विमर्श
हिन्दी काव्य में ग़ज़ल
– ज़हीर कुरेशी
‘हिन्दी काव्य में ग़ज़ल’ सबसे पहले तो’ ग़ज़ल’ है- जिसने उर्दू ग़ज़ल की काव्य-परंपरा को आत्मसात करते हुए अपना विकास किया है। समकालीन हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू ग़ज़ल के रास्ते पर चलकर ही पाँच दशक लम्बी यात्रा पूरी की है। वह भी वज़्न और बह्र को मानती है और अरेबिक अर्कानों का पालन करने वाले इल्मे-अरूज़ को स्वीकार करते हुए हिन्दी की प्रकृति, पहचान और शब्द-शक्ति से हिन्दी साहित्य के अनुभव-कोष को विस्तार दे रही है। हिन्दी ग़ज़ल भी ‘तग़ज़्जुल’ को स्वीकार करती है और शेर कहते हुए अभीष्ट साँकेतिकता की अधिकतम रक्षा करना चाहती है।
हिन्दी ग़ज़ल के पास अपनी विराट शब्द-संपदा है, मिथक हैं, मुहावरे हैं, बिम्ब हैं, प्रतीक हैं, रदीफ़ हैं, क़ाफ़िये हैं। इस प्रकार, समकालीन हिन्दी ग़ज़ल पारंपरिक ग़ज़ल की छायावादी शैली से मुक्त होने का प्रयास भी है तथा शिल्प और विषय का उत्तरोत्तर विकास भी हमें इसमें परिलक्षित होता है। इस प्रक्रिया एवं विकास की पृष्ठभूमि में समकालीन जीवन की जटिल परिस्थितियाँ भी महत्वपूर्ण हैं। ये सारी परिस्थितियाँ केवल देश और भाषा से ही जुड़ी हुई नहीं हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घटित हो रहे नए राजनैतिक, सामाजिक, साँस्कृतिक, आर्थिक एवं सूचना-तकनीकी परिवर्तन भी इसकी पृष्ठभूमि में हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिन्दी ग़ज़ल का उद्भव अकस्मात नहीं हुआ। इसका अपना रूपायन आज की गतिशील संघर्ष प्रक्रिया का ही परिणाम है।
ग़ज़ल वर्णिक छंद है, जिसकी व्याकरणीय शुद्धता जाँचने की कसौटी उसकी (अरेबिक) बहर है। सोने को सोना सिद्ध होने के लिए कसौटी की जाँच-परख से गुज़रना ही पड़ता है। उसी तरह, हिन्दी ग़ज़ल भी उर्दू ग़ज़ल की शैली में अरेबिक बहरों को मानती है और अपनी परख के लिए ‘बहर’ की छन्दानुशासी ‘तक्तीअ’ के लिए तैयार है।
हिन्दी के कुछ नए अरूजि़यों (छंद-शास्त्रियों) ने ‘रुक्न’ और ‘बहरों’ के हिन्दी नामकरण की चेष्टाएं की हैं। मैं उनके इस अतिशय प्रयत्न से सहमत नहीं हूँ। उसके लिए मेरे पास एक ही तर्क है। फ़ारसी ग़ज़ल ने अरेबिक अर्कान को स्वीकार किया, उर्दू ग़ज़ल ने भी अरेबिक अर्कान का अनुगमन किया, फिर हिन्दी ग़ज़ल का ग़ज़ल के सर्व स्वीकार्य मानकों से हटने का क्या औचित्य है? नए मानक स्वीकृत होने तक, हिन्दी ग़ज़ल को जिन अंतर्द्वंद्वों से गुज़रना पड़ेगा, उससे बेहतर है कि वह अरेबिक बहर स्वीकार कर, अपने को केवल मन, वचन, कर्म से हिन्दी की ग़ज़ल सिद्ध करे। यह हिन्दी ग़ज़ल के लिए अधिक उदार, समावेशी और सरल रास्ता है।
हम सभी जानते हैं कि आरंभिक तौर पर नई विधाओं के साथ हमेशा संशय बने रहते हैं। पचास वर्ष आयु की हिन्दी ग़ज़ल के साथ भी हैं। लेकिन, आधी सदी की इस कालावधि में भाषाई स्तर पर मध्य-मार्गी हिन्दी ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल के चरित्र और मिज़ाज को समझा है। अनेक आत्म-संघर्षों एवं विमर्शों से गुज़रने के बाद, हिन्दी में ग़ज़ल कहने वाले अधिकाँश ग़ज़लकारों ने भाषाई स्तर पर एक बीच का रास्ता चुन लिया है। आज मध्य-मार्गी हिन्दी ग़ज़लकार ही हिन्दी ग़ज़ल की काव्य-परंपरा को आगे बढ़ाने वाले गतिमान ग़ज़लगो माने जा सकते हैं।
रदीफ़, क़ाफ़िया, मतला, बहर, तक्तीअ आदि मूल-भूत सिद्धाँतों को मानते हुए भी, हिन्दी का समकालीन ग़ज़लकार उर्दू ग़ज़ल की निम्नाँकित बातों को नहीं मानता:-
(1) उर्दू के केवल उन प्रचलित शब्दों को ही समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में मान्य किया जाता है, जो सचमुच आज की जन-भाषा में लोकप्रिय हैं। उदाहरण के लिए सियासत, ज़ुबान, मज़ा, रौनक, इन्किलाब, परचम, पैगाम आदि जैसे जन-प्रवाह में घुले-मिले शब्दों को तो हिन्दी ग़ज़ल के शेरों में उपयोग कर लिया जाता है। लेकिन, साकित, गर्काब, फुसूँगर, तकल्लुम, बरहम, सम, तलातुम आदि शब्दकोश में देखकर समझने योग्य उर्दू शब्दों को हिन्दी ग़ज़लकार अपनी शायरी में उपयोग में नहीं लाते।
(2) उर्दू में तराकीब (विभक्ति-कौशल) से बनाए गए शब्दों (जैसे:- लज़्ज़ते-अहसासे-उल्फत, जुस्तजू-ए-खुद, चश्मे-नम, करारो-लुत्फ आदि) को समकालीन हिन्दी ग़ज़ल शेरों में अस्वीकार करती है।
(3) ‘राज़’ का क़ाफ़िया ‘आज’ से और ‘आगाज़’ का सानुप्रास ‘ताज’ से मिलाने वाले ग़ज़लकारों को हिन्दी ग़ज़ल में हतोत्साहित किया जाता है।
(4) समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में (2+1) पदभार के अनेक (यथा:- शह्र, जम्अ, दख्ल, रह्म, सह्ल, सुब्ह, सुल्ह, शम्अ, फस्ल, नक्द, वह्म, वज्ह आदि) शब्दों को (1+2) के पदभार (यथा:- शहर, जमा, दखल, रहम, सहल, सुबह, सुलह, शमा, फसल, नकद, वहम, वजह) में उपयोग किया जा रहा है। क्योंकि हिन्दी आलेख, कहानी, छंद-मुक्त मुक्त-छंद कविता, गीत, दोहे में उपरोक्त जन-प्रवाह में लोकप्रिय उर्दू शब्द (1+2) के पदभार में ही प्रयोग किए जाते हैं।
(5) इसी प्रकार पियाला, परवा, ज़ियादह, खँडर, मुआमला, मुआफ़, मसअला, मशअल, तजरुबा, किल्आ जैसे लोकप्रिय उर्दू शब्द हिन्दी ग़ज़ल में प्याला, परवाह, ज़्यादा, खंडहर, मामला, माफ़, मसला, मशाल, तजुर्बा, किला शब्दों के रूप में उपयोग किए जा रहे हैं।
समकालीन हिन्दी ग़ज़ल की इसी व्याख्या के क्रम में, यह बताना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि रदीफ़ क़ाफ़िया, मतला, बहर, तक्तीअ आदि मूल-भूत सिद्धाँतों को मानने वाली हिन्दी ग़ज़ल आज उर्दू ग़ज़ल की और कौन-कौन सी बातों का अनुसरण कर रही है:-
(1) प्राय: देखा गया है कि उर्दू ग़ज़ल में ‘अलिफ’, ‘ये’ आदि के क़ाफ़िये स्वीकार्य हैं- जिनके कारण शेरों में सानुप्रास सरल हो जाते हैं। हिन्दी ग़ज़ल भी अपने शेरों में बड़े आ, बड़ी ई, बड़ा ऊ, ए, ओ वर्णों की मात्राओं के क़ाफ़िये (उर्दू ग़ज़ल की शैली में ही) उपयोग कर रही है।
(2) उर्दू ग़ज़ल में मिसरे या शेर की आवश्यकतानुसार मेरा, तेरा, कोई, और, वो आदि शब्दों को मिरा, तिरा, कुई, उर, वु पढ़ा जा सकता है। तक्तीअ करते हुए, उपरोक्त शब्दों की मात्रा दबाकर पढ़ने की स्थिति में ही गणना की जाती है। हिन्दी ग़ज़ल भी इस सुविधा का पूरा-पूरा लाभ उठा रही है।
इसी प्रकार, नियमानुसार का, की, के, से, को, लो, दोनों, जाएगी, रहे, किया, ऐसा, देखो, है, हैं, पी, सकते, सकता, उठना, जागना, आपकी रखी, था, थी, हूँ आदि शब्दों की अंतिम (दीर्घ) मात्राएँ गिराई जा सकती हैं। अर्थात् दीर्घ होते हुए भी, अंतिम वर्णों को कई बार उर्दू ग़ज़ल में लघु गिना जाता है। समकालीन हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू की इस सुविधा को स्वीकार कर लिया है और शायरी में नियमानुसार इसका उपयोग कर रही है।
(3) उर्दू ग़ज़ल में वस्ल के नियम से शायरी को बहुत लाभ हुआ है। वस्ल के नियम के अंतर्गत शेर में अगर दो शब्द एक-दूसरे के निकट हैं। पहले शब्द का अंत (लघु) व्यंजन वर्ण के रूप में हो रहा है। दूसरे निकट के शब्द का आरंभ (दीर्घ) स्वर वर्ण के रूप में हो रहा है, तो व्यंजन और स्वर को वस्ल (संयुक्त) किया जा सकता है। जैसे:- मिसरा है-
(अ) बहुत थक गया हूँ, कुछ आराम दे दो
वस्ल करने के बाद, मिसरे को यूँ पढ़ा जाएगा-
बहुत थक गया हूँ, कुछाराम दे दो
(ब) मिसरा है-
अगर और जीते रहते, यही इन्तिज़ार होता
वस्ल करने के बाद, मिसरे को कुछ यूँ पढ़ा जाएगा-
अगरौर जीते रहते, यही इन्तिज़ार होता
उल्लेखनीय है कि समकालीन हिन्दी ग़ज़ल ने वस्ल (संयुक्त करने) की इस सुविधा को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है और अपने शेरों में नियमानुसार इसका उपयोग भी कर रही है।
(4) उर्दू ग़ज़ल में, आवश्यकतानुसार मिसरे के अंतिम शब्द के सर्वांतिम लघु वर्ण को (तक्तीअ के समय) लोप करने की सुविधा है। जैसे:- मिसरा है-
दूर तक फैली हुई तन्हाइयों में तेरी याद
(तक्तीअ करते समय) मिसरा यूँ पढ़ा जाएगा-
दूर तक फैली हुई तन्हाइयों में तेरी या
आवश्यकतानुसार मिसरे के अंतिम शब्द के अंतिम लघु वर्ण को लोप करने की सुविधा का लाभ समकालीन हिन्दी ग़ज़ल भी उठा रही है।
पाँच दशक लम्बी यात्रा के बाद, समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों के आत्म-विश्वास में काफी वृद्धि हुई है। देवनागरी में, लब्ध-प्रतिष्ठ प्रकाशनों से इल्मे-अरूज़ (ग़ज़ल के छन्द शास्त्र) की आधिकारिक पुस्तकों के बाज़ार में आने के बाद, हिन्दी के नए ग़ज़लकार भी वज़्न, बहर, तक्तीअ जैसे ग़ज़ल के मूल-भूत सिद्धान्तों से ‘लैस’ दिखाई दे रहे हैं। हिन्दी के ग़ज़लकारों के पास समकालीनता की बेहतर समझ तो है ही। फलस्वरूप आज की हिन्दी ग़ज़ल मुख्य-धारा की कविता होने के मार्ग पर पूरे विश्वास के साथ आगे बढ़ रही है।
– ज़हीर क़ुरेशी