व्यंग्य
छोटूलाल की जीवन लीला
– वीरेन्द्र परमार
कभी-कभी ईश्वर से भी भयंकर भूल हो जाती हैI ईश्वरीय लापरवाही के कारण भगवान के कारखाने में कुछ डिफेक्टिव माल तैयार हो जाते हैं और ईश्वर के कारखाने में तैनात विपणन अधिकारी जाँच-परख किये बिना उस डिफेक्टिव माल को दुनिया के बाज़ार में बिक्री के लिए छोड़ देते हैंI उसके बाद तो भगवान भी हाथ मलते रह जाते हैं और दुनियावाले भी उस नायाब नमूने के अजब-गजब करतबों-कारनामों से परेशान-हलकान होते रहते हैं, परंतु उस नामुराद को झेलने, उस पर खीझने और मन ही मन उसे गालियों से अलंकृत करने के लिए अभिशप्त रहते हैंI वह डिफेक्टिव पीस जब तक जीता है, दुनियावाले को चुभता रहता हैI ऐसे गर्दभी गुणसम्पन्न आत्मप्रशंसा के रोगी महामानव के बारे में लोग कहते हैं कि यह आदमी धरती पर अवतरित नहीं होता तो दुनिया का क्या बिगड़ जाता!
इनका जन्म ही एक दुर्घटना होती है I इनको अच्छे, बुरे, उत्तम, अधम किसी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, ये विचित्र होते हैं- अद्भुत और अतुलनीयI ऐसा ही एक विचित्र किस्म का व्यक्ति कुछ समय के लिए मेरी जीवन- यात्रा में शामिल हुआI संयोग से उसका नाम जीवनलाल थाI बाद में पता चला कि पीठ पीछे अधिकांश लोग उसे जी-1 कहते थेI उसकी कद-काठी के कारण कुछ लोग उसे छोटूराम या छोटू भी कहते थेI मैं जब स्थानांतरित होकर नए शहर में आया तो जीवन लाल अपनी क्षीण काया के साथ अपानवायु का परित्याग करते हुए सगर्व मेरे आवास पर प्रस्तुत हुआI लम्बाई चार फीट, चार इंचI वजन 30 किलोI रंग सांवलाI आवाज़ में भारीपन I चलता तो ऐसा लगता मानो सड़क पर एहसान कर रहा हैI वह हड्डियों का ढांचा मात्र थाI उसे देखकर ऐसा लगता मानो डंडे ने परिधान धारण कर लिया होI रोम-रोम से अहंकार टपकता, बातचीत में बेहूदा किस्म का बनावटीपनI उसके दंभ के सामने रावण भी शर्म से लाल हो जाएँI
आत्मप्रशंसा और आत्मविज्ञापन करनेवाले तो अनेक लोग मिले थे लेकिन छोटू को तो आत्मप्रशंसा करने का भयंकर रोग थाI रोज़ अपनी शौर्यगाथा सुनाता, अपनी बुद्धिमानी, अपने ज्ञान, अपने कला-कौशल का बखान करताI जब तक दो-चार लोगों के सामने वह अपनी आत्मप्रशंसा न कर ले, उसका भोजन नहीं पचताI जीवनलाल अपनी अपानवायु परित्याग करने के कौशल का भी गौरव गान करता थाI आत्मप्रशंसा और आत्मविज्ञापन कला का वह ऐसा पारंगत कलाविद था जो अपने गोबर को भी गणेश बना देता और दूसरों के गणेश को भो गोबर सिद्ध कर देताI यह बात अलग है कि भाई लोग उसकी बुद्धिमानी को धूर्तता बताते, उसके ज्ञान को गोबर ज्ञान कहते और उसके कला-कौशल को गदहपचीसी सिद्ध करतेI
जीवनलाल को जब भी एहसास होता कि उसके अन्दर ज्ञान लबालब भर चुका है तो वह मेरे घर पहुँचकर अपने ज्ञान रूपी कचरे का दनादन निपटान करने लगताI बोलते-बोलते मुख से झाग निकलने लगता लेकिन वह अपना पूरा ज्ञान-कूप रिक्त करके ही दम लेताI मैंने पहली बार ऐसा नमूना देखा था और उसे देखकर चकित थाI ऐसा लगता कि वह बोलने के लिए पैदा हुआ है और बोलना ही उसका जीवनोद्देश्य, उसकी मुक्ति का मार्ग हैI मानो वह बोलने के लिए युगों- युगों से प्यासा है, आज उसकी साधना फलीभूत हुई है और उसे मेरे रूप में एक ऐसे मौन श्रोता का महाप्रसाद मिला है, जिसके सामने वह अपने ज्ञान का सम्पूर्ण कचरा उड़ेल- धकेल सकता हैI आखिर मेरे जैसा मौन श्रोता भाग्यशाली लोगों को ही मिलता हैI जीवनलाल सभी लोगों को कान समझता, जिसमें निरंतर ज्ञान का अमृत (?) डालना उसका परम कर्तव्य थाI उसके लिए सभी लोग कूड़ेदान के सामान थे, जिसमें वह जब चाहे अपने (अ)ज्ञान का कूड़ा-कर्कट डाल सकता थाI उसके इसी प्रागैतिहासिक गुण से लोग परेशान थे, उसे देखकर अपना रास्ता बदल लेतेI कौन सुने छोटूराम का पागल प्रलापI न किसी की बात सुनता है, न ही आम लोगों की बातचीत में शामिल होता हैI उसकी नज़र में सभी आम आदमी थेI अखिल विश्व में वह एकमात्र वीआईपी, अकेला बुद्धिमान और धरती पर एकमात्र जीवित बचा बुद्धिजीवी थाI अखिल ब्रह्माण्ड में उसके जैसा और कोई नहीं थाI बात-बात में लोगों को एहसास कराता कि वह वीआईपी है, बाकी लोग आम आदमी I
जीवनलाल एक सरकारी विभाग में बाबू थाI वह फाइलों की ऐसी-तैसी और सरकारी योजनाओं का अंतिम संस्कार करता रहता थाI मेरा वह भूतपूर्व और अभूतपूर्व मित्र सरकारी निकम्मेपन का जीता-जागता उदहारण थाI वह फाइलों को धीरे-धीरे चलने की प्रेरणा देता, अपने सहकर्मियों को ‘निष्काम कर्मयोग’ का पाठ पढाता और नवनियुक्त अधिकारियों को ‘अकर्मण्य कला’ के गुण-दोषों से परिचित कराताI कहता कि विगत बीस वर्षों से मैं बिना कुछ काम-धाम किए सरकारी रोटी तोड़ रहा हूँ तो किसी ने मेरा क्या उखाड़ लिया? उसके रक्त में सरकारी निकम्मापन इस तरह घुलमिल गया था जैसे दूध में पानीI वह ऐसे सरकारी बाबुओं का प्रतिनिधित्व करता था, जो वेतन प्राप्त करना अपना अधिकार समझते हैं और काम नहीं करना कर्तव्यI निकम्मा, कृतघ्न, बहानेबाज और धूर्त वेतनजीवीI वह कंजूस ऐसा कि लोग कहते कि कंजूसी का आविष्कार जीवनलाल ने ही किया है, उसे अब कंजूसी को पेटेंट भी करा ही लेना चाहिएI बाज़ार जाता तो सड़ी- गली सब्जियाँ, घटिया ब्रांड की चीजें और नकली वस्तुएं कम दाम पर खरीदताI ऐसा लगता कि ‘कमीना’ शब्द उसी के लिए बना होI एक बार जीवन की कंजूसी को चुनौती देते हुए उसके बेटों ने मोबाइल लेने की ज़िद्द कर दी I कुछ दिनों तक तो जीवन ने साम, दंड, भेद की नीति अपनाकर उन्हें चुप कराने की चेष्टा की परन्तु अंततः बेटों की ज़िद्द के सामने झुकना ही पड़ा, पर जीवनलाल भी छुटभैये किस्म का कंजूस नहीं था, बल्कि वह तो कंजूस महाविद्यालय का प्राचार्य बनने की पात्रता रखता थाI छोटे-मोटे अनाड़ी मक्खीचूस तो जीवन से दीक्षा लेने आते थेI आखिर उसने बीच का रास्ता निकाल ही लियाI एक मोबाइल ख़रीदकर कहा कि दोनों बारी-बारी से मोबाइल का इस्तेमाल करो- एक दिन बड़ा बेटा इस्तेमाल करेगा, दूसरे दिन छोटा I
मोहल्ले में जीवन का कोई मित्र नहीं था I जीवन मुझे अपना मित्र समझता था पर मैंने कभी उसे अपना मित्र नहीं मानाI मित्र बनने की उसमें कोई योग्यता नहीं थीI योग्यता तो उसमें नेता बनने की भी नहीं थी परन्तु वह हज्जाम यूनियन का मोहल्ला अध्यक्ष बन गया थाI हज्जाम यूनियन का मोहल्ला अध्यक्ष बनने के बाद उसका परिचय बदल गयाI अब वह अपना परिचय सरकारी विभाग के बाबू के रूप में नहीं बल्कि हज्जाम यूनियन के मोहल्ला अध्यक्ष के रूप में देने लगाI नेता बनने के लिए जैसा धैर्य होना चाहिए जीवनलाल में उसका नितांत अभाव थाI वह सबकुछ जल्दी में प्राप्त कर लेना चाहता थाI
जीवनलाल के दो पुत्र थे– बड़े का नाम मोहन और छोटे का नाम सोहन थाI मोहल्ले के लोग बड़े को जी-2 और छोटे को जी-3 कहते थेI जी-2 अपने पिता की परंपरा को आगे बढ़ा रहा थाI अपने बाप की तरह ही अहंकारी, बातूनी और बददिमागI दिन भर आवारा घूमता रहता, कोई काम-धंधा नहींI वह भी बातों का वीर था, लफ्फाजी में परम पारंगत, लेकिन जीवनलाल के लिए उसका बेटा दुनिया का सबसे बड़ा दार्शनिक था- अरस्तू का बापI देखने में वह खाते-पीते घर का लड़का लगता था लेकिन बाद में पता चला कि वह खाते-पीते घर का पीता-खाता लड़का है I ब्रह्म मुहूर्त में ही वह सोमरस के दो-तीन पैग लगा लेता, उसके बाद तो वह सम्पूर्ण धरा का स्वामी बन जाता I सोमरस का छककर सेवन करता और सपने देखने में समर्पित भाव से लग जाताI अपने लड़खड़ाते कदमों से दिन में वह कई बार मदिरालय का गौरव बढाता थाI मदिरा सेवन के बाद वह दुनिया का सबसे बड़ा दार्शनिक, चिंतक और विश्व राजनीति का व्याख्याता बन जाताI
जीवन का छोटा बेटा सोहन कई वर्षों से मैट्रिक में भाग्य आजमा रहा थाI एक दिन मैंने अपने पड़ोसी शर्मा जी से पूछा- क्यों भाई शर्मा जी, सोहन की मैट्रिक परीक्षा भारत सरकार की पंचवर्षीय योजना हो गई है क्या? शर्मा जी ने हँसते हुए जवाब दिया- सोहन मैट्रिक में एक शोध प्रबंध लिख रहा है जिसका शीर्षक है ‘लड़कियों को प्रेम पत्र लिखकर कैसे पटायें’I शोध कार्य में तल्लीन होने के कारण मैट्रिक से वह आगे नहीं बढ़ पा रहा हैI जीवनलाल की पत्नी गुलाबो देवी के उदात्त चरित्र की चर्चा किए बिना यह कथा अपूर्ण रहेगीI गुलाबो देवी रूपगर्विता महिला थींI कभी सुन्दर रही होंगी पर अब उनका पतझर काल थाI खंडहर को देखकर कहा जा सकता था कि कभी इमारत बुलंद रही होगीI इस उम्र में भी व्यक्तित्व में आकर्षण थाI उम्र बढ़ने के साथ ही वह मोटी और थुलथुल हो गई थीI जीवनलाल गुलाबो देवी के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी थाI गुलाबो देवी को भगवान से बस यही शिकायत थी कि सोलह शुक्रवार का व्रत रखने और प्रत्येक सोमवार को बाबा भोलेनाथ का जलाभिषेक करने के बावजूद तीन बित्ते का जिद्दी, गुसैल और बेहूदा किस्म का बौद्धिक पति मिल गयाI इसलिए वह नास्तिक हो गई थीI पूजा-पाठ से क्या लाभI छोटूराम ने गुलाबो का जीवन नरक बना दिया थाI कद-काठी तो ईश्वरीय कृपा है, इसलिए उसे लेकर भगवान से उन्हें अधिक शिकायत नहीं थीI वह छोटूराम के विचित्र व्यवहार को लेकर दुखी रहती थीI कैसा पति मिला है! नौकरी करता है बाबू की लेकिन घर आकर ऐसा रोब जमाता है मानो वह देश का प्रधानमंत्री होI दफ्तर में भी तो वह अधिकांश समय ऊँघता तथा अपानवायु का परित्याग करता रहता है और शेष समय चाय पीने, राजनीतिक गप्पबाजी करने एवं कौशल्या नामक महिला चपरासी के गोपन अंगों का बखान करने में बिताता थाI
जीवनलाल की जीवन लीला का अंतिम अध्याय-
विभाग ने जीवनलाल को उसके निकम्मेपन के कारण रिटायर कर दिया हैI उसके सेवानिवृत्त होने पर गुलाबो का दुःख और बढ़ गया हैI जीवनलाल अब दिन भर प्रवचन देता रहता है और एकमात्र श्रोता गुलाबो हैI हे ईश्वर! जीवनलाल से गुलाबो की रक्षा करना क्योंकि जीवनलाल नहीं जानता कि वह अपने अनर्गल प्रलाप से लोगों पर कितना अत्याचार करता हैI
– वीरेन्द्र परमार