मैं शाम के वक्त चौराहे पर आँखें सेंकने और तफरीह के लिये निकला था। तभी मुझे आँखें सेंकने के पुराने अनुभवी उस्ताद अच्छे लाल जी मिल गए, जो कि अब ‘अच्छे वाले सर’ के नाम से विख्यात हैं। मुझसे वो काफी खार खाये रहते थे क्योंकि जबसे मैनें लघुकथा लिखनी छोड़ दी तब से वो लघुकथा के भगीरथ बने बैठे हैं।
मैं उनके पास गया तो वो कुछ गुनगुना रहे थे, मैं उनके पीछे जाकर खड़ा हो गया। आज वो क्लासिक शेर बुदबुदा रहे थे –
“दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही ही है
लम्बी है गम की शाम मगर शाम ही तो है”
मुझे लगा इनका दिल भी आजकल में ही टूटा है। बेचारे का दिल अक्सर टूटता रहता है। उनके दिल की जब एंजियोप्लास्टी हुई थी तो उनके एक मसखरे बालसखा ने उनसे कहा था –
“अमां यार, बरसों से साहित्य में तुम्हारा दिल टूटते हुए ही देख रहा हूँ। अब एक काम करो, तुम रबर का दिल लगवा लो, ताकि कोई खूबसूरत बला या बदतरीन हादसा भी तुम्हारा दिल ना तोड़ पाये!”
उनके दिल का क्या हुआ! ये तो नहीं पता लेकिन जैसे ही वो फेसबुक पर किसी आभासी सुंदरी की वाल पर कमेंट करते तो नए वाले व्यंग्यकार तुरन्त अपनी वाल पर एक पोस्ट लिखते और उसमें उनको टैग करते हुए लिखते –
“ग्यारह हसीनों ने मुझको लूटा
ग्यारह दफा दिल मेरा टूटा
तेरा नम्बर है बारह”
टैग होते ही अच्छे महोदय का पारा चढ़ जाता और नए व्यंग्यकार की लानत- मलानत पर उतर आते।
मैं उन्हें बहुत पसंद करता था और वो मुझे सख्त नापसंद।
उनके कंधे पर हाथ रखा तो वो घूम पड़े। मैंने उन्हें सलाम के लिये हाथ उठाया और कहा
“सलाम बड़े मियाँ, कैसे मिजाज हैं। वल्लाह बढ़ती उम्र के साथ आपका जादू चढ़ता ही जा रहा है। क्या राज है इस नूरचश्म का। लगता है चोट बड़ी गहरी लगी है जो आज फ़ैज़ के शेर पढ़ रहे हैं। बात क्या है हुजूरे आला” ये कहते हुए मैंने शरारत से बायीं आँख उनको मार दी।
अपनी तारीफ सुनकर वो शर्म से लाल हो गए। उनकी मुस्कान कानों तक खेल गयी। मैं अपने लिये उनके चेहरे पर उमड़ते लाड़-प्यार को देखकर निहाल हो उठा। वो प्यार से कुछ कहना ही चाहते थे, तब तक उन्हें ना जाने क्या याद आ गया। अचानक उनके चेहरे की रंगत बदल गयी। उन्होंने मुट्ठियाँ भींच ली और दांत पीसते हुए बोले-
“क्यों बे व्यंगकार की दुम! मेरी पट्ठी ने लघुकथा का सम्मेलन किया था। सात- आठ लाइन की लघुकथा क्या होती है, ये जानने- समझने के लिये उसने पच्चीस लोगों को देश के दूर दराज से बुलाया, और तू उसमें क्यों नहीं आया भूतनी के। फेसबुक पर मेरी पट्ठी को लघुकथा की सूर्पनखा कहा तूने बे! तू लघुकथा का लक्ष्मण है क्या रे, जो मेरी पट्ठी के नाक -कान काटेगा? सोशल मीडिया पर, छिछोरे -हलकट कहीं के!”
“उस्ताद, लॉटरी बेचने वाले दिनों की आदत गयी नहीं तुम्हारी। अब भी जुबान वही है, धंधे की कसम। आपने तो कहा था कि विलायत वाले लघुकथा सम्मेलन में मुझे ले चलोगे फिर इंदौर वाले में क्यों जाने को कह रहे हो?” मैंने सिर खुजाते हुए कहा।
उन्होंने झल्लाते हुए कहा- “अबे दाल- भात में मूसलचन्द! यही बात मैं पिछले तीस बरस से अपने उस्तादों से सुनता आ रहा हूँ जबसे अतुकांत कविता लिखना शुरू किया। लोग कहते हैं कि मुझे हिंदी कविता सम्मेलन में बुलाएंगे! अबे अब तो सीनियर सिटीजन हुए भी एक जमाना हो गया। लेकिन फ्री की मिलने वाली विलायती की कसम! मैंने अपने किसी उस्ताद की कभी किरकिरी नहीं की। और तू कल का छोकरा, मेरी पट्ठी के सम्मेलन पर कमेंट करेगा बे। उठा के पटक दूंगा, लेखन- वेखन भुला दूंगा फिर से लाटरी बेचेगा तू! अपनी औकात मत भूल!”
उनकी बात मुझे बुरी लगने के बजाय हँसने लायक लगी। मैंने कहा, “लाटरी बेचने का धंधा तो तुम्हारा भी पहले था ना उस्ताद! ये और बात है कि जीवन बीमा की पॉलिसी बेचकर अब अपने को व्हाइट कॉलर समझने लगे हो। और मैंने आपकी पट्ठी के सम्मेलन पर कुछ नहीं लिखा था सोशल मीडिया पर। मैंने उस सम्मेलन में पढ़ी गयी रचनाओं की गुणवत्ता पर लिखा था। अब लोगों ने उस सम्मेलन में पढ़ी गई रचनाओं की हूटिंग करते हुए बाद में लानत- मलानत की तो उसमें मेरा क्या दोष! अब मैडम जगह -जगह रोती फिर रही हैं कि लघुकथा में मेरी नाक कट गयी। उनके नाक कटने की बात को लेकर लोगों ने उनकी खिल्ली उड़ाई और उन्हें लघुकथा की सूर्पनखा कहना शुरू कर दिया तो इसमें मेरा क्या दोष उस्ताद जी?”
“अबे बासी तरकारी, तुझे ख्याल रखना चाहिए था बे! वो सम्मेलन मेरे आशीर्वाद पर ही हो रहा था। इतना तो लिहाज करता बे ढक्कन! जानता है? मैं तेरा कितना भला कर सकता हूँ और बुरा भी!” ये कहकर वो मुझे आग्नेय नेत्रों से घूरने लगे।
थोड़ा ठहरकर मैंने जवाब देना मुनासिब समझा। उनके आशिकाना -शायराना मिजाज के अनुरूप मैंने कहा –
“देखे हैं हम ने बहुत हंगामे मोहब्बत के
आगाज भी रुस्वाई, अंजाम भी रुस्वाई”
तो ऐसा है उस्ताद साहब, भले- बुरे की बात तो आप हमसे करिये ही मत! आपने कितनों की वैतरणी पार लगायी है और कितनों की नैया डुबाई है, ये हमको पता है। ये गोली किसी और को देना बड़े मियां। चचा गालिब बहुत पहले फरमा गए थे –
“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल को बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है”
आपकी उम्र का लिहाज है उस्ताद। लेकिन आप एक शेर और सुन लें
“यूँ ही नहीं उसे बहका सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है”
“अबे कमजर्फ! कमअक्ल! गुस्ताख़! कहना क्या चाहता है ये तो साफ कह!” बड़े मियां फिर अचानक मुझ पर पिल पड़े।
“उस्ताद, आपने जो मेरा भला या बुरा करने की बात की, उसी का जवाबुल जवाब है ये। और सुनिये उस्ताद -ए-मोहतरम, लय -छंद-तुक की कविता कहने वाले जिले स्तर से आगे नहीं जा पाए क्योंकि वो सिर्फ कवि थे, जुगाड़ू नहीं। कवि की शराब लाने वाला और कुर्ते प्रेस कराने वाला महाकवि बन गया गया। दुनिया भर के लिये क्रांति जगाने वाला कथाकार अपनी औलाद को प्राइवेट लिमिटेड बनाकर दे गया है। मारकाट मचाने वाली वो कवियत्री फेमिनिस्ट सबको तलाक दिलवाती फिरती है और अपने बेरोजगार पति को घर पर बैठा कर खिलाती रही है। उस्ताद -ए-आजम सुना है आप उन फूल वाली गलियों में बेगार में ही खुश हैं, वो भी बेसिर पैर की कविताओं में।
“या इलाही ये माजरा क्या है” ये कहते हुए मैंने उन्हें फिर शरारत से बांई आँख मार दी।
मेरे आँख मारते ही वो मानों अंगारों पर लोट गए हों! बदहवासी में चीखते हुए बोले –
“अबे नामाकूल! अहमक! कल के लौंडे तू मुझे ज्ञान देता है? अबे ओ लौकी के फूल! जो ना महके ना गन्धाये। अबे जाहिल, गंवार, व्यंग्य में तूने कौन सा तीर मार लिया है बे? कल की छोकरी को देख, संकलन पे संकलन निकाल रही है और तू क्या कर पा रहा है? बस जी सर, जी सर करता है!” ये कहते हुए उन्होंने अट्टहास किया।
“अरे उस्ताद! वो छोकरी नहीं है, आफत की पोटली है। सुना है बड़े मियां पिटते -पिटते बचे हैं। लखनऊ के एक ओल्ड गन ने उससे पैसे ले लिये थे कि अगली किताब का सम्पादन तुम्हीं से करवाऊंगा। सब कुछ फाइनल हो गया था। किसी दिलजले, नासपीटे का नाम संकलन से छूट गया। दिलजले ने बड़े मियां की बेगम को बता दिया कि बड़े मियां आजकल जो गजलें लिख रहे हैं वो किसी खास के लिये हैं, तब से बड़े मियां आफत में हैं। कहीं आप के साथ ऐसा कोई हादसा रिपीट ना हो जाये उस्ताद जी, इसलिये जुबां से अच्छे अल्फाज निकालें अपने जूनियरों के बारे में” ये कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी।
मेरा हँसना देखकर उस्ताद बिलबिला उठे और फिर मुझे डपटते हुए बोले, “अबे बासी तरकारी कहीं तूने ही ये सब तो नहीं किया? अबे तू कहानियां लिखता था, बोलता था बड़े फन्ने खाँ टाइप का अफसानानिगार है। फिर ये व्यंग्य के चक्कर मे कैसे पड़ गया जमूरे?”
“धंधे की कसम, ये ना पूछना उस्ताद! दुखती रग पर हाथ रख दिया तुमने, वस्ताद। जब मस्तराम टाइप का जौहर मस्तानियाँ लिखने लगीं तो अपन की क्या जरूरत थी वहाँ। ना ही दिलफ़रेब अफसाने लिखने वाले रह गए और ना ही दिलचस्पी लेकर पढ़ने वाले रह गए।
वही मिसाल हो गयी उस्ताद
“अब ना रहे वो पीने वाले
अब ना रही वो मधुशाला”
और हुजूरेवाला जब अफसाने पढ़ने वाले फेसबुक पर नहीं मिले, सो अपन व्यंग्य में आ गए। इधर मठ तो बहुत हैं मगर पक्का मठाधीश एक भी ना है। सब सीजनल हैं। सो अपन इधर फ्री लांस शार्प शूटर की तरह काम करते हैं। ताड़ते रहते हैं कि किसका व्यंग्य संग्रह निकलने वाला है, तीन महीने पहले उसी के पाले में आ जाते हैं और दिल खोलकर उसकी तारीफ करते हैं। संकलन में नाम आकर जब तक किताब घर ना पहुंच जाए, तब तक उसकी तारीफ करते रहते हैं। एक बार किताब घर पहुंची तो फिर नए संकलन की तलाश में निकल जाते हैं। ये फ्री लांस का सबसे अच्छा धंधा है।
“किताब घर के अंदर
बन्दा सिकन्दर”
मैंने उन्हें अपने धंधे की बारीक बातें तफसील से बतायीं।
उस्ताद उखड़े स्वर में बोले, “बड़ी डींगें हांक रहा है बे तू। सच -सच बता, अबे किसका शार्प शूटर है तू? सुना है आन डिमांड भी लिखता है, फ्री में छीछालेदर करता है। अबे तुझे इनमें मिलता ही क्या है?”
मैंने भी उन्हें तपाक से उत्तर दिया, “मिलने का तो ऐसा ही उस्ताद कि सबका अपना अपना स्टाइल है, अब खुद को ही देखो अब अगर पचास पोस्ट दिन भर में लाइक करते हैं तो उसमें पैंतालीस महिलाएं होती हैं, दो तीन सम्पादक होते हैं और एक आध प्रकाशक। सिर्फ महिलाओं की पोस्ट लाइक करने से आपको क्या मिलता है उस्ताद?”
उस्ताद तिलमिला उठे, अंगारों पर लोटते हुए बोले, “अबे करमजले, मेरी उम्र तो देख, तुझे ऐसी बातें करना शोभा नहीं देता!”
“वही तो मैं भी बोल रहा हूँ उस्ताद कि इस उम्र में आपको ये सब शोभा नहीं देता! अब आप उनको व्यंग्यकार ना बनाएं और उनकी किटी पार्टी की बतकही को कालजयी व्यंग्य घोषित करना छोड़ दें। आप को सलाहकार सम्पादन मिला तो आपने सरकारी पत्रिका के एक अंक में उनकी दो- दो रचनाएं लगा दीं, जबकि उन्होंने अपनी सखियों -सहेलों के ग्रुप में बताया था कि उन्होंने अपनी नातिन से लेख लिखवा कर पत्रिका में भिजवाया है और आपने उनकी आठवीं में पढ़ने वाली नातिन के लिखे निबंध को समकालीन कालजयी व्यंग्य के कालम में डबल- डबल प्रकाशित करके उन्हें डबल मानदेय का हकदार बना दिया।
दिले नादान तुझे हुआ क्या है!” ये कहते हुए मैंने शरारतपूर्ण ढंग से फिर से बायीं आँख मार दी।
“अबे भूतनी के, कमजर्फ!” कहते हुए अच्छे लाल जी ने बहुत बुरी तरह से अपना जूता मेरी तरफ फेंका है। अब मैं उनके जूते के वार से बच पाऊंगा या नहीं? आपको क्या लगता है?