पाँचवा भाग
इस बार सप्ताह के अंत में यानि शनिवार की रात को रामनाथ जी का पूरा परिवार मेरठ पहुँचा | ‘बेग़म पुल’ से उतरते हुए प्रबोध को एक अजीब सा अहसास हुआ | वह जब से समझदार हुआ था तब से बेग़म पुल को रचता-बसता देख रहा था |बेग़म पुल उसे एक अजीब सी मनोदशा में पहुँचा देता | उसे पार करने के बाद फिर से उसके दिमाग़ में उसकी एक धुंध भरी स्मृति रह जाती | उसके मस्तिष्क के पीछे एक अलग चित्र बन गया था जो उसे समझ में नहीं आ रहा था | मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर प्रबोध को अपने पढ़े हुए चर्चित वैज्ञानिक युंग,फ़्रॉयड ,अल्फ़्रेड एडलर, जीन पियाजे,मैक्डूगल याद आने लगे |वह अपने आपको उनकी परिभाषाओं से तोलने के मंथन में पड़ने लगा |
नई कॉलोनियों में जाने वाले लोगों को बेग़म-पुल से होकर जाना पड़ता था | प्रबोध को हर बार ही उस पुल से गुज़रते हुए एक अजीब सा अहसास होता रहा है ,इस बार भी हुआ लेकिन इस बार भी बात वहीं रह गई | वह उस पुल के बारे में किसीसे बात करना चाहता था जो नहीं कर पाया |
कुछ ही देर में वे सब लोग अपने पैतृक घर में पहुँच गए | बच्चे गाड़ी से उतरते ही दादी-दादू से मिलने भागे जो उन्हें गेट खोलते ही बरामदे के तख़्त पर बैठे मिल गए थे | प्रबोध गाड़ी लगाने दूसरे गेट की ओर चला गया जो अधिकतर बंद ही रहता था | उस बंद गेट के सामने अंदर के भाग में सबकी गाड़ियाँ रखी जाती थीं |
“आप — ?” प्रबोध को वह नया चेहरा गेट में प्रवेश करते ही टकरा गया | इस बार बच्चे भी साथ गए थे और वहाँ दिवाली की लंबी छुट्टियों के कारण मेरठ में ठहरने का लंबा कार्यक्रम बन गया था |
“जी –मैं –स्टैला —-दादी जी की नर्स !”
इतनी ख़ूबसूरत नर्स ! जैसे हाथ लगाओ मैली हो जाएगी | वह कुछ बोला तो नहीं किन्तु उसके दिमाग़ में कुछ अजीब से प्रश्न तैरने लगे |
‘यहाँ कैसे ?’ प्रबोध को आश्चर्य था ,दादी कट्टर ब्राह्मण धर्म को मानने वाली | वैसे यह पूरा परिवार आर्य समाजी था किन्तु दादी जब छूआछूत की बात करतीं, सारे बच्चे उन्हें छेड़ना शुरू कर देते थे |
“दादी जी, स्वामी दयानन्द सरस्वती ने क्या कहा था छूआछूत नहीं करनी चाहिए ?”
“सब मनुष्य एक हैं —-”
“अगर आप उन्हें नहीं मानतीं तो फिर यज्ञ क्यों करवाती हैं ?”एक के बाद एक सवाल दागते बच्चे दादी की तौबा बुला देते |
दादी खिसिया जातीं | फ़ैक्ट्री में तो न जाने कौन-कौनसी जात-बिरादरी के लोग काम करते थे | बच्चे उनके सामने खूब फुलझड़ियाँ छोड़ते और दादी के चेहरे पर मुस्कान चिपकाकर ही दम लेते |रामनाथ और दयानाथ के बच्चे मिलाकर पाँच बच्चे थे और चाचा-ताऊओं के उसी कंपाउंड में चार और परिवार थे जिनके कुल छह बच्चे थे | बेशक ,बच्चे अब बड़े हो गए थे ,बड़े हो रहे थे लेकिन दादी-दादू के सामने जान-बूझकर बचकानी हरकतें करते और उनका मन लगाए रखते |
कभी किसीकी जेब चाट वाले को कंपाउंड में बुलाकर खाली की जा रही है तो कभी आँखों-आँखों में इशारेबाज़ी करके जो पकड़ में आ जाए उसकी जेब के सहारे कुल्फ़ी, फ़ालूदा, आइसक्रीम का ठेला पकड़कर लाया जा रहा है | चतुर बच्चों ने बारी-बारी से सबकी जेबें हल्की करने की सूचि तैयार कर रखी थी | आज इन वाले चाचा जी की बारी है तो आज ताऊ जी की , आज दादी-दादू जी का नंबर है तो आज सबसे बड़े प्रबोध भैया की जेब ख़ाली करनी है |
सब बहन-भाइयों के साथ मिलकर उत्सव सा मनाना –चलता ही रहता | त्योहारों पर पूरा परिवार कोशिश तो यही करता कि सब लोग कुछ दिन एक साथ रह सकें |
इन्हीं सब बच्चों में स्टैला भी एक बच्ची सी आ गई थी | अपने काम में चुस्त यह एंग्लोइंडियन लड़की बहुत प्यारी थी ,शक्लोसूरत से भी ,स्वभाव से भी | जब वह अपनी मिश्री सी ज़ुबान में कहती —
“दादी जी ! आपको यह सूप या ज्यूस तो पीना ही पड़ेगा —इतनी हैवी डोज़ खाने के बाद यह ज़रूरी है दादी जी –” रामनाथ की माँ मना ही न कर पातीं | बीमारी के बाद उनका स्वाद ख़त्म हो गया था | डॉक्टर्स उन्हें कैल्शियम,विटामिन्स आदि दे रहे थे किन्तु उनका कहना था कि नैचुरल फ़ूड से उन्हें जल्दी ही इन दवाइयों से छुट्टी मिलेगी |
घर में रसोइया होते हुए भी स्टैला खुद दादी जी का खाना बनाती और मज़े की बात –धीरे-धीरे उनका एतराज़ कम होने लगा था |स्टैला के साथ वे ख़ुश दिखाई देतीं |उनका स्वास्थ्य सुधरने लगा था | उनके मुख से स्टैला का नाम ही झरता रहता और स्टैला हर पल मुस्कुराते हुए हाज़िर रहती |
बच्चे अक़्सर प्रबोध भैया को घेर लेते और उसे सबको ढोकर बेग़म पुल ले जाना पड़ता | वहाँ एक बहुत बड़ा बाज़ार बसा हुआ था ,एक से एक रेस्टोरेंट्स ,चाट-पकौड़ी के बड़े-बड़े साफ़-सुथरे ठेले खड़े रहते | उन पर खड़े होकर पत्तों में चाट खाना, दौनों में पानी के बताशे (गोलगप्पे ) खाने का मज़ा कुछ और ही होता |
बेग़म पुल के नीचे एक गहरा नाला बहता जिससे प्रबोध को बड़ी खीज आती | क्या यार ! इतनी अच्छी जगह पर ये नाला ! कैसी फीलिंग देता है |नाले के दोनों ओर छोटी-बड़ी दुकानें भी थीं बल्कि इस बार तो उसे एक बड़ा सा शो-रूम भी दिखाई दिया जो शायद छोटी कपड़े की दुकान को डैवलप करके पीछे तक खींच दिया गया था |
एक बार गाज़ियाबाद से मेरठ आते हुए प्रबोध अपने पिता से यही बात कर रहा था ,उन्होंने बताया कि उस पुल की बहुत महत्ता है | उस पुल को एक बेग़म ने बनवाया था जिसको सरधने आते-जाते इस स्थान को पार करना पड़ता था | अपनी सहूलियत के लिए उसने इस पुल का निर्माण करवाया | इसलिए उसका नाम ‘बेग़म पुल’ पड़ा |
मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर को न जाने उस दिन से क्या हो रहा था जब वह कॉलेज के छात्र/छात्राओं और अन्य प्रोफ़ेसर्स के साथ सरधना के गिरजाघर में पिकनिक के लिए गया था | पुल से गुज़रते हुए उसके मस्तिष्क में जैसे दूर कहीं से छन–छनन —सुनाई देने लगे |
‘नहीं,ऐसो जनम बारंबार —-‘क्या था यह ? किसको बताए यह सब ?
प्रबोध स्वयं मनोविज्ञान का अध्यापक था ,बहुत सी बातें समझता और बहुत सी बातें उसे खींचकर ऎसी जगह ले जातीं जहाँ वह गुम हो जाता,उसका मनोमस्तिष्क चलने लगता ,न जाने कहाँ-कहाँ –!!
इस बार दादी जी ने सब बच्चों के साथ स्टैला को भी घूमकर आने को कहा |
” जी नहीं, दादी जी मैं क्या करूँगी,मैं यहीं ठीक हूँ –” स्टैला ने घूमने जाने के लिए ना-नुकर की |
“तुम्हें भी बदलाव की ज़रूरत है बेटा ,जब से आई हो मेरी सेवा में ही लगी रहती हो –”
“नहीं दादी जी ,मुझे अच्छा लगता है | मैं बोर नहीं होती —“स्टैला ने सीधे-स्वभाव कहा |
“प्रभु ,आज शाम को सब बच्चों को घूमने ले जाओगे तो स्टैला को भी लेकर जाना ,वह बेचारी तो मेरे साथ ही लगी रहती है —”
‘काम है उसका –‘ प्रबोध ने मन में सोचा | ये बुज़ुर्ग लोग भी जिस पर फ़िदा हो जाते हैं उसको सिर-आँखों पर बैठा लेते हैं और जिनसे नाराज़ हो जाएं —उनसे इनकी नाराज़गी ताउम्र अपने मन में चिपकाकर रखते हैं —अब –क्या तुक है इसे साथ ले जाने की —‘मन में उसने सोचा किन्तु दादी के सामने “जी,ठीक है दादी जी —” आख़िर वह एक आदर्श पोता था |
स्टैला सब बच्चों में खूब घुल-मिल गई थी | बच्चे भी उसे ख़ूब प्यार करने लगे थे | वह अपने पिता के देश की यानि इंग्लैंड की खूब सारी बातें बच्चों को सुनाती रहती थी |
“स्टैला दीदी !आपको इंग्लैंड ज़्यादा पसंद है कि इंडिया ?” तनु यानि तान्या बड़ी चुहलबाज़ थी | उसे नई-नई बातें जानने का बहुत शौक था |
“दोनों जगह अपनी–अपनी जगह पर अच्छी हैं —प्यार तो इंडिया जैसा कहीं नहीं –” कुछ रुककर बोली ;
“और मेरठ जैसी तो कोई जगह ही नहीं —-मैं अपनी मम्मा के साथ मेरठ में रही ,पँजाब भी गई –वहाँ भी बहुत प्यार है —इंग्लैंड बहुत सुंदर है ,साफ़-सुथरा पर वहाँ कोई किसीको इतना नहीं पूछता —वहाँ की कल्चर ही अलग है न —!”स्टैला बच्चों में घुलमिलकर खूब बातें शेयर करती |
“तो फिर आप वहाँ गईं क्यों ?” मनु यानि मान्या भी कुछ बिना पूछे कैसे रहती |
“मेरे डैडी का घर है न वहाँ पर —” उसने मान्या को प्यार करते हुए कहा |
उस दिन स्टैला ने बच्चों को खूब सारी बातें सुनाईं ,ये भी कि वहाँ भी भूत-प्रेत में विश्वास किया जाता है —और भी न जाने कितनी-कितनी बातें.कितनी कहानियाँ —तब से वह सभी बच्चों की और भी प्यारी दीदी बन गई |
अगले दिन शाम के समय सारे बच्चे स्टैला के पीछे पड़ गए कि उसे उनके साथ घूमने चलना ही होगा |दादी जी तो पहले ही प्रबोध से उसे ले जाने के लिए कह चुकी थीं | इस समय सब बेग़म -पुल से होकर गुज़र रहे थे |
“एक अजीब सी फ़ीलिंग क्यों होती है यहाँ पर आकर —” प्रबोध धीरे से जैसे स्वयं से बोल पड़ा |
” घटनाओं का वातावरण पर प्रभाव पड़ता ही है | आप इस जगह के बारे में नहीं जानते —?” स्टैला ने अचानक आश्चर्य से पूछा |
“क्या–कुछ हुआ है क्या ?” प्रबोध और स्टैला की अब ख़ासी पटने लगी थी |
” उन दिनों मैं अपनी माँ के साथ यहीं थी –लगभग 5/6 साल पहले —”
“आप यहाँ पर —-?” प्रबोध को कुछ आश्चर्य हुआ |
“ओह ! आप नहीं जानते न ,मैं छोटी थी उन दिनों अपनी मम्मा-डैड के साथ यहाँ आती थी ,हम लोग एक साल में एक बार तो आ ही जाते थे –” स्टैला ने बताया |
“यहाँ ?क्यों?—” प्रबोध को अचानक ही वह लड़की एक कहानी लगने लगी |
“मेरे नाना जी का घर यहीं था न —? बेग़म बाग़ के पास —-वैसे मेरी मम्मा सरदार थीं ,पँजाब की थीं लेकिन नाना जी यहाँ आ गए थे | मेरठ का मेन-मार्किट है न ,वहीं नाना जी का एक रेस्टोरेंट था , बेग़म-पुल पर भी कपड़े की एक दुकान थी जो उन्होंने अपने छोटे भाई को दे दी थी —”
“अरे ! ये तो खूब बोलती है लड़की —इतनी बढ़िया हिंदी ! मैं सोच रहा था कैसे इतनी अच्छी हिंदी बोलती हो ?” प्रबोध खुलकर हँस दिया ,अच्छा लग रहा था उसे स्टैला का साथ और उसका बात करने का सलीका ! सारे बच्चे अपनी ही धुन में आगे निकल गए थे | इतना बड़ा बाज़ार जिसमें मन को आकर्षित करने की अनेकों दुकानें थीं | विंडो शॉपिंग बच्चों का खास शगल था | ऐसे ही घूमते-घामते कोई न कोई नई दुकान या खाने-पीने के ठिकाने ढूँढ लाते थे वो बच्चे !
“आपको नहीं पता न ,दादी जी को सब पता है —” वह धीमे से मुस्कुराई |
“हाँ,आप बेग़म पुल के बारे में बता रही थीं —”
” इस पुल के नीचे एक अंधी औरत रहती थी जो वहाँ उस कोने पर बैठकर भीख माँगती थी –” स्टैला ने उस बड़े से पुल की ओर इशारा करके एक जगह पर इशारा किया |
“यह कबकी बात है —?” प्रबोध ने स्टैला से पूछा | वह बचपन से मेरठ आ रहा था लेकिन उसे इस सबके बारे में कोई जानकारी नहीं थी |
“कोई पंद्रह/सोलह साल पहले —फिर मैं इंग्लैंड चली गई थी |नाना जी ,नानी जी के एक्सीडैंट की ख़बर सुनकर मम्मी के साथ आई थी | उनके रेस्टोरेंट में आग लगने से नाना जी ,मामा जी और एक वर्कर की डैथ हो गई थी —-“स्टैला की आँखें आँसुओं से भर आईं |
“नाना जी की हालत देखकर नानी जी को हार्ट अटैक आ गया और वो भी चली गईं |”
“ओह ! सॉरी,स्टैला —-” संवेदनशील प्रबोध के मन को एक धक्का सा लगा |
“इट्स ओ.के ,लाइफ़ मीन्स एनीथिंग कैन बी हैप्पंड —” स्टैला ने अपने आँसुओं को पोंछते हुए कहा |
वातावरण भारी होने लगा था ,कुछ सहज होने के अंदाज़ में प्रबोध ने पूछा ; “आप किसी औरत के बारे में कुछ कह रही थीं —-”
“ओ ! दैट ब्लाइंड पूअर वूमैन ! यह भी उतनी ही तकलीफ़ की बात है, उस औरत के साथ कोई भी आकर रेप कर जाता था जबकि इस पुल के नीचे कई लोगों ने अपनी झौंपड़ी बना रखी थीं लेकिन पता ही नहीं चलता था या लोग पता ही नहीं लगने देते थे या फिर वो लोग ही —-जवान माँस की गंध संतों को भी पागल कर देती है –लेकिन जब उस औरत के लगातार दो साल तक बच्चे हुए तब —-” बोलते-बोलते वह रुक गई ,एक लंबी आह भरी फिर बोली ;
“जब भी उसके बच्चा होता पूरे बाज़ार में शोर मच जाता ‘धूल का फूल हो गया ‘! उन बच्चों को पालने के झंझट से छूटने के लिए लोग उन्हें किसी अनाथ आश्रम के बाहर छोड़ आते | मैंने सुना ,वह चिल्लाती थी ‘मेरा बच्चा’ –‘मेरा बच्चा दो —‘! स्टैला की आँखें फिर से भीग गईं |
“उसकी समस्या से जूझते हुए नाले के नीचे रहने वाले लोगों ने किसीसे मिलकर सरकारी अस्पताल में उसका यूट्रस निकलवा दिया—–काश ! वह बंजर होती ! वैसे भी पूअर वुमैन देख तो पाती नहीं थी और लोग उसके शरीर को नोचने से छोड़ने वाले थे नहीं — ”
“ओह ! —-और ये धूल का फूल –क्या है ?”प्रबोध ने अचकचाकर पूछा ,उसका दिमाग़ सुन्न पड़ता जा रहा था |
“मेरी मम्मा ने बताया था कोई एक हिंदी पिक्चर आई थी ‘धूल का फूल ‘ जिसमें हीरोइन के अनमैरिड लाइफ़ में बेबी हुआ था,उसने उस बच्चे को कहीं फेंक या छिपा दिया था | तबसे जब कोई भी ऐसा केस होता लोग ‘धूल का फूल’ कहकर मज़ाक करने लगते थे —दादी जी को यह बात मालूम है —“प्रबोध सन्न रह गया ,कैसे देह को इस प्रकार कुचलना एक आम बात थी !
“मुझे नहीं मालूम ,वैसे यहाँ लोगों के पास इन सब बातों के लिए बहुत टाइम होता है —“वह अनमना हो उठा था |
” एक्चुअली ,ओनली कल्चर इज़ डिफ्रेंट —जहाँ मौका मिल जाए शरीफ़ लोगों की शराफ़त बाहर आ जाती है | सब जगह सब तरह के लोग होते हैं —आपको क्या लगता है विदेशों में नहीं होते ? इंसान अच्छाई-बुराई से मिलकर ही तो बना है | चाहे कहीं का भी क्यों न हो | यहाँ जो प्यार , लगाव व परवाह है ,वह वहाँ और तरह से है लेकिन इंसान सेनज़िटिव तो होता ही है बेशक उसके दिखाने का तरीका अलग होता है | ” स्टैला काफ़ी समझदार व गंभीर लड़की थी | कैसी दार्शनिक बातें करती थी |
‘समय इंसान के जीवन में कैसे-कैसे परिवर्तन ला देता है’ प्रबोध ने सोचा और एक लंबी साँस खींची |
“जीवन को पकड़कर रखेंगे तो डोर छूट जाएगी ,ज़ोर से खींचेंगे तो टूट जाएगी ,जीवन को समय के साथ बहने देना होगा —“स्टैला ने दार्शनिक गंभीरता से कहा !
” कितनी पुरानी बातें याद हैं आपको —-” प्रबोध ने यूँ ही कह दिया |
“सर,आदमी कहाँ भूलता है कुछ ,वह छिपाने की कोशिश करता है –लेकिन छिपा कहाँ पाता है ? वैसे हर समय मन दुखने वाली बातों को याद करने से भी कोई फ़ायदा नहीं है –है –न ?”
“ये मुझे सर कहना छोड़ो ,दोस्ती ही ठीक है —-” प्रबोध ने कहा लेकिन स्टैला ने जैसे कुछ सुना ही नहीं ,वह बोलती रही ;
” सुना है ,उस औरत को लोगों ने अपनी प्रॉपर्टी समझ लिया था,लोग उसे छेड़ते थे ‘बेग़म पुल की बेग़म’ जो चीथड़ों में घूमती थी ,जो कुछ उसे मिल जाता खा लेती फिर पड़ी रहती पुल के नीचे | वह भी शुरू-शुरू में चीख़ी चिल्लाई ,बाद में चुपचाप अपने ऊपर ज़ुल्म सहती रही | एक दिन इसी बेगम पुल पर उसे कोई गाड़ी टक्कर मारकर चली गई |” स्टैला बेहद दुखी हो गई थी |
कमाल है ! उसे इन सब बातों के बारे में कोई सूचना नहीं थी जबकि यह लड़की सारी बातें ऐसे सुना रही थी मानो उसके सामने ही सब घटित हुआ हो |
” लेकिन आपको ये सब बातें कैसे —?”
” मेरठ सिटी अस्पताल में मेरे दोस्त डॉक्टर हैं ,वे सब बातें मुझे बताते रहे हैं —”
मन में जैसे एक तनाव सा पसर गया था |
बच्चे घूम-घामकर वापिस आ गए थे ,इन दोनों को एक कॉफ़ी-कॉर्नर पर खड़े देखकर चिल्लाए ;
“क्या दादा ! आज हम यूँ ही चले जाएंगे ?”जब प्रबोध को मस्का लगाना होता ,बच्चे उसे इसी संबोधन से पुकारते |
“नहीं,ये लो —आइसक्रीम खानी है न ? “प्रबोध ने पूछा |
” हाँ–काम चला लेंगे इसीसे —” चेहरे पर बेचारगी के से भाव लाकर तनु-मनु एक साथ बोल पड़ीं और प्रबोध के हाथ से रूपये लगभग खींचकर वे सारे बच्चों के साथ आइसक्रीम पार्लर की ओर भागने लगीं | फिर उनमें से किसी ने पीछे मुड़कर पूछा ;
“आप लोग –क्या लेंगे ?”
“नहीं ,मैं कुछ नहीं ,स्टैला आप ?”
“नो,थैंक्स —-”
दोनों का मन भारी था ,कैसा नृशंस है समाज | देह की ज़रूरत जो है तो बहुत महत्वपूर्ण लेकिन मनुष्य को कैसा पशु बना देती है!
.……. क्रमशः……….