ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
अगर कट जाएँ दो दिन भी ख़ुशी में
बहुत हैं चार दिन की ज़िन्दगी में
भुला कर सारी रंजिश रोइए न
यही करते हैं अक्सर रुख़सती में
परेशां हूँ, बहुत हैरान हूँ मैं
मुझे साये ने छोड़ा चाँदनी में
हमें सुरख़ाब के पर लग गये हैं
मज़ा ही और है दीवानगी में
समंदर से अलग बहती है कल-कल
घमंड इतना है देखो इस नदी में
अँधेरे रूह के मैं कैसे देखूँ
बदन है क़ैद मेरा रोशनी में
ख़यालों के कई नायाब हीरे
छुपा रक्खे हैं मैंने डायरी में
***********************
ग़ज़ल-
है छाई बेसबब दिल पर उदासी
तो क्या हमको मोहब्बत हो गई जी
कभी हो, राह मैं भी भूल जाऊँ
बुलाये चीख कर अंदर से कोई
कभी रोशन, कभी तारीक़ दुनिया
तुम्हें भी क्या कभी लगती है ऐसी
ज़ज़ीरे की तरह है ज़िन्दगी अब
उभरती डूबती रहती है ये भी
मेरे सर पर है साया बादलों का
ज़मीं पैरों के नीचे आग जैसी
सदा मेरी कहाँ सुन पाएँगे वो
जिन्होंने ज़िन्दगी भर जी ख़मोशी
अभी तक ख़्वाब कुछ ज़िंदा हैं लेकिन
मेरी आँखों से शायद नींद खोई
– श्रद्धा जैन