तीसरा भाग
दिल्ली और मेरठ के बीच गाज़ियाबाद शहर स्थित है जहाँ गौड़ परिवार का निवास था |रामनाथ गौड़ के पिता मेरठ के पास बागपत से गाज़ियाबाद में आ बसे थे |उस समय यहाँ की बस्ती काफ़ी कम थी ,धीरे-धीरे काफ़ी लोग इस शहर में आकर बसने लगे | इसका मुख्य कारण था दिल्ली का इस शहर से सटा होना| यमुना पार की और दिल्ली में पहुँच गए | काफ़ी लोग दिल्ली में व्यापार करते और शाम होने पर गाज़ियाबाद अपने घरों में पहुँच जाते | इसी प्रकार नौकरी करने वाले भी दिल्ली से अधिक गाज़ियाबाद में बसना पसंद करते | दिल्ली में यहाँ की तुलना में मँहगाई और भीड़ दोनों ही अधिक !
1740 में ग़ाज़ी-उद-दीन द्वारा बसाए जाने के कारण इस शहर को ग़ाज़ीउद्दीननगर नाम दिया गया था | उसने उस समय यहाँ एक विशाल ढांचे का निर्माण करवाया था जिसमें 120 कमरे और मेहराबें थीं | अब तो ख़ैर उस निर्माण का एक छोटा सा हिस्सा ही शेष है किन्तु आस-पास के गाँवों ,कस्बों के लोगों ने यहाँ पर अपनी रिहायशी कॉलोनी बनवानी शुरू कर दीं थीं | दिल्ली के पास होने के कारण दिल्ली में काम करने वाले बहुत से लोगों ने दिल्ली में मकान न बनाकर गाज़ियाबाद में अपने निवास बनवाए |दिल्ली के मुकाबले उन दिनों यहाँ ज़मीन काफ़ी सस्ती मिल जाती थीं | आबादी भी बहुत कम थी लेकिन धीरे-धीरे यह शहर भी दिल्ली की पटरी पर चलने लगा जो स्वाभाविक भी था | समय के अनुसार प्रत्येक चीज़ में परिवर्तन होने स्वाभाविक होते हैं |
ग़ाज़ियाबाद शहर उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत का एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र में परिवर्तित होता जा रहा था , इसकी आबादी की संख्या भी बढ़ती जा रही थी | स्वतंत्रता से पहले ग़ाज़ियाबाद ज़िला, मेरठ ज़िले का भाग था पर स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् राजनैतिक कारणों से इसे एक पृथक ज़िला बनाया गया।
गाज़ियाबाद यमुना नदी से 1.5 किलोमीटर की दूरी पर है |दिल्ली से उत्तर-प्रदेश जाने के लिए यहाँ से होकर गुज़ारना पड़ता है इसलिए इसे उत्तर प्रदेश का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है | बस,गाज़ियाबाद में प्रवेश करते ही गौड़ साहब का एक हज़ार गज में बना हुआ पाँच/छह कमरों का मकान था जो बनवाया तो था रामनाथ गौड़ के पिता जी ने लेकिन समयानुसार उसमें रामनाथ जी अपनी आवश्यकताके अनुसार बदलाव करते रहे |आज के ज़माने में इस प्रकार खुली जगह में मकान होना एक सपना ही बन गई है |
ऐतिहासिक, पौराणिक, सांस्कृतिक और पुरातात्विक दृष्टि से ग़ाज़ियाबाद एक समृद्ध शहर है। यह ज़िले में हुए शोध कार्य और खुदाई से साबित हुआ है। हिन्डन नदी के किनारे कसेरी की खुदाई में जो, मोहन नगर से 2 कि.मी उत्तर में स्थित है, यह साबित हुआ है कि यहाँ 2500 ई.पू. में सभ्यता विकसित हो गई थी।
गाज़ियाबाद में अब तक कई कॉलेज खुल चुके थे | वास्तव में यह शहर पहले एक छोटा सा शहर ही था किन्तु धीरे-धीरे इसमें निजी इंजीनियरिंग कॉलेज और प्रबंधन संस्थान खुलने लगे | साथ ही कई अलग विधाओं के मुख्य विद्यालय ‘स्कूल’और महाविद्यालय ‘कॉलेज’ खुलने के कारण दिल्ली व अन्य शहरों के छात्र-छात्राएँ यहाँ प्रवेश लेने लगे थे | इसीलिए यहाँ पर काफ़ी गर्ल्स व ब्वायज़ हॉस्टल्स बन गए थे |
गौड़ परिवार कई पीढ़ियों से इस शहर में अपनी कुलीन पहचान बना चुका था और अब प्रबोध के लिए रिश्तों की लाईन लग रही थी | ये कौनसी नई बात है —? भारत में जहाँ बच्चे विवाह योग्य होने लगते हैं ,परिवारों में ताका-झाँकी शुरू हो जाती है | कभी किसी मित्र के माध्यम से तो कभी रिश्तेदारों या पहचान वालों के माध्यम से ! तो अब इसी रस्म के चलते डॉ.प्रबोध गौड़ के लिए रिश्तों की कतार लगने लगी,पूछा-पाछी होने लगी |
वैसे प्रबोध व उसके माता-पिता इतनी जल्दी वैवाहिक बंधन के पक्ष में नहीं थे | कुछ दिन उसे अपने मित्रों के साथ भी जीवन का अनुभव लेना चाहिए,पापा रामनाथ गौड़ भी ऐसा ही मानते थे |समय में बदलाव आ गया है ,समय के साथ चलने में ही समझदारी व आनंद है ,बस–जो करना है अनुशासन से करो | थोड़ा सैटल हो जाए बच्चा ! कुछ कमा ले ,कुछ बचा ले ,अभी तक घर की कोई भी ज़िम्मेदारी उसके कँधों पर पड़ी नहीं थी |इस ज़िम्मेदारी का अहसास भी बहुत ज़रूरी होता है ,वरना अचानक वैवाहिक जीवन की ज़िम्मेदारी बच्चे को ऐसी लगने लगती है जैसे किसी बैल के कंधों से बैलगाड़ी खींचने का हल बाँध दिया गया हो !
पापा के विचार-विमर्श से प्रबोध अपने कॉलेज के मित्रों के साथ खूब मस्ती से दिन गुज़ारने लगा था | पापा ने उसे निश्चिन्त जो कर दिया था |
छुट्टी के दिन प्रबोध भैया पूरी तरह प्रभु दादा बन जाते जो छोटों को अच्छी तरह पढ़ने के बाद शाम को बाहर घुमाने ,चाट -पकौड़ी ,आइसक्रीम खिलाने ,किसी रेस्टोरेंट या फ़िल्म दिखाने ले जाते | पढ़े तो मौजां ही मौजां —-न पढ़े तो —!!
बच्चों को गंभीरता से पढ़ने में ही समझदारी लगती और उनकी ट्रीट पक्की होती | कभी-कभी तो उसके आग्रह पर पूरा परिवार साथ जाता |
रामनाथ जी को भी प्रबोध बेटे के साथ जाने में आनंद आने लगा था | जब वह छोटा था तब तो वे घर से अधिक निकल नहीं पाए ,उनके माता-पिता कभी उनके पास आ जाते या उन्हें कभी मेरठ अपने संयुक्त परिवार में जाना पड़ता | थोड़ा बच्चों की शिक्षा के प्रति भी उनकी चिंता बनी रहती लेकिन प्रबोध के योग्य निकलने से उन्हें बहुत सहारा मिला | उन्हें विश्वास होने लगा था कि प्रबोध अपने छोटे भाई-बहनों को भी एक अनुशासित व उच्च शिक्षण का जीवन जीने की प्रेरणा बनेगा |और न जाने कैसे प्रबोध के छोटे तीनों भाई-बहन उसका कहना बिना किसी हील-हुज्जत के मानने भी लगे थे | प्रबोध का अपने भाई-बहनों के साथ मित्रवत व्यवहार भी होता और खेल-खेल में वह उन्हें ऎसी बातें सिखाता कि वे बड़ी प्रसन्नता व सहजता से उसकी बात समझ जाते | परिवार में एक सहज,सुंदर परिवर्तन दिखाई देने लगा था | बहनों को प्यार-लाड़ तो मिलता साथ ही प्रबोध भैया के स्नेहपूर्ण अनुशासन में वे माँ को बिना कहे ही घर के छोटे-मोटे काम में हाथ बँटाने लगीं थीं | प्रबोध खुद भी जहाँ तक होता माँ का ध्यान रखने की चेष्टा करता |
दिल्ली महाविद्यालय के कॉलेज में नियुक्ति हो जाने के बाद प्रबोध ने पापा से पूछकर अपने कॉलेज के पीयून की पत्नी कम्मो को माँ की सहायता के लिए घर पर रख दिया था | पीयून दीना भी गाज़ियाबाद में ही रहता था,उसके पिता-माता का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था | उसे काम की ज़रूरत थी | प्रबोध ने कुछ दिन पूर्व ही एक कार ख़रीद ली थी और कॉलेज जाते समय वह दीना को भी अपने साथ ले जाता था | दीना खुशी-ख़ुशी उसके घर के चार काम कर देता |
अब शांति जी को भी दो घड़ी सुस्ताने का समय मिल जाता |कम्मो को पढ़ने में रूचि थी ,वह शांति जी से थोड़ा-बहुत पढ़ना सीखने लगी थी | यानि सबका काम ठीक-ठाक चलने लगा था |
.……. क्रमशः……….