कथा-कुसुम
तलाक़
बहुत दिनों से शुभ्रा सोयी नहीं थी मगर ये भी सच है वो अब रोती भी नहीं थी। आठ वर्षों का वैवाहिक जीवन उसे त्वरित निर्णय के इल्ज़ाम से तो मुक्त कर ही देगा मगर अपनी संवेदनाओं के बंधन से वो कैसे मुक्त होगी। तीन वर्षों के प्रेम के बाद ही उसका शेखर से प्रेम विवाह हुआ था। पारिवारिक स्वीकृति मिलने में ही समय लगा था। शुरूआती दिन तो मौज-मस्ती में बीत गये। जब प्रेम को प्रामाणिकता देने का शेखर पर पारिवारिक दबाव पड़ा तो निराशा हाथ लगी। डॉक्टरों के चक्कर काटते विवाह के आठ वर्ष बीत गये। बाँझ की संज्ञा भी शुभ्रा को कब मिली उसे पता ही नहीं चला। शेखर इकलौता बेटा था इसलिए उस पर पारिवारिक दबाव भी बहुत था। मगर उसने शुभ्रा को इस दबाव से अछूता रखा था।
शुभ्रा की सासू माँ ने आज से एक माह पूर्व, शेखर की ग़ैर हाज़िरी में शुभ्रा से एक वादा ले लिया था, जिसके तहत वो शुभ्रा की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी लेने को तैयार थीं, उसके नाम ज़मीन, ज़ायदाद इत्यादि कर उससे बदले में शेखर से तलाक़ चाहती थीं।
आज शेखर की बाहों में शुभ्रा की आख़िरी रात थी। शुभ्रा आज हर पल को समेट लेना चाहती थी। एक अनचाहा गुनाह मगर शुभ्रा को विचलित कर रहा था। अचानक ही उसने शेखर से पूछा, “कितना चाहते हो मुझे?” शेखर चुप रहा और अपना आलिंगन और मज़बूत कर दिया। किसी तरह साँस भरते हुए शुभ्रा ने प्रश्न दोहराया। शेखर ने कहा, “क्यों परखना चाहती हो मुझे, आज इतने वर्षों बाद? बोलो क्या दूँ तुम्हें विश्वास दिलाने के लिए?”
शुभ्रा ने नम आँखों से शेखर को चूमते हुए कहा, “तलाक़”।
– शुचि भवि