दूसरा भाग
वह एक ऐसा ही दिन था, जैसा हर रोज़ उगता है। उसकी खिड़की के बाहर से झाँकता, उसे आवाज़ देता सूरज, न उठने पर उसे सौ-सौ लानतें-मलामतें भेज रहा था जैसे। प्रबोध एक अनुशासित परिवार का, एक अनुशासित पिता का पुत्र। बालपन से ही समय पर पिता की एक आवाज़ पर उठ बैठना, घर के सभी नियमों-कानूनों का पालन करना। लेकिन पता नहीं क्यों प्रबोध को कुछ अजीब सा लग रहा था वो दिन। कुछ मन भारी व शरीर थका हुआ सा लेकिन कारण कुछ पता नहीं चल रहा था। न चाहते हुए भी वह उठ गया। छोटे भाई-बहनों के सामने एक प्रेरणा बनकर स्थापित होना, उसके मन की इच्छा थी। सो, कितना भी भीतर से बीहड़ हो, बाहर अनायास ही एक गंभीर मुखौटा उसके चेहरे पर चिपक जाता।
रात-रात भर पढ़ता है प्रबोध, छोटे से लैम्प के सहारे, यह कोई न जान पाता। शिक्षक पिता की शिक्षा थी, जल्दी सोना, जल्दी जागना। ब्रह्ममुहूर्त की बात ही कुछ और होती है। मस्तिष्क तरोताज़ा बना रहता है। पापा ख़ुद तो नौ-दस के बीच अपने कमरे की बत्ती बंद कर देते और बच्चों को भी आवाज़ देकर सोने का आदेश पारित कर देते। पर- बच्चे। सुनते कहाँ थे, उनके कमरे की बत्ती बंद हो तो जाती लेकिन खुसर-फुसर से आहटें कभी कभी अनजाने में ही शोर में बदलने लगतीं तब पिता को उठकर बच्चों के कान ऐंठने आना ही पड़ता।
पता चलता झगड़ा इस बात पर हो रहा था कि प्रबोध से छोटे सुमोद ने बहनों के पलँग पर पैर क्यों अड़ा दिए? इस छोटी सी बात पर कमरा युद्धस्थल में बदलने लगता। जितना छोटा भैया गुस्सा होता उतना ही बहनों को उसे खिजाने में मज़ा आता। आख़िर सुम्मु भैया ने उनके पलँग पर पैर अड़ाए ही क्यों? शुरुआत तो वो ही करते हैं। सबसे छोटी उठा-उठाकर तकिए फेंकना शुरू करती जिसका हश्र होता पूरे कमरे में तांडव।
पापा की आहट सुनते ही वातावरण में चुप्पी पसर जाती। पापा, पापा थे दरवाज़ा बंद करके सोना उनकी डिक्शनरी में नहीं था। अब चाहे गर्मी हो या शीत। भिड़े हुए दरवाज़े को ठेलने में उन्हें कहाँ दिक्क्त होती? बिना कमरे में झाँके वे कमरे के बाहर से हिलते तक नहीं और कान तो सुमोद के ही खिंचने होते। वही प्रबोध से छोटा था और शैतान भी। दोनों बहनें कबूतरी बनीं अपनी रजाइयों में मुँह लपेटे पड़ी रहतीं। पापा जानते, समझते थे लेकिन बेटियों को कुछ कह न पाते जबकि बला की शैतान थीं दोनों सुमोद से भी ज़्यादा। वह बहनों को छेड़ता और दोनों मिलकर उस पर हावी हो जातीं।
“देखा नहीं अपने भैया को, कब से कमरे की बत्ती बंद है। अब सुबह उठने में आफ़त आएगी तुम लोगों को। ये नहीं कि सुबह ब्रह्ममुहूर्त में सही ढंग से फ़्रेश होकर प्राणायाम करो और फटाफट पढ़ने बैठो। दस बजे का स्कूल है तो साढ़े नौ तक का टाइम कम होता है? क्या करते हो? शांति जी अपने बच्चों को सुधारिए, नहीं तो मुश्किल हो जाएगी “कहते हुए बड़बड़ करते वे अपने कमरे में जा दो-चार मिनट पत्नी के किसी रिएक्शन की बाट देखते और उनकी चुप्पी देखकर फट्ट से पलँग पर पड़कर खर्राटे भरने लगते जहाँ शांति जी दिन भर की थकी-टूटी, आँखें मीचें, बिना हिले-डुले पड़ी रहतीं। गलती से भी बोल जातीं तो। न, यह पाठ वह अपने विवाह के शुरू में ही पढ़ चुकी थीं, ‘चुप रहना, सुखी रहना’। उनकी चुप्पी उनके पति को पाँच मिनट में खर्राटे लेने को बाध्य कर देती, तब वो जाकर लंबी, ठंडी साँस लेतीं और फिर न जाने क्या सोचते-सोचते वे नींद की आग़ोश में खो जातीं, इस विचार के साथ कि उन्हें ब्रह्ममुहूर्त में उठकर फिर से गृहस्थी की गाड़ी का बैल बनना है।
रोज़ाना एक ही लैक्चर सुनकर बच्चों को शब्द-शब्द रट गया था। इतना तो उन्हें स्कूल का भी कोई पाठ नहीं रटा था। उन्हें अपने प्रबोध भैया से भी बड़ी मिचमिची लगती, इतने नंबर लाकर हमारी मुसीबत करवा देते हैं। पापा पढ़ाई में किसी को भी न छोड़ते, बेटियों को भी नहीं। सुबह -सवेरे ठंडे पानी से स्नान करना, करवाना भी उनके अनुशासन की सूची में था।
पिता कुछ अधिक ही अनुशासन-प्रिय थे बल्कि बच्चों के लिए तो कठोर थे, न जाने क्या चाहते थे? प्रबोध के अलावा तीनों छोटे बच्चों ने उनका नाम ‘हिटलर’ रख दिया था। बहुत दिनों तक तो माँ शांति देवी को भी पता नहीं चला था। एक दिन बच्चों की गुपर-चुपर सुनकर उन्होंने अपने कान उनकी बातों की ओर लगा दिए। तब पता चला कि ‘हिटलर’तो उनके पति ही हैं और कोई नहीं! मुख नीचे करके वे मुस्कुरा भी लीं लेकिन बच्चों को डपट भी दिया
“ऐसा कहते हैं पापा को? गंदी बात।”
“आप ही बताओ मम्मी, प्रबोध भैया इतने अच्छे नंबर लाते हैं तब भी उन्हें शिक़ायत रहती है। अब हम अच्छे नंबर लाएं या ख़राब, पापा को ख़ुश तो होना है नहीं फिर”
“सुम्मु। यह ग़लत है, पापा एक अनुशासन प्रिय व्यक्ति हैं। ज़िंदगी में जहाँ शरारतें ज़रूरी हैं, वहीं अनुशासन भी। सभी माता-पिता अपने बच्चों को अच्छा बनते हुए देखना चाहते हैं, पापा भी यही चाहते हैं। वो बेशक मेरी तारीफ़ न करें लेकिन मन में खुश तो होते हैं, मैं जानता हूँ “प्रबोध छोटे भाई-बहनों को समझाने की कोशिश करता।
“ठीक कह रहे हो प्रबोध, तुम बड़े हो इसीलिए तुम मुझसे भी कभी-कभी डाँट खा लेते हो जब सुबह उठने में आनाकानी करते हो।” अब रात-रात भर पढ़ने के कारण प्रबोध की नींद ही पूरी न हो पाए तो! सुबह एक बार तो पापा के जाने से पहले उठकर सबको कसरत, प्राणायाम के लिए छत पर जाना ही होता। फिर तीनों छोटे सूरज के तेज़ चमकने तक वहीं खराटे भरते जबकि प्रबोध अपने कमरे में आकर लेट जाता। एक ओर सूरज दादा उसे काँच की खिड़कियों से आवाज़ लगाते तो दूसरी ओर माँ।
प्रभु यानि प्रबोध का बालपन से प्रथम आना, ठीक है, अच्छी बात है। पिता सोचते, सभी बच्चों को ऐसा होना ही चाहिए। वो नहीं थे क्या? पूरे संपन्न परिवार के होने के बावजूद भी उनके पास तो इतनी सुविधाएँ भी नहीं थीं जो आज इन बच्चों की झोलियों में आ पड़ी हैं और प्रबोध का सदा प्रथम आना, उन पर अहसान था क्या? उनके लिए प्रथम आने के साथ ब्रह्ममुहूर्त की बेला में जागना बेहद ज़रूरी था। रात में जल्दी सोना, जल्दी उठना, जीवन में कुछ अनुशासन उनके अनुसार ज़रूरी थे जो उन्हें लगता उनके बच्चे ठीक से पाल ही नहीं पा रहे थे। रामनाथ गौड़ सोचते उनके बच्चों को आजकल के हीरोपन की हवा से दूर रख सकें तो बेहतर।
श्री रामनाथ गौड़, इंटर कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक थे। उनको सवेरे सात बजे अपने कॉलेज पहुँचना होता जिसके लिए उन्हें घर से छह बजे तो निकलना ही होता। अनुशासन का एक भूत सा सवार था गौड़ साहब पर। कॉलेज में भी बेशक निर्धारित समय से पहले पहुँच जाओ लेकिन मिनट भर देर होना उन्हें पसंद नहीं था। घड़ी मिला लो उनके कॉलेज पहुंचने के समय से। बेटों के लिए अधिक अनुशासन की पाबंदी और बेटियों के लिए ढील। गौड़ परिवार में तीसरी पीढ़ी में दो बेटियाँ दिखाई दी थीं सो गौड़ साहब के लिए वे दोनों माँ शारदा व माँ लक्ष्मी का अवतार थीं। बेटों और पत्नी को लगता, केवल बेटों और बीबी पर ही अनुशासन का अंकुश। बेटियों पर क्यों नहीं जिन्हें दूसरे घर जाना है। डरी सी भी रहतीं बेचारी, पति के सामने उनकी कभी कहाँ चली है? उनका काम था, सबको समय पर खाना-पीना देना, सारी आवश्यकताएँ पूरी करना और अपने पति के नियमों में बँधी ज़िंदगी जीना।
चिंता में डूबी रहतीं शांति गौड़ और अपने नाम के अनुसार गृह-कलह से बचने के लिए शांति रखने का भरसक प्रयत्न करतीं। फिर भी उनके सिर पर कभी न कभी फटा ढोल बजने ही लगता। बेटियों को सिर पर चढ़ाएँ पिता जी और उन्हें सुधारने, अनुशासन में रखने का काम करे माँ। भई। ये क्या बात हुई बिगाड़ो तुम और बिगाड़ने का सेहरा बाँधो माँ के सिर पर।
इन्हीं दुरुहताओं के बीच कब प्रबोध मनोविज्ञान में पी.एचडी करके डॉ.प्रबोध बन गया, उसने पूरे परिवार के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत कर दिया था। घर वालों को पता भी नहीं चला था कि वह रात में अपने कमरे के छोटे से टेबल-लैंप की रोशनी में पढ़ता है जिससे पिता का ध्यान उसके कमरे की रोशनी पर न जाए। वैसे भी उसका कमरा काफ़ी दूर था, पूरा सहन पार करके। जबसे कॉलेज में आया था, उसे अलग कमरा मिल गया था, उससे छोटा भाई सात साल छोटा था और उससे छोटी दो बहनें एक-एक साल के अंतर में हुईं थीं। अब सात साल बड़े होना कोई मायने रखता है भई। पिता ने उसको पढ़ने के लिए एक अलग कमरा तैयार करवाकर दे दिया लेकिन बाक़ी शर्तें और सबके जैसी ही थीं। इसीलिए प्रबोध को अपने कमरे की बत्ती जल्दी बंद करके छोटे से टेबल-लैंप का सहारा लेना पड़ता। वह परिवार के लिए एक आदर्श पुत्र के रूप में स्थापित होना चाहता था।
सुबह पिता की एक पुकार से उठकर छत पर जाना लाज़मी था। जब तक पिता की उपस्थिति घर में रहती तब तक ऊँघते हुए प्राणायाम, कसरत करते सारे बच्चे। जैसे ही उनके स्कूटर की आवाज़ सुनी कि अपनी-अपनी दरियों पर लंबलेट हो जाते। शांति जी की आवाज़ों से वे उठने के लिए बाध्य होते और उन्हें तैयार होने नीचे जाना ही पड़ता। और फिर से छेड़ा-छाड़ी, धींगा मस्ती। अब प्रबोध की नाराज़ होने की बारी आती।
“ठीक है, आने दीजिए पापा को, इस बार तो मैं बताकर ही रहूंगा, आप भी तो ऊपर सो जाते हैं, फिर नीचे अपने कमरे में आकर हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं, “सुमोद बिफर जाता।
“सुमोद। बड़े भैया हैं तुम्हारे, उनसे कुछ अच्छा भी सीख लो”, शांति जी को बीच में बोलना पड़ता। वैसे वे कोशिश यही करती थीं कि वे इस पचड़े से बाहर ही रहें। बच्चों के पिता ही काफ़ी हैं, उन पर कंट्रोल करने के लिए।
“तो भैया को अलग कमरा और मुझे इन दोनों छिपकलियों के साथ। क्यों?” सुमोद बिफरता।
“बेटा। तुम भैया जितने बड़े तो हो जाओ, तुम्हें भी बनवा देंगे कमरा”, शांति देवी मुस्कुराते हुए छोटे बेटे को मनाने की कोशिश करतीं।
“हाँ जी मम्मी, हमीं फ़ालतू हैं इस घर में। हमारे लिए कुछ नहीं, बस भाइयों के लिए कमरे।” दोनों बेटियाँ माँ के सामने भिन -भिन करने लगतीं।
अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेज्युएट शांति जी घर की जी-हुज़ूरी में ही लगी रहतीं। वे बेटियों को समझातीं कि उनके पिता भाइयों से भी अधिक प्यार करते हैं उनसे, बड़ी तो हो जाओ, कमरे भी मिल जाएंगे। बहुत जगह ख़ाली पड़ी है।
ज़िले भर में टॉप करते ही कॉलेज में प्रबोध की शानदार नियुक्ति हो गई थी और साथ ही पी.एचडी के लिए रजिस्ट्रेशन भी स्वीकृत हो गया था। नौकरी करने के साथ ही प्रबोध ने अपना शोध-कार्य जिस खूबी से पूरा करके पी.एचडी की उपाधि प्राप्त की कि गौड़ परिवार के सदस्यों के मुख गर्व से चमकने लगे थे। विशेषकर वयोवृद्ध दादा जी, दादी, पिता, माँ और मेरठ में पैतृक घर में बसे संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों का।
अब तो छोटों की और भी आ बनी, प्रबोध भैया ने उदाहरण जो प्रस्तुत कर दिया था। पी.एचडी के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के एक नामी कॉलेज से उसे ऑफ़र मिली, अब उसका मोल और भी बढ़ गया।
छोटी दोनों बहनें प्रबोध से 9/10 साल छोटी थीं, सिरचढ़ी खूब थीं। मित्रों के पार्टी के लिए शोर मचाने पर एक दिन रविवार को प्रबोध ने बाहर जाने का प्लान बना ही लिया। सुमोद ने तो एक-दो बार ही कहा, “भैया, कमाल है। अकेले-अकेले? आप हमें साथ नहीं ले जा सकते? ”
“सुम्मु, सब कुलीग्स हैं न। मैं नैक्स्ट संडे को सबको लेकर चलूँगा। मम्मी-पापा भी चलेंगे न।” एक-दो बार झीं-झा करके वह चुप हो गया लेकिन जैसे ही वह तैयार होकर माँ से कहने आया कि वह निकल रहा है, दोनों छुटकियों ने उसके बालों का बैंड बजा दिया। बिलक्रीम से निहायत सलीके से सँवारे गए बाल छितरकर इधर-उधर हो गए। बेचारे को अपना पीछा छुड़ाकर भागना मुश्किल हो गया।
“आप हमारे बाल बिगाड़ते हैं, खींचते हैं न! अब आप ऐसे ही जाइए। एक तो हमें ले नहीं जा रहे हैं।” बड़े भाईयों की तरह प्रबोध भी अपनी छोटी बहनों को मौका मिलते ही खिजाता रहता। बहनों को तो बड़े भैया को छेड़ने का कभी-कभी ही मौका मिल पाता। उस दिन तो कसकर पकड़ लिया दोनों बहनों ने।
“अरे! चलेंगे न! नेक्स्ट संडे! छोड़ो तो।” बेचारे बड़े भैया डॉ. प्रबोध गौड़ बुरी तरह बहनों की जकड़ में फँस गए थे।
“क्या कर रही हो तनु, मनु? भैया को देर हो जाएगी, हटाओ अपने हाथ उसके सिर से” माँ ने झिड़का। लेकिन वो पीछे ही तो पड़ी रहीं, माँ ने आकर दोनों को गुस्सा होकर हटाया।
उस दिन वैसे ही वे बिफरी बैठी थीं, उनका मौका लगा और प्रबोध के बालों की हालत बुरी हो गई। बड़ी मुश्किल से अपना पीछा छुड़ाकर वह गेट के बाहर भागा।
.……. क्रमशः……….