न्यूज़पेपर पढ़ रहा था, एक खबर देखकर चौंका। खबर एक संस्था की थी, जिसने अभी-अभी एक ब्लड डोनेशन कैंप लगाया था। उसमें मुझे भी ब्लड डोनेट करने का मौका मिला। खबर में ऊपर एक छायाचित्र छपा हुआ था, जिसमें एक मेरे जैसा ही रक्तदाता पलंग पर लेटा हुआ था और उसके आसपास संस्था के 20 लोग झूमते हुए । उन्होंने फोटो खिंचवाते समय इस बात का ध्यान रखा था कि संस्था के नाम का बैनर न छुप जाए, इसलिए सामने वाले कुछ सदस्य कमर से झुककर इस फोटो को अंजाम दे रहे थे। सबसे चौंकाने वाली बात ब्लड डोनेशन के आंकड़े को लेकर थी, जिसमें जो आंकड़ा बताया गया था, वह वास्तविकता से चार गुना था। देखकर माथा ठनका – आखिर ये आंकड़े ही तो हैं, जिन्हें ऊपर तक पहुंचाकर वाहवाही लूटने के साथ कुछ फंड पर भी नजरें हैं जो लूटना है।
आजकल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण अगर कोई चीज है, तो वह है आंकड़े। हमारे गांव में एक कहावत है, “भैंस को कान्कड़े और सरकार को बस आंकड़े खिलाते जाइए, और भैंस और सरकार दोनों को दुहते जाइए।” ऐसा नहीं है कि ये कोई नया प्रचलन है; इसका जन्म तो प्राचीन काल में ही हो गया होगा। ऊपर बैठे चित्रगुप्त जी, जो पृथ्वीलोक के प्रत्येक प्राणी के जीवनभर के क्रिया-कलापों का हिसाब आंकड़ों के रूप में धर्मराज के पास परोसते हैं और धर्मराज उसके मुताबिक उसे नर्क और स्वर्ग आवंटित करते हैं। बस, वहीं से यह प्रथा पृथ्वीलोक में भी आ गई, जिसे पहले सिर्फ सरकारी दफ्तरों, कार्यालयों, और स्कूलों ने अपनाया था। धीरे-धीरे रेंगते हुए यह सभी गैर-सरकारी प्रतिष्ठानों और राजनीतिक महकमों की संजीवनी घुट्टी बन गई। इस संजीवनी घुट्टी को घोंटने के चक्कर में न जाने कितने कर्मचारी दिन-रात पसीना बहाते रहते हैं। इन आंकड़ों को सजाने की विभिन्न तकनीकों का इजाद हुआ है – रेखा चित्र, ग्राफ, बार डायग्राम, पिक्सल डायग्राम, पाई चार्ट, स्लाइड, पीपीटी और न जाने क्या-क्या लुभावने रूपों में अफसरों के सामने परोसा जाता है, ताकि अफसर की लार उस पर टपकने लगे और वह आशीर्वाद स्वरूप अपने मातहत को अभयदान दे सके।
इन आंकड़ों की गिरफ्त में सबसे ज्यादा आता है मध्यम वर्गीय समाज। मार्केट ने इसे बखूबी समझा है, और विभिन्न क्रेडिट लोन देने वाली कंपनियां, चिट फंड, फाइनेंस संस्थाएं, लॉटरी, और स्टॉक मार्केट ट्रेडिंग कंपनियां उसे विभिन्न माध्यमों से इन आंकड़ों की रंगीन तस्वीरें भेजती रहती हैं। तस्वीरें भी किसी सुंदर सी बाला के हाथों में इन आंकड़ों को परोसते हुए दिखाई जाती हैं, और ये निरीह प्राणी आंकड़ों के उतार-चढ़ाव से ज्यादा उस बाला के उतार-चढ़ाव से प्रभावित होकर इनके मकड़जाल में फंस ही जाता है। मल्टीलेवल मार्केटिंग कंपनियों ने भी इस आंकड़ों के खेल को बखूबी भुनाया है। सिर्फ सपने दिखाने से काम नहीं चलेगा, इसलिए अब ड्रीम के स्वप्निल संसार में उसकी आंखों को चकाचौंध करने के लिए उसे आंकड़ों के पायदान पर चढ़ाया जाता है ,जिसे हम दूसरी भाषा में झाड पर चढ़ाना कहते हैं ।
सभी जगह आंकड़ों का कमाल है। नेता भी जानते हैं कि अब उनके झूठे वादों से उकता चुकी जनता को अब झूठे आंकड़े दिखाकर ही लुभाया जा सकता है। अपने वादों की गारंटी को सिद्ध करने के लिए अगले 5 साल केवल इन आंकड़ों को इकट्ठा करने का ही काम हर महकमे में दे दिया जाता है, और चुनाव से ठीक पहले इन्हीं तैयार आंकड़ों के भ्रमजाल से जनता को लुभाया जाता है। आंकड़े हर जगह दिखाई देंगे – टीवी डिबेट, न्यूज़ से लेकर दफ्तरों की फाइलों तक, लोन, बैंक, शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल, यूनिवर्सिटी, हर सरकारी दफ्तर, नगर परिषद, पंचायत विभाग, तहसील, और सचिवालय का हर विभाग इन आंकड़ों के मकड़जाल में अपने आपको खपा रहा है। ये आंकड़े विकास की झूठी तस्वीर बनाकर एक आत्म-संतुष्टि का बोध सभी के चेहरे पर विराजमान कर देते हैं। संस्थानों ने भी इस जादुई आंकड़ों को अपना लिया है। कुकुरमुत्तों की तरह खुल रही एनजीओ इन आंकड़ों के बलबूते लुभावनी सरकारी योजनाओं को मिनटों में हथिया लेती हैं। समाज सेवा के नाम पर दी गई राहतों और लाभार्थियों के आंकड़े को 100 गुना बढ़ाकर ऐसे पेश किया जाता है कि अच्छे-अच्छे परोपकारी इनके सामने पानी भरते नजर आते हैं।
सभी योजनाएं जमीनी स्तर पर फैलने के बजाय कागजी स्तर पर इठलाती और इतराती फैल रही हैं। सरकारी योजनाएं शुरू होती हैं; जैसे कि सड़क, जो पूरी भी नहीं हुई तब तक इन आंकड़ों के आधार पर उसके रिपेयरिंग का बिल भी उठा लिया जाता है। यह है इन आंकड़ों की महत्ता। कुछ का धंधा भी यही रह गया है; वे आंकड़ों में एक्सपर्ट हैं। ये आंकड़ों की चकाचौंध से किसी ग्राहक रूपी मुर्गे को इस तरह फांसते हैं कि असंभव सी योजना को भी आपके दरवाजे पर चुटकियों में लाने का वादा करते हैं। आंकड़ों के इस जादू में न जाने कितने हमारे जैसे सपने देखने वाले महत्वाकांक्षी लोग अपनी गाढ़ी कमाई गंवा देते हैं।
खैर, लोकतंत्र की सबसे बड़ी देन आंकड़ों पर ही सरकार टिकी हुई है। आंकड़े इस जीवन का इतना अभिन्न अंग हो चुके हैं कि अब रिश्ते-नाते भी आंकड़ों के हिसाब से ऊपर-नीचे होते हैं। इस मतलबी दुनिया की सबसे बड़ी खुराक यही आंकड़े हैं, जो इसे फलने-फूलने दे रहे हैं। आंकड़े, जो प्राचीन काल से ही मानव सभ्यता के साथी रहे हैं, आज के युग में एक ऐसी सर्वव्यापी भाषा बन चुके हैं, जो सब कुछ कह देती है, बिना शब्दों के।
आंकड़े, जो कभी निष्पक्षता के प्रतीक हुआ करते थे और अपनी सटीकता से व्याख्या करते थे, अब मनोरंजन, राजनीति और हमारे निजी जीवन में भी एक मोहरा बन चुके हैं अपनी शतरंज की चाल पर चेकमेट करने के लिए ।