दीवाली दो होती हैं – बड़ी दीवाली और छोटी दीवाली। कब से दीवाली को इस तरह विभाजित किया गया है, इसकी जानकारी तो नहीं है, लेकिन मुझे लगता है इसका भी कोई राजनीतिक कारण होगा। शायद एक मांग उठी होगी जैसे पाकिस्तान देश से अलग हुआ था, वैसे ही। लेकिन गनीमत ये रही कि छोटी दीवाली ने अपना नाम नहीं बदला, जबकि छोटे भारत ने अपना नाम बदलकर पाकिस्तान कर लिया। मैंने देखा है कि बड़ा जो होता है, वह अपनी तानाशाही गाहे-बगाहे चला ही लेता है, छोटे को छोटेपन का अहसास बड़ा ही कराता है, चाहे छोटे के दो-चार छोटे और क्यों न हो गए हों। अब पाकिस्तान चाहे अपने आकाओं के इशारे पर नंगा नाच दिखाए, लेकिन हम भारतवासी तो भारत को पाकिस्तान का बाप ही मानते हैं!
छोटी दीवाली भी अपनी शिकायत लेकर पहुँची कि मुझे छोटी कहकर सब चिढ़ाते हैं, कोई ध्यान ही नहीं देता। पहले तो कम से कम एक दीपक मेरे नाम से घर की चौखट पर जलता था, अब तो वो भी नसीब नहीं। दीपक रहे ही कहाँ, बड़ी दीवाली को भी नसीब नहीं! बिजली की झिलमिलाती झालरों और एलईडी बल्बों से सजे कृत्रिम दीपकों ने बाजार में कृत्रिम रोशनी फैला दी है! जब छोटी जिद पर अड़ गई, तो बाजार ने भी इस जिद को अवसर में बदल डाला। अब इसे रूप चौदस, नरक चतुर्दशी, काली चौदस जैसे नाम आवंटित किए गए। बाजार की अवैतनिक सेना, व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के जांबाजों ने इस सूचना को वायरल कर दिया। देखते ही देखते छोटी दीवाली का छोटापन अब छूटने लगा। लेकिन अब यहां भी एक लोचा है—रूप और नरक का मेल! इस बात से एक तसल्ली तो मिली कि जो सभी रूपवान होंगे, शायद नरक के भागी होंगे।
वैसे बचपन में इसके छोटे होने का हमने भी फायदा उठाया और इसे कुत्तों की दीवाली कहने लगे!
बात करें बड़ी दीवाली की, तो उसके मायने तो बदल ही गए हैं। हमारे समय में दीवाली का मतलब एक जोड़ी नए कपड़े होते थे, जो साल भर चलते थे। इसके अलावा एक स्कूल की यूनिफॉर्म सिलती थी। कलाकंद, खीरमोहन, पटाखे, फूलझड़ी, और कुछ चिरपोटियों के साथ दीवाली मन जाती थी। जितना इंतजार दीवाली का था, उससे ज्यादा कुत्तों की दीवाली का। हम अपने तरीके से कुत्तों की दीवाली मनाते थे—उनके पूंछ में पटाखों की लड़ी बांध देते थे और कुत्ते पूरे गांव में घूमकर बता देते थे कि आज उनकी दीवाली है। मेरे पड़ोस के मकान के दादाजी, जिनसे कुत्तों की खास दुश्मनी थी, उनकी खाट के नीचे जरूर बैठते थे। दादाजी वैसे तो कुत्तों को कभी नहीं बैठने देते, अपनी लाठी से ही उनकी दीवाली निकाल देते थे, लेकिन उस दिन उनका वश नहीं चलता। उनके लिए कुत्तों की दीवाली का मतलब था दिन भर कुत्तों की तरह भौंकना और कुत्तों के स्वर में स्वर मिलाना।
जैसे-जैसे बाजार हावी हुआ, त्योहारों के मनाने के कारण कुछ पुराने पोथी-पन्नों में खोजे गए और कुछ नए गढ़े गए। जैसे करवा चौथ का बाजारीकरण हुआ, वैसे ही कुत्तों की दीवाली का भी। कुत्तों की दीवाली से कुत्तों का एकाधिकार छीनकर इसे रूप चौदस बना दिया गया। अब तो सेल्फी जेनरेशन ने इसे प्यार से गले लगा लिया है। बड़ी दीवाली को भूलकर सब रूप चौदस का इंतजार करने लगे हैं! ब्यूटी पार्लर वालों की चांदी हो गई और कॉस्मेटिक उत्पादों की बिक्री एकदम बढ़ गई। दीवाली का त्योहार घर-परिवार के आंगन से निकलकर सोशल मीडिया की दीवारों पर सेल्फी की झालरों से सजने लगा है। दीवाली के मौखिक ‘राम-राम’ की गूंज की जगह ‘हैप्पी दीवाली’ की अंगूठा छाप विशेज ने ले ली है!
जब देश में आरक्षण की अवसरवादी नीति चल रही है, तो दीवाली का भी आरक्षण होना चाहिए। छोटी दीवाली को तो कम से कम आम आदमी के लिए आरक्षित कर दो। यह स्वार्थी बाजारवाद इसे अपनी गिरफ्त में लेकर बड़ा बनाने पर तुला हुआ है। इसे इतना बड़ा बना देगा कि एक दिन यह आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर हो जाएगी, वैसे ही जैसे बड़ी दीवाली हो गई है। आम आदमी का दीवाला निकाल दिया है। लक्ष्मी जी बहुत पहले ही रूठकर अमीरों के शयन कक्ष में वीआईपी मेजबानी का मजा ले रही हैं। लक्ष्मी के सवार उल्लू को भी इन व्यापारियों ने उल्लू बनाकर अपने पक्ष में कर लिया है। लक्ष्मी जी रास्ता भूली नहीं हैं, बल्कि उनका रास्ता भटकाया गया है।
छोटी दीवाली का नाम बदला गया है, यह भी बाजार की चाल है। छोटी दीवाली को छोटे लोग अपनी दीवाली मानने लगे। नौकरी वाले दीवाली पर मिले कुछ बोनस से परिवार की टूटी ख्वाहिशों को जिंदा करने में लगे थे। मजदूर वर्ग भी अपने पसीने की कमाई से कुछ बचाकर बच्चों के लिए, और कुछ नहीं तो एक जोड़ी चप्पलें और घरवाली के लिए मालिक की पुरानी दी गई साड़ी से अपना त्यौहार मनाते थे ।बड़ी दीवाली का मतलब अब बड़े-बड़े खर्चे, बड़े-बड़े आयोजन, और छोटी दीवाली का मतलब आम आदमी की तंगी, बची-खुची मिठाइयाँ, और अधजले पटाखे।लेकिन ये छोटी खुशियाँ भी धीरे-धीरे बाजार की भेंट चढ़ रही हैं।
छोटी दीवाली को आम जन के लिए आरक्षित होना चाहिए। छोटी दीवाली बेशक छोटी सही, लेकिन कम से कम बड़ी दीवाली के बाद ही आए। इसका कारण यह है कि देश की आधी से ज्यादा जनता की दीवाली तो दो दिन बाद ही मनती है। गली-मोहल्ले के झुग्गी-झोपड़ी वाले बच्चे रईसों द्वारा चलाए गए पटाखों से अधजले पटाखे और फुलझड़ियाँ बीनते रहते हैं। घर में काम करने वाली बाइयों को दीवाली के बाद बची-खुची मिठाइयाँ मिलती हैं। मजदूरों और नौकरों को उनकी तनख्वाह दीवाली के बाद ही मिलने का वादा होता है। वही सेठ जी और मालिक मानते हैं कि घर की लक्ष्मी को दीवाली पर घर से बाहर नहीं जाने देना है—कैद करके रखना है। मजदूर भी दीवाली के बाद अपनी मजदूरी मिलने का इंतजार करते हैं, ताकि उनकी दीवाली पूरी हो सके। इस देश में दीवाली के बाद दो ऐसे बहाने हैं जिन्होंने ना जाने कितने कर्जदारों को कर्ज चुकाने से बचाया और कितने मालिकों को मजदूरों की मजदूरी देने में देरी करवाई है।
बाजार ने दीवाली को अब एक सेल, डिस्काउंट, ऑफर ,बम्पर प्राइजेस,लाटरी का ब्रांड बना दिया है। वह दीवाली, जिसे कभी अपनेपन से अपनों के साथ मनाया जाता था, अब ‘ऑनलाइन शॉपिंग फेस्टिवल’ बनकर रह गई है। हर चीज की एक कीमत है, पर रिश्तों की नहीं।
अब तो हर घर के बाहर “सजावटी दीये” मिलते हैं, जो प्लास्टिक के होते हैं और अंदर से खाली, जैसे हमारे रिश्ते। प्लास्टिक के दीये भी शायद सोचते होंगे, “क्या हमारा भी एक दिन ऐसा होगा कि हम जलाए जाएंगे?” पर नहीं, उन्हें जलाया नहीं जाता, बस सजाया जाता है, जैसे हमारे कई रिश्ते।
बाजार ने लक्ष्मी जी का रास्ता भटका दिया है ,उल्लू को अँधेरे में रखा जा रहा है , रास्ता भटक गया है उल्लू भी … । दीवाली पर दीयों की जगह एलईडी लाइट्स, मिठाइयों की जगह चॉकलेट्स और केक और लक्ष्मी जी की पूजा की जगह सेल्स और डिस्काउंट्स की पूजा ..बस हो गयी ‘हैप्पी दिवाली।’