कथा-कुसुम
कहानी- घाव
छोटा भाई किसलय मेरा लाड़ला था। बचपन से ही मैं उससे बहुत प्यार करता था। वह मुझसे पाँच साल छोटा था पर मेरे सभी खेल-कूदों में वह मेरे साथ होता था। हममें ख़ूब पटती थी। जब वह नर्सरी में था तब अक्सर आधी छुट्टी के बाद वह मेरी क्लास में आकर बैठ जाता था। स्कूल में यदि कोई सहपाठी उसे तंग करता तो उसे मेरे कोप का भाजन बनना पड़ता था। मैं हट्टा-कट्टा, मज़बूत क़द-काठी का था और खेल-कूद में अव्वल रहता था जबकि छोटा भाई पतला-दुबला था पर पढ़ाई में बहुत तेज़ था। हम दोनों को एक-दूसरे का भाई होने पर गर्व होता था।
छोटा भाई वैसे तो बहुत होशियार था पर उसके दाएँ हाथ की ‘ब्रेन-लाइन’ बीच में से टूटी हुई थी। ऐसा पिताजी बताते थे। पिताजी को हस्त-रेखा शास्त्र और अंक ज्योतिष की किताबें पढ़ने का शौक़ था। वे कहते थे कि छोटे भाई किसलय के जीवन में कोई बड़ा हादसा होगा, जो उसके मानसिक संतुलन की परीक्षा लेगा। पिताजी की बात सुनकर मैं अक्सर चिंतित हो जाता था। पर तब मैं और भी जी-जान से छोटे भाई का ख़याल रखने लगता था।
हम सब तब अमृतसर में रहते थे। पिताजी वहाँ के विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्राध्यापक थे। अस्सी का भयावह दशक शुरू हो गया था। पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद अपनी चरम सीमा पर था। आतंकवादी लोगों को बेधड़क मार रहे थे। गुरुद्वारों का दुरुपयोग हथियारों को छिपाने के लिए किया जा रहा था। पुलिस वालों की भी हत्याएँ हो रही थीं। राज्य की पुलिस आतंकवाद से लड़ने में विफल रही थी, इसलिए केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल की दर्जनों बटालियनें पंजाब में तैनात कर दी गई थीं।
पंजाब में हिंदुओं के लिए यह कठिन समय था। पाक-प्रशिक्षित आतंकवादी हिंदुओं और सिखों के बीच साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिए हिंदुओं को बसों और रेल-गाड़ियों से उतार-उतार कर मार डाल रहे थे । पूरे पंजाब में शाम छह बजे से सुबह छह बजे तक कर्फ़्यू लगा रहता था । इसी बीच पंजाब में जून , 1984 में ऑपरेशन ब्लू-स्टार के रूप में सैनिक कार्रवाई की गई थी जिसमें खालिस्तान के लिए हिंसक आंदोलन चलाने वाला चरमपंथी सिख नेता जरनैल सिंह भिंडराँवाले मारा गया था । सिखों में आक्रोश था । फिर अक्टूबर , 1984 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के दो सिख सुरक्षा-कर्मियों ने उनकी हत्या कर दी । बदले के रूप में दिल्ली और देश के कई अन्य हिस्सों में कई हज़ार निर्दोष सिखों की हत्या कर दी गई । यही वह विषाक्त माहौल था जिसमें मैं और मेरा छोटा भाई किसलय पंजाब के शहर अमृतसर में बड़े हो रहे थे ।
कुछ साल पहले मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली थी और मेरी नौकरी डी. ए.वी. कॉलेज, लुधियाना में व्याख्याता के रूप में लग गई थी। छोटा भाई किसलय तब अमृतसर के विश्वविद्यालय के बायोटेक्नॉलोजी विभाग में एम.एस.सी. कर रहा था।
कुछ वर्ष पूर्व हुए ऑपरेशन ब्लू-स्टार के बावजूद नए-नए आतंकवादी संगठन एक बार फिर से पंजाब में एकजुट होकर प्रतिदिन बम-धमाके और हत्याएँ करने लगे थे। हिंदुओं और सिखों के सम्बन्धों में तनाव आ गया था। ऐसे माहौल में मेरा छोटा भाई किसलय एक जाट सरदार लड़की के प्रेम-पाश में बँध गया। सिमरन संधू नाम की वह लड़की भाई की सहपाठी थी और वह भी उससे प्यार करती थी। सिमरन के पिता ‘इंडियन रेवेन्यू सर्विस’ में अधिकारी थे। जुगाड़ के द्वारा मुनाफ़े वाली जगहों पर अपनी पोस्टिंग करवाकर उन्होंने दो नम्बर का काफ़ी रुपया-पैसा कमाया था। अमृतसर के पॉश इलाक़े में उनकी कई कोठियाँ थीं और अस्सी के दशक के अंत के समय में उनके पास कई विदेशी लक्ज़री कारें थीं।
जब छोटे भाई ने मुझे सिमरन से अपने प्रेम के बारे में बताया तो किसी अनिष्ट की आशंका से मैं भीतर तक काँप गया। माहौल बहुत ख़राब था। पंजाब के दरियाओं में आग लगी हुई थी। मैं जानता था कि सिमरन के पिता मेरे छोटे भाई से अपनी बेटी की शादी के लिए कभी ‘हाँ’ नहीं करेंगे। तब तक भाई और सिमरन दोनों ने एम.एस.सी. कर ली थी और दोनों ही चंडीगढ़ के ‘इमटेक’ संस्थान से पी.एच.डी. करने के लिए अपना रजिस्ट्रेशन करवा चुके थे। भाई ने अपना और सिमरन का रिश्ता करवाने के लिए मेरी मदद माँगी। मैं बेहद आशंकित था। पिता को जब यह बात पता चली तो वे भी चिंतित हो उठे। अंत में सबकी सलाह पर मैंने और किसलय ने सिमरन के पिता संधू साहब से उनके घर पर उनसे मिलने का समय माँगा। इश्क़ और मुश्क़ छिपाए नहीं छिपते। तब तक उन लोगों को भी पूरे घटनाक्रम की भनक लग चुकी थी। सिमरन के भाई ने किसलय को धमकी तक दे डाली थी।
यह वह समय था जब आतंकियों द्वारा की जा रही हत्याओं की वजह से पंजाब से हिंदुओं का पलायन लगातार जारी था। उधर अक्टूबर-नवम्बर, 1984 में सिखों के विरुद्ध हुए दंगों की वजह से देश के दूसरे हिस्सों से सिख सुरक्षा के लिए पंजाब की ओर पलायन कर रहे थे। यह दो-तरफ़ा पलायन माहौल को और विषाक्त बना रहा था।
संधू साहब के साथ मेरी मुलाक़ात विस्फोटक रही। उन्होंने एक हिंदू लड़के से अपनी जाट सिख लड़की के ब्याह की सम्भावना से साफ़ इंकार कर दिया। मैंने कहा भी कि लड़का और लड़की दोनों एक-दूसरे को चाहते हैं और दोनों की ख़ुशी की ख़ातिर इन दोनों की शादी कर देनी चाहिए। पर संधू साहब के सिर पर ख़ून सवार था। उन्होंने आग-बबूला होकर हमें धमकी दे डाली। हमारी बेइज़्ज़ती करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि वे ‘बिहारियों’ को अपनी लड़की नहीं देंगे। मेरे पिता बिहार से आकर बरसों पहले पंजाब में बस गए थे। हम लोग पढ़े-लिखे, संस्कारवान परिवार से थे। किंतु संधू साहब का मानना था कि बिहारी ‘भइये’ होते हैं। उनकी कोई इज़्ज़त नहीं होती और वे ग़रीब और पिछड़े हुए राज्य के घटिया लोग होते हैं। पिताजी के कई पंजाबी मित्रों ने भी संधू साहब को समझाने-बुझाने का प्रयास किया पर वे और सिमरन का बड़ा भाई दोनों ही अपनी बात पर अड़ गये। आँखें होते हुए भी यदि लोग अंधे होने के लिए अड़ जाएँ तो आप उन्हें कुछ नहीं दिखा सकते।
जब सिमरन और छोटा भाई किसलय इस विरोध के बावजूद मिलते-जुलते रहे तो सिमरन के भाई ने हमें धमकी दी कि वे हमारी छोटी बहन को उठा लेंगे। माहौल की विषाक्तता अब सामाजिक से व्यक्तिगत स्तर पर आ पहुँची थी। सिमरन के घर में उसे रोज़ मारा-पीटा जाने लगा। किसलय पर भी सिमरन के भाई के भेजे गुंडों ने हमला किया और उसे घायल कर दिया।
मैं तो चाहता था कि किसलय और सिमरन भागकर दिल्ली चले जाएँ और वहाँ जाकर ‘कोर्ट-मैरेज’ कर लें। पर किसलय और मुझे हम; दोनों को अपनी छोटी बहन की फ़िक्र भी थी। सिमरन के भाई की धमकी के मद्देनज़र किसलय मन मारकर इस रिश्ते से पीछे तो हट गया पर वह ‘डिप्रेशन’ का शिकार हो गया। उधर रोज़-रोज़ की मार-पीट से तंग आकर उसी साल पंद्रह अगस्त के दिन सिमरन ने ज़हर खाकर अपनी जान दे दी। यह पता चलने पर छोटा भाई किसलय ‘नर्वस ब्रेकडाउन’ का शिकार हो गया। मैं और पिताजी; हम दोनों उसे बचाने की जद्दोजहद में लग गये। हमने बहुत लगन से उसकी देखभाल की। दवाएँ और मानसिक सम्बल देकर धीरे-धीरे हम उसे फिर से स्वस्थ करने में सफल हुए। इस आघात से उबरकर आख़िर किसलय ने अपनी पी.एच.डी. पूरी की। बाद में उसे अमेरिका के फ़्लोरिडा विश्वविद्यालय में ‘पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च’ (शोध) करने के लिए वज़ीफ़ा मिल गया। फिर किसलय वहीं विश्वविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हो गया। कुछ वर्ष बाद छोटे भाई ने वहीं की एक गोरी मेम से शादी कर ली। अब उनके दो प्यारे बच्चे हैं।
एक बार जब किसलय अपने बीवी-बच्चों के साथ भारत आया तो मैंने उसकी हथेली की रेखाएँ देखीं। उसकी टूटी हुई ब्रेन-लाइन अब लगभग जुड़ गई थी। पर बातचीत के दौरान मुझे लगा जैसे कोई त्रासद-सी किरच है, जो अब भी उसके मन में चुभ रही है।
अब जब कभी कोई पंजाब के आतंकवाद के दिनों का ज़िक्र करता है तो मुझे छोटे भाई किसलय के साथ घटी वह त्रासद घटना याद आ जाती है। और सिमरन की आत्महत्या की घटना की याद आँखों को नम कर जाती है। क्या छोटा भाई सिमरन की आत्म-हत्या की घटना को भूल पाया होगा? क्या वह इस सदमे से पूरी तरह उबर पाया होगा? ऊपर-ऊपर से देखने पर तो यही लगता है कि अब वह अमेरिका में अपने बीवी-बच्चों के साथ सामान्य जीवन जी रहा है। लेकिन हर साल पंद्रह अगस्त के दिन कहीं उसके घाव फिर से हरे होकर टपकने तो नहीं लगते होंगे? घाव सूख भी जाए तब भी उस पर पड़ी पपड़ी हटने के बाद उसका दाग़ तो रह ही जाता है— सदा उस घाव की याद दिलाता हुआ।
– सुशांत सुप्रिय