नी का पर्स भी उठा लिया था। ख़रीदे हुए सामान के पैकेट्स उठाए शो-रूम का लड़का पीछे-पीछे चला आ रहा था।
प्रबोध ने पीछे की सीट पर से अपनी फ़ाइल्स ,लैपटॉप व पुस्तकें हटाकर दोनों महिलाओं के लिए जगह बनाई। भीड़ इतनी अधिक थी कि गाड़ी से उतरकर डिग्गी खोलना संभव ही नहीं था। किसी तरह ख़रीदे गए सामान के पैकेट्स आगे-पीछे फँसाकर रख लिए गए ,बड़ी मुश्किल से प्रबोध ने पीं —पीं करते हुए गाड़ी बैक की और प्रो.सिन्हा के घर की ओर चल पड़ा।
श्रीमती सिन्हा की तबियत पहले से बेहतर लग रही थी ,उन्हें शो-रूम में कोल्ड-ड्रिंक पिला दिया गया था। ऐसा उनके साथ अक़्सर हो जाता था। बच्चे अपने-अपने ठिकानों पर थे। प्रो.सिन्हा अपने शिक्षण-पठन में व्यस्त! प्रोफ़ेसर के कॉलेज जाने के बाद वे अकेली रह जातीं। ख़ालीपन ने आस-पड़ौस में उनके काफ़ी मित्र बना दिए थे जिनके साथ अक़्सर उनका बाहर जाने का कार्यक्रम चलता रहता। लोगों के बीच में वो स्वस्थ्य रहतीं।अकेलापन किसे रास आता है? वह भी ऐसे व्यक्ति को जो ज़िंदगी भर सबकी इच्छाएँ पूरी करने के लिए गोल-गोल घूमता ही रहा हो। धीरे-धीरे यदि वह वह अकेला रह जाए तो मुश्किल हो जाता है जीवन! काम भी लगभग न के बराबर रह जाता है।
लगभग सवा घंटे में प्रबोध प्रो.सिन्हा के एपार्टमेंट पहुँचा। सिन्हा साहब ने प्रबोध से भीतर आने का बहुत अनुरोध किया लेकिन उसे कुछ देर के लिए कॉलेज भी जाना था,वहाँ दीना उसका इंतज़ार कर रहा था जो उसके साथ ही गाज़ियाबाद वापिस जाता था।
प्रो.सिन्हा व उनकी पत्नी प्रबोध के बार-बार धन्यवाद देने से प्रबोध खिसिया गया।
“यह तो मेरा फ़र्ज़ था आँटी –आपके बच्चे जैसा हूँ —”
“यह तो ठीक कह रहे हो बेटा,प्रो.सिन्हा के रिटायरमेंट के तो अब कुछेक साल ही हैं और तुम्हारा कैरियर अभी शुरू ही हुआ है —जीते रहो –” उन्होंने प्रबोध के सिर पर आशीर्वाद भरा स्नेहयुक्त हाथ रख दिया।
“मैं चलता हूँ,नमस्कार प्रो. सिन्हा –बाय आँटी ,अपना ध्यान रखिएगा —” ख़ुश हो गए दोनों पति-पत्नी! प्रबोध का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था ,अपने सेवाभावी विनम्र व्यवहार से वह सबका मन जीत लेता।
गाड़ी चलाते हुए प्रबोध उस औरत के बारे में सोचता रहा और अपने कॉलेज की सड़क पर आ गया। कॉलेज के गेट पर खड़ा दीना उसे नज़र ही नहीं आया और वह काफ़ी आगे बढ़ गया।
“सर–सर —मैं यहाँ हूँ—” दीना बेचारा भागता हुआ उसकी गाड़ी के पीछे आने लगा लेकिन उसको होश ही नहीं था ,न जाने किस धुन में वह चला जा रहा था। वह तो चार रास्ते पर लाल-बत्ती होने से गाड़ी रोकनी पड़ी।
“साहब! कोई आपको बुला रहा है —“किसी साईकिल-चालक ने उसका ध्यान अपनी ओर खींचा। वह सड़क के दूसरी ओर से आ रहा था और उसे कोई आदमी उसकी गाड़ी के पीछे भागता नज़र आ गया था। प्रबोध की गाड़ी के पीछे कोई और वाहन न होने से यह तो पक्का था कि उसको ही कहा जा रहा है।
‘ओह! मैं भी —-” प्रबोध ने अपने सिर को झटका दिया।
अब तक दीना पास में आ गया था ,उसकी साँस फूल रही थी। प्रबोध ने गाड़ी का दरवाज़ा खोला और लाल बत्ती हरी हो गई।
“सर—क्या— हुआ?” गाड़ी में बैठते हुए साँस फूलने के कारण वह मुश्किल से बोल पा रहा था।
“सॉरी ,दीना! —पता नहीं मैं कैसे आगे निकल आया –” प्रबोध इस क्षण में लौट आया। आगे गाड़ी बढ़ाकर उसने सड़क के किनारे रोक दी। फ़्लास्क से ठंडा पानी एक डिस्पोज़ेबल ग्लास में निकाला और उसे पीने के लिए दिया। प्रबोध की आदत थी वह अपनी गाड़ी में सब ज़रूरत के सामान रखता था।यह ट्रेनिंग उसकी माँ की थी। उसे ये चीज़ें अक़्सर काम आती रहती थीं।
उस दिन रात को घर पहुँचकर प्रबोध और भी असहज रहा। न तो उससे खाना खाया जा रहा था ,न ही उसे इतना थके होने के बावज़ूद भी नींद आ रही थी।
“क्या बात है —-सुबह के गए हो ,ठीक से खाना क्यों नहीं खा रहे बेटा —?” शांति जी ने बेटे से पूछा। उन्हें चिंता हुई कि वह कहीं बीमार तो नहीं हो रहा है!
“नहीं माँ ,ऎसी कोई बात नहीं है –बस–थकान ज़रा ज़्यादा ही महसूस हो रही है।
वह अपने कमरे में चला गया और आँखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगा। सामने दीवार पर चलचित्र चल रहा था। उसे नृत्य और संगीत के बारे में थोड़ा भी ज्ञान नहीं था लेकिन ये जो धुन उसके कानों में पड़ रही थी,उसका क्या करता? किसके साथ साझा करे?
‘नहीं ऐसो —नहीं ऐसो –जनम बारंबार —–‘ पैरों की थाप घुँघुरूओं के साथ शुरू हो गई —
ता —थेई –तत –तत –थेई -आ –थेई– तत –थेई
नहीं ऐसो जनम बारंबार —-नहीं ऐसो जन्म बारंबार —नहीं ऐसो —
मुश्किल से प्रबोध की आँखें लगीं और एक झटके से वह उठकर बैठ गया —
चाँदनी चौक में खड़ा था प्रबोध और एक सुंदर नृत्यांगना के पैरों के घुँघरू थाप दे रहे थे। ये क्या था?उसने आँखें मलते हुए सोचा ,दिल की धड़कन बढ़ीं,फिर कम हुईं ,फिर से एक दिल को छू लेने वाली आवाज़
‘ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी ,मेरो दर्द न जाने कोय ——-‘
‘ये मीरा कहाँ से आ गई —-‘प्रबोध की आँखों में सपने भरने ,बहने लगे —
कौन था उनमें? स्टैला–? वो —चाँदनी-चौक की खूबसूरत स्त्री जो उसे बिना कुछ पूछे ही न जाने क्या-क्या बता गई थी?
मनोवैज्ञानिक डॉ.प्रबोध गौड़ का उलझा ,बेतरतीब मन भटकाव की चरम सीमा पर था।
बेग़म-पुल की बेग़म की कहानी उसके दिल को धड़का रही थी,स्टैला का नरम हाथ वह अपने हाथ में महसूस कर रह था जबकि उसने कभी भी स्टैला का हाथ अपने हाथ में नहीं लिया था। बस साथ चलते हुए कभी टकरा जाना ,एक ऎसी छुअन से सराबोर हो जाना जिसका कोई नाम न था ,न थी कोई पहचान! मेरठ से लौटकर स्टैला से कभी बात भी नहीं हुई थी लेकिन आज जिस औरत को उसने चाँदनी-चौक में देखा था,उसकी आँखें क्या स्टैला की नहीं थीं? क्या वो खूबसूरत मुस्लिम स्त्री स्टैला नहीं थी? सब गड्मड —-न जाने रात में कितने पल उसने आँखें बंद करके गुज़ारे और न जाने कितने पल झपकती आँखों से सामने की दीवार पर बनते-बिखरते चित्र पहचानने में। सुबह बड़ी देर तक वह अपने बिस्तर में ही था। रविवार था ,उसे सोने दिया गया। रामनाथ और शांति देवी दोनों ही जानते थे कल उनका बेटा बहुत थक गया था। भला गाड़ी से भीड़ भरे चाँदनी-चौक में क्या जाने की ज़रुरत थी? रामनाथ अपने दिल की खटर-पटर शांत करने के चक्कर में बार-बार पत्नी के सामने कुछ न कुछ कहे जा रहे थे।लेकिन मानवता भी कुछ तो है ,ज़रूरत पड़ने पर ही इंसान इंसान के काम आता है। हाँ,यह बात भी है —उन्होंने इस बात की स्वीकारोक्ति में अपना सिर हिलाया और अपने काम में निमग्न हो गए।
.……. क्रमशः……….