बारिश
पिछले दिनों, जब हो रही थी तेज बारिश
लगा जैसे कोरोना के समय पिटी थी थाली
कुछ वैसे ही बूँदों की चोट से पिटी जा रही थी सड़क
या फिर भगवान चाह रहे थे पीटना मनुष्यों को
पर घरों में दुबक कर मनुष्य
भगवान की बूँदों को धराशायी होते देखते हुए
कह रहा था, देखो न, है कितना नैसर्गिक
लेकिन इन नैसर्गिक बूँदों के तेज से
हो रहा हलकान फुटपाथ पर लेटा हुआ भिखारी
और छिप कर बैठा हुआ, पूंछ से शरीर झाड़ता कुत्ता
तेज बूँदों की सामूहिकता
बहते नाले और सड़क के किनारों से बहते तेज धार से
समझी जा सकती थी
समझना चाहिए कि गरजते बादल
फिर तेज बूँदें और फिर बहती जल धारा
सब नैसर्गिक होने की तमीज के साथ
बताना चाह रहे कि, है न ऊपर वाला ही श्रेष्ठ!
बारिश इतनी हो कि बस भीग जाये देह
पर भीग कर भी अंदर तक न भीग पाये मन
तो कह सकते हैं बूँदें बरसी
बूँदों ने भिगोया तन, और बहते हुए बन गई नदी
बारिश की गति, सदगति
क्रमशः सोंधेपन, भिगोने,
सींचने के बाद बहने में है
बारिश की अंतिम परिणति नदी ही है
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प्रेम कविता
ढलकायी थी
कुछ नमकीन बूँदें पलकों से उसने
साथ ही, दर्द समेटे
मौन रहकर
पलकों से कह उठी
“खुश रहना”
नीचे जाती सीढ़ियों के
ऊपर के दरवाजे से
ताकती अँखियों ने
कहा था – ‘गुड बाय’
फिर बिन दिखाए आँसुओं को
टैरेस से हलके हाथ हिलाए
अंतिम विदाई का सहेजा हुआ
वो खास मंजर
रिवाइंड-फॉरवर्ड के ऑप्शन का प्रयोग कर
दिख ही जाता है
पल प्रति पल
स्मृतियों को ‘सेव एज’ कर के
रखा हुआ है एक पेन ड्राइव
अब तक उन
खुशियों के सिल्वर फॉयल में लिपटी
वक़्त के एक टुकड़े को
दर्द सिक्त स्याही से
लिख रहा हूँ
प्रेम कहानी,
ओह
प्रेम कहानी नहीं प्रेम कविता!
काश इनकी हैप्पी एंडिंग संभव होती!