अरे भाटिया….खट-खट की पड़ोस से आवाज, और घड़ी ने रोज़ की तरह ठीक 11 बजाये।
हमारे पडोसी अंकल का नाम इसी तरह पता चला था हमें। बात लगभग 20 साल पुरानी है। हमने अहमदाबाद में नया-नया फ्लैट लिया था। बच्चे तब बहुत छोटे थे। हमारे वहाँ शिफ्ट होने के कुछ ही महीनों में बगल वाले फ्लैट में कोई नया रहने आया है, ऐसी आवाज़ सुनाई दी। कुछ दिनों में एक बुजुर्ग व्यक्ति दिखे और ज़्यादा कोई परिवार का तो नहीं दिखा। बिल्डिंग के बहुत से बच्चों के साथ मेरे दो छोटे बच्चे भी हमारे फ्लोर पर पहले से ही खेलते थे। उन बुजुर्ग व्यक्ति के आने पर मैंने अपने बच्चों को वहाँ खेलने से मना भी किया पर कोई नहीं माना। फिर उन बुजुर्ग ने भी कुछ नहीं कहा, बल्कि वो तो अपना दरवाज़ा खोल कर रखते थे। हमारा उनसे कोई फॉर्मल इंट्रोडक्शन तो हुआ नही था पर आते-जाते कभी यदि दिख जाते तो मैं एक स्माइल दे देती थी बुजुर्ग समझ कर।
एक दिन मैं अपने किसी काम से घर से बाहर गयी थी। बच्चे सोसाइटी में ही खेत रहे थे। बच्चे अकेले हैं, ये सोच कर सन्ध्या होने से पहले मैं घर वापस आ गई। अपने फ्लोर पर पहुंची ही थी कि मैं घबरा गई। यह क्या? मैंने देखा वो हमारे नए पड़ोसी, मेरे बच्चों को टॉफ़ी देने के लिये बुला रहे थे। मैं कुछ कहती, उससे पहले ही बच्चे टॉफी ले चुके थे। मैंने इशारे से उनको जल्दी घर पर बुलाया और अंदर आते ही उन्हें टॉफी लेने के लिए डांटा। फिर आइंदा ना लेने के लिए सख्त हिदायत दी।
कुछ समय बीतने पर कभी कभार अंकल की बातचीत मेरे हस्बैंड से हो जाती थी। मेरी सख्त हिदायत के बावजूद भी बच्चे उनसे टॉफी ले लिया करते थे। उनका दरवाजा सुबह शाम खुला ही रहता था। बातचीत करने पर पता चला कि अंकल अकेले रहते हैं, बैचलर हैं। पास की एक सोसाइटी में उनका एक भतीजा रहता है और कभी- कभी उनकी उम्र के एक अंकल ठीक 11:00 बजे उनसे मिलने आते हैं । अब मेरी उनसे कभी कभार नमस्ते हो जाती थी। एक दिन की बात है, हम घर पर नहीं थे। मेरे भाई ने, मेरे बड़े बेटे का बर्थडे केक भिजवाया था तो अंकल ने अपने पास रख लिया। जब हम लौटे तो काफी रात हो चुकी थी। वह हमारे आने का इंतजार ही कर रहे थे और हमारे आते ही उन्होंने केक की बात की और हमें थमा दिया। दूसरे दिन केक कटने के बाद मैंने पहली बार अंकल के वहां घंटी बजाई और ‘बर्थडे का केक है’ यह कह कर दिया, लेकिन मेरे बहुत आग्रह करने पर भी उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि उन्हें शुगर की प्रॉब्लम है।
उसके बाद तो आते जाते, कभी-कभी वह मुझसे बच्चों के बारे में पूछते और मैं उनकी तबीयत। गुजरते समय के साथ बच्चे बड़े हो गए और उन्होंने फ्लोर पर खेलना बंद कर दिया था। मुझे अपनी पुरानी बात पर कभी- कभी शर्म भी आती थी कि मैंने उन पर टॉफी देने के लिए शक किया। दरअसल बच्चे जब छोटे होते हैं तो हमारी भी उम्र कम होती है और न्यूक्लियर फैमिली होने के कारण हम बच्चों के लिए थोड़े सेंसिटिव भी होते हैं। समय का पहिया चलता रहा। अंकल के घर से गाने की आवाज अक्सर आती रहती थी और बच्चे हँसते भी थे कि अंकल ऐसे गाने टीवी पर देखते हैं वह भी इतनी जोर- जोर से! हमें पता ही नहीं था कि उन्हें हीयरिंग प्रॉब्लम थी और घर में अकेले होने के कारण दरवाजा खोल कर गाना लगाकर शाम का खाना बनाते थे, जिससे अकेलापन न महसूस हो। समय की रफ्तार के साथ बच्चे स्कूल से कॉलेज में आ गए।
ट्रांसफर होने के बावजूद भी हम अपने ही घर में अहमदाबाद रहे। कई बार अंकल ने हमारी हेल्प की, कभी घर पेंट होने में सामान रखा कभी किसी और तरह से, जैसे कि उनका घर हमारा ही हो। कभी एहसान भी नहीं जताया और ना ही कभी हमारे घर में आए। बढ़ती उम्र के साथ -साथ अंकल भी थोड़े कमजोर दिखने लगे थे’, पर हमेशा कहते थे मुझे किसी की जरूरत नहीं है मुझे अकेला ही पसंद है।
पर उस दिन को याद करके मेरे तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जून का महीना था, छोटे बेटे को हॉस्टल में छोड़कर हम घर पहुंचे ही थे तो हमने देखा फ्लोर के कुछ लोग अंकल के घर के बाहर खड़े हैं। हमने भी रुक कर देखा, जाली का दरवाजा खुला था। अरे! यह क्या! हमने अंदर झांका तो देखा अंकल खून से लथपथ जमीन पर पड़े हैं, हम और करीब जाते, तब तक कुछ लोगों ने मिलकर उन को उठा लिया था। यह दृश्य देखकर मेरी तो मानो हार्टबीट ही बढ़ गई। कोई कह रहा था, ‘पानी लाओ’, कोई कॉटन मांग रहा था, किसी ने डॉक्टर को फोन किया। मैंने जल्दी से अपना दरवाजा खोला, फटाफट अंकल के लिए पानी और कॉटन दिया।
अंकल होश में ही थे। उन्होंने बताया कि शुगर कम होने के कारण वह गिर कर बेहोश हो गए, फिर सिर टकराने से बहुत सा खून निकल आया, पर उनको बोलता देखकर बहुत तसल्ली हुई। वह बिल्कुल नॉर्मल बात कर रहे थे। कोई दर्द का निशान भी उनके चेहरे पर नहीं था। यह देखकर मुझे तसल्ली मिली कि वह ठीक हैं। इस समय उनके अकेले होने का हम सबको बहुत बुरा लगा, और मैं उनमें शायद अपने माता- पिता को भी देख रही थी, जो उनकी ही उम्र के आसपास के हैं। अब तक कंपाउंडर को किसी ने बुला लिया था, डॉक्टर तो नहीं मिला। थोड़ी देर आराम करने के बाद सभी ने उनसे आग्रह किया कि वह अपने भतीजे के साथ चले जाएं ,जो कि वहां पहुंच चुके थे। अंकल मान गए और अपने भतीजे के साथ चले गए।
कुछ ही दिनों में फिर दरवाजा खुला दिखा। अंकल बहुत ही कमजोर हो चुके थे, और बीमार भी, परंतु अकेलेपन की आदत और किसी पर बोझ ना बनने की सोच से शायद एक महीने में ही वह वापस आ गए थे। खाने का इंतजाम उन्होंने टिफिन से कर लिया था। फिर बीच-बीच में हम लोग उनसे उनकी तबीयत पूछ लेते थे। कई बार घर में यदि कुछ खास प्रसंग होता और मैं उनसे कुछ खाने का आग्रह करती तो वह साफ मना कर देते। एक रात अंकल ने मेरे हस्बैंड को बुलाया और कई सारे फोन नंबर दिए और बताया कि यह मेरे दोस्त का है और यह भतीजे का, और कहा कि मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है और उम्र भी हो गई है। मालूम नहीं कब बंद दरवाजे में क्या हो जाए! उनकी यह बात सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। उस दिन से मैं हर रोज सुबह अपना न्यूज़ पेपर उठाने के बाद, अंकल का भी न्यूज़ पेपर चेक करती थी कि उन्होंने उठाया या नहीं। मन में डर बैठ गया था, जैसे किसी अपने के लिए होता है। जबकि इतने सालों में शायद ही कभी मेरी उनसे नमस्ते के सिवा कोई और बात हुई होगी । कुछ समय बाद अंकल को हॉस्पिटल मैं भर्ती करा दिया गया। फिर वहां से वह अपने भतीजे के कहां चले गए, और वही रहने लगे।
कुछ महीनों बाद एक दिन डोर बेल बजी, मैंने दरवाजा खोल देखा सामने अंकल खड़े थे। बहुत ही कमजोर और बीमार से लग रहे थे। ठीक से खड़े भी नहीं हो पा रहे थे। मैंने उनको अंदर आने का आग्रह किया और उनसे उनका स्वास्थ्य का हाल पूछा। उन्होंने धीरे से कहा, “मैं कल से यहीं हूँ, क्या एक चम्मच चीनी मिलेगी?” मैं दौड़कर रसोई में गई और एक कटोरी में चीनी डालकर ले आई। शुगर की प्रॉब्लम होने के कारण अंकल घर में चीनी नहीं रखते थे। पर शायद लो होने के कारण आज मांग रहे थे। मुझे कुछ समझ में नहीं आया पर मैंने पूछा नहीं। दूसरे तीसरे दिन फिर घंटी बजी और उन्होंने बर्तन वापस किया और बोले, “मैंने अपना फ्लैट भतीजे के नाम कर दिया है। अब वही रहूंगा, चलता हूँ।“ और हाथ हिला कर चले गए, जैसे कि बाय कर रहे हैं। बस पंद्रह दिन ही बीते थे कि अंकल के स्वर्गवासी होने की खबर आई। हम सबको बहुत बुरा लगा। शायद अंकल किसी पर आश्रित होना बर्दाश्त नहीं कर पाए और हमेशा के लिए सब को छोड़ कर चले गए। आज तीन साल हो गए, पता नहीं क्यों मुझे फिर भी बार-बार उनकी आखिरी मुलाकात याद आती है। जैसे कह रहे हों कि “हमेशा मीठा खाने को देती थी मैं नहीं खाता था। आज मांग कर ले जा रहा हूँ।“
आज अंकल जहाँ पर भी हों, भगवान उनको खुश रखे। इस जन्म का अकेलापन उन्हें कभी न मिले! उनका जीवन हमेशा चीनी की मिठास के साथ भरा रहे। शक्कर का अभाव उनके जीवन में कभी न हो।