भाषांतर
शहर के कुकुरमुत्ते
(मूल रचनाकार- इटैलो कैल्विनो)
सुदूर जगहों से शहर में आने वाली हवाएँ कभी-कभी अपने साथ कुछ अजीबो-गरीब सौगातें लेकर आ जाती हैं, इसका भान लेकिन कुछ अति-संवेदनशील प्रकृति के लोगों को ही हो पाता है- जैसे दूर-देश के फूलों से उड़ा कर लाए गए परागकणों के नाक में जाते ही छींकते-छींकते बेदम हो गए और फिर परागज-ज्वर के लपेटे में आ गए लोगों को!
एक रोज यूँ ही भगवान जाने कहाँ से चली आ रही हवा के एक झोंके ने शहर के मुख्य मार्ग के आजू-बाजू की सुखी ज़मीन की पतली-सी पट्टी पर अपने साथ लाए गए ढेर सारे बीजाणु छितरा दिए, जिनमें से फिर कुछ ही दिनों के बाद कुकुरमुत्ते अंकुरित होने शुरू हो गए। किसी का भी ध्यान उस तरफ न गया, सिवाए मार्कोवाल्डो नामक उस कामगार के, जो रोज काम पर जाने के लिए अपना ट्राम ठीक वहीं से पकड़ा करता था।
अब मार्कोवाल्डो नामक इस शख्स की निगाहें तो शहरी जीवन के लिए बनी ही न थी; सड़कों के किनारे ऊँचे-ऊँचे खम्भों पर लगे विशाल विज्ञापन-पट्ट, ट्रैफिक-लाईट्स की चकाचौंध, दुकानों की खिड़कियों में सजाई गई चीजें और शोकेस, रंग-बिरंगी नियोन-पट्टिकाएं, चमकीले और खूबसुरत इश्तिहार आते-जाते लोगों की निगाहों को अपनी ओर खींच पाने के उद्देश्य से चाहे कितनी ही खुबसूरती से क्यों न बनाई और लगाई गई हों ये सब चीजें, क्षण-भर के लिए भी मार्कोवाल्डो की निगाहों का मरकज न बनने पाती थीं और सरसराती हुई इन चीजों के ऊपर से यूँ गुजर जाती थीं मानो किसी वनस्पतिविहीन रेतीले विराने के उपर से। लेकिन हाँ, असम्भव था कि उसकी आंखों से बच पाए डाल से लगी वो एक पत्ती जो पीली-पड़ती जा रही थी। एक चिड़िया का पंख जो किसी छज्जे की खपड़ैल में दबा हुआ था। घोड़े की पीठ पर एक घुड़मक्खी जो उसे परेशान कर रही होगी। लकड़ी के फट्टे में दीमकों का किया महीन से महीन सुराख। सड़क के किनारे फुटपाथ पर जाने कितने पांवों के तले कुचला गया एक पके-अंजीर का छिलका: कोई भी चीज ऐसी नहीं थी जिसे उठे जिसके बरअक्स कोई उसने टिप्पणी न दी हो…अपना कोई मौलिक विचार न दिया हो। और यूँ ही कटते जाते थे शहर में मार्कोवाल्डो के दिन, बदलते मौसम का मिजाज भांपते हुए। अपने दिल में दबी सुप्त-अपूर्ण लालसाओं को आंकते हुए। अपनी उस दयनीय-सी जिंदगी की परेशानियों के बारे मे सोचते-विचारते हुए।
ऐसे ही एक सुबह मार्कोवाल्दो श्वाव एंड कo, जहां वह एक गैर-कुशल कामगार के तौर पर काम पर लगा हुआ था, को जाने वाली अपनी ट्राम की प्रतीक्षा में खड़ा था, जब उसे बस-पड़ाव के इर्द-गिर्द की जमीन पर कुछ असामान्य-सा नजारा दिखा; उस सुखी, पपड़ीआई-हुई हुई कच्ची-जमीन की सड़क-किनारे लगे पेड़ों की कतार की सीध वाली उस पतली-सी पट्टी पर पेड़ों की जड़ों से लगी हुई भूमि के अंदर से सतह के उपर झांकते हुए कुछ सफेद गुमड़ नजर आए; और यहां-वहां जमीन की पपड़ी को फाड़कर आधे-से ज्यादा सतह के उपर आ गई हुई गोल सफेद गेंदें।
उन्हें नजदीक से देख पाने के लिए मार्कोवाल्दो अपने जूते का तस्मा बांधने के बहाने नीचे झुका; और पाया कि वो गूमड़ और कुछ नहीं, बल्कि सफेद, गोल, मुलायम गेंदों की तरह जमीन के नीचे से प्रस्फुटित हो रहे मशरुम थे… शहर के ऐन बीचोबीच स्थित जमीन में उग आए मशरुम! मार्कोवाल्दो को अपने चहुंओर की वह सर्वथा नीरस, कष्टप्रद दूनिया, प्रच्छन्न दौलत की ढेरों सम्भावनाओं से भरी-भरी-सी लगने लगी; यानि जीवन से अभी भी कुछ आशा और अपेक्षा की जा सकती थी– कार्य-घंटे की दर से उसे मिलने वाली नियत मजदूरी तथा महंगाई, परिवार के भरण-पोषण तथा जीवन-निर्वाह की मदों में मिलने वाले भत्तों के अलावा।
कम्पनी में आज काम के दौरान मार्कोवाल्दो सामान्य से ज्यादा अन्यमनस्क था; पूरे दिन उसके दिमाग में बस यही एक ख्याल हड़बोंग मचाता रहा कि उस समय जबकि वह वहां बोरियों और बक्सों को इधर से उधर चढ़ाने-उतारने में लगा था, उधर एक जगह जमीन की सतह पर सुखी मिट्टी की पपड़ियों के ठीक नीचे के नीम-अंधेरे में, कहीं-कहीं सतह की मिट्टी को तोड़ती हुई बाहर झांक रहीं, बड़े आराम और शांति से मशरुम की ढेरों सफेद गेंदें, जिसके बारे में सिर्फ उसे ही मालूम था, अपनी कोमल, झिरझिरी और गूदाज गोलाईयां जमीन के नीचे से आर्द्रता और लवण चूस-चूस कर परिपक्व होती जा रही थीं। “बस एक रात की बारिश काफी होगी,” मन ही मन उसने कहा, “फिर वे गोले लोढ़े जाने के लिए तैयार ही समझो!” वो अपनी यह खोज बीबी और छह बच्चों के अपने परिवार के साथ साझा करने को बेताब था।
“कह रहा हूं न मैं।” महज नाममात्र के रात्रि-ब्यालू पर बैठे अपने पूरे परिवार के समक्ष उसने घोषणा की, “बस सप्ताह भर के भीतर ही हम मशरुम की दावत करने वाले हैं! मस्त मशरुम-मसाला! पक्का वादा।”
नन्हें बच्चों को, जिन्हें पता नहीं था कि मशरुम क्या है, उसने अत्यंत उल्लसित वाणी में मशरुम की कई किस्में और उनके रंगरूप की खुबसूरती, उनके अलग-अलग स्वाद और सुवास एवं उनमें से प्रत्येक की अपनी अलग-अलग बारिकियां, और उन्हें बनाने और पकाने की बहूतेरी भिन्न-भिन्न विधियां के बारे में बताया; और यूं उसने अपनी बीबी दोम्तेल्ला, जो कि इस बारे में अब तक हुई बात को संदेह और बेध्यानी के भाव में ही लेती रही थी, को भी इस परिचर्चा मे घसीट लिया।
“लेकिन हैं कहाँ ये मशरूम?” बच्चों ने पूछा। “बताओ, पापा… उगे कहाँ हैं ये आखिर?”
लेकिन इस प्रश्न को सुनते ही मार्कोवाल्दो के उत्साह पर मानो संशय का घड़ों पानी पड़ गया, इस सोच में कि: बच्चों को उस जगह के बारे में बता दिया, तो वे फिर अपने पूरे झुण्ड के साथ-साथ ही जायेंगे, और बात अड़ोसिओं-पड़ोसिओं से फिर पूरे मोहल्ले में फैल जाएगी, और फिर हो सकता है कि वे मशरूम उसके घर की बजाए किसी और घर की कड़ाही में तले जाने को पहुँच जाएँ। और इसलिए उसकी इस खोज, जिसने उसके ह्रदय को अभी तक सार्वभौमिक-प्रेम के अतिरेक से भर रखा था, ने अब उसके ह्रदय को प्रचुर ईर्ष्या और शंका से सिक्त करते हुए, एक अतिशय मालिकाना-भावना से भर दिया।
“मैं जानता हूँ कि ये मशरूम कहाँ हैं, और ये बात सिर्फ मैं ही जानता हूँ,” उसने बच्चों से कहा, “और भगवान् ही बचाए यदि तुममे से किसी ने इसका एक शब्द भी उचरा किसी और के सामने तो।”
अगले दिन सुबह जब वह ट्राम-स्टॉप पर पहुँचा, मार्कोवाल्दो डर और शंका से भरा हुआ था। लेकिन जब उसे नीचे झुककर नजदीक से देखा तो पाया कि वे मशरूम न सिर्फ ज्यों-के-त्यों वैसे ही सुरक्षित थे, बल्कि यदि ज्यादा नहीं तो थोड़े-बहुत तो बढ़े ही थे।और अभी भी लगभग पूरी तरह से मिट्टी की पपड़िओं से ढंके हुए ही थे।
इसी अंदाज में नीचे झुके हुए वह अपनी उस फसल का मुआयना ही कर रहा था कि सहसा उसे महसूस हुआ कि उसके पीछे कोई है। वह तुरंत ही सीधा खड़ा हो गया, और यह दिखाने का अभिनय करने की कोशिश की मानों सबकुछ रोजाना की तरह ही सामान्य था। यह सड़क का सफाई-मजदूर था, अपनी काम वाली झाड़ू को जमीन पर टिकाये खड़ा, ध्यान से सीधे उसी की ओर देखता हुआ।
वह सफाई-कार्मिक, जिसके अधिकार-क्षेत्र अंदर ही वो जगह भी आती थी जहां पर मशरूम उगे हुए थे, एक लंबा और दुबला-पतला शख्स था जिसने नजर का चश्मा लगा रखा था। उसका नाम था एमादिगी। और बहुत दिनों से ही उसके मन में इस एमादिगी के लिए नापसंदगी के भाव के अलावा और कुछ भी न था; संभवतः नजर के उन चश्मों की वजह से जिससे वह सड़क-किनारे के फुटपाथों का मुआयना करते चलता था, उसपर प्राकृतिक जीवन की कोई निशानी ढूंढ पाने की कोशिश में ताकि उसे तुरंत अपनी झाड़ू से वहां से साफ़ कर सके।
उस दिन शनिवार था; और मार्कोवाल्दो ने उस दिन की अपनी आधी-छुट्टी के पूरे समय को अन्यमनस्क भाव से भूमि के उस टुकड़े के चारों ओर चक्कर काटते हुए ही बिताया… पूरे समय दूर खड़े उस सड़क-सफाई-कार्मिक पर एक आँख लगाए हुए, और मन-ही-मन इस बात का तखमीना लगाते हुए कि अब और कितना समय लग सकता था इन मशरूमों को वहां से लोढ़-कर ले जाए जाने योग्य तैयार हो पाने के लिए।
उस रात सच में ही बारिश हुई; और उन खेतिहरों की तरह, जो कि महीनों तलक सूखे और अकाल की निर्दयता झेलते हुए अचानक ही बारिश की पटर-पटर से चौंक कर उठ जाते हैं और फिर बारिश का नजारा देखते ही जिनके दिल बल्लियों उछलने लगते हैं, ठीक उसी तरह से मार्कोवाल्दो भी, पूरे शहर में अकेले बस वही, बारिश की पहली बूंदों के टपकने की आवाज के साथ ही बिस्तर पर उठकर बैठ गया और अपने परिवार को उल्लास-पूर्ण स्वर में जोर-जोर से पुकारने लगा: “अरे बारिश हो रही है… सचमुच की बारिश ही तो हो रही है!” और फिर वह बारिश की पहली कुछ बौछारों के गिरते बाहर से आती हुई मिट्टी और ताजे फफूंद की सौंधी महक को परम-संतुष्टि के भाव से अपने नथूनों में भरने लगा।
जैसे ही सुबह हुई… और संयोग से यह रविवार का दिन भी था, मार्कोवाल्दो ने पड़ोसी से उधार मांग कर लाइ गई एक टोकरी उठाई और अपने सभी बच्चों को साथ लेकर बस-स्टॉप की और दौड़ पड़ा। मशरूम ही मशरूम थे चारों ओर– अपने-अपने कमजोर-नाजुक तनों पर सीधे खड़े नीचे की गीली-मिट्टी से काफी उपर। “हुर्रे…”– सभी बच्चों ने एक समवेत स्वर में किलकारी भरी, और मशरूम चुनने टूट पड़े।
“देखो… देखो… पापा! बाप रे! कितने सारे बटोर लिए हैं वहां उस आदमी ने,” मिशेलिनो के कहने पर जब उसने अपनी नजरें उठाईं तो नजर आया एमादिगी– वहीँ उसके बिलकुल पास खड़ा एमादिगी, अपनी बगलों में मशरूमों से भरा हुआ एक थैला दबाये हुए।
“आह्हा! तो आप भी चुन रहे हैं इन्हें?” उस सफाई-कार्मिक ने मनो स्वगत में ही कहा! “तब तो ये जरूर खाने लायक ही होंगे! मैंने भी थोड़े-बहुत चुने तो हैं, लेकिन संशय में था कि ये खाने लायक हैं कि नहीं! बस थोड़ी ही आगे और भी ढेर सारे उगे पड़े हैं… इससे भी बड़े-बड़े! ओह… लेकिन अब जब जान गया हूँ कि ये खाए-जाने लायक हैं, तो तुरंत जाता हूँ अपने सम्बन्धिओं को बताने… वे वहां अभी तक उहापोह में पड़े इसी बहस पड़े हैं ये मशरूम घर ले जाने लायक हैं कि नहीं… नुकसान तो नहीं करेंगे!” और वह सरपट दौड़ लिया वहां से ताकि जल्द-अ’-जल्द अपने लोगों को ये खुशखबरी दे सके।
मार्कोवाल्दो तो अवाक ही था… इससे भी बड़े-बड़े मशरूम! और उसका ध्यान तक न गया उस ओर!… उसे ऐसी अनुभूति हो रही थी मानो कि एक अप्रत्याशित रूप से बम्पर पैदावार का खजाना महज उसकी चपंडूक-छाप बेध्यानी की वजह से ठीक उसकी आँखों के सामने से दुसरे लोग लूटे जा रहे थे।
कुछ पलों के लिए तो मानो क्रोध की उत्कटता ने उसे जड़वत ही कर दिया! लेकिन फिर, जैसे कि अक्सर होता भी है, उस प्रचण्ड क्षणिक व्यक्तिगत लालसा के मटियामेट होते ही उसके ह्रदय में असीम-उदारता का आवेग पैदा हो गया। दिन के उस समय बहुतेरे लोग अपनी-अपनी बगलों में अपने-अपने छाते दबाए हुए, क्योंकि मौसम का मिजाज अभी भी नम और अनिश्चित-सा ही था, अपने-अपने ट्रामों की प्रतीक्षा में खड़े थे! “हाँ आप, साहेबान! आप सब को ही कह रहा हूँ! क्या आपलोग आज मजे नहीं लेना चाहेंगे– मशरूम-मसाले का?” मार्कोवाल्दो ने बस-स्टॉप पर खड़ी हुई भीड़ को सम्बोधित करते हुए जोर से कहा! “बस यहीं पर ज़रा-सा आगे सड़क के इसी किनारे ही ढेरों मशरूम उगे पड़े हैं, पूरी तरह से लोढ़े जाने के लिए तैयार! यहाँ आइये… मेरे साथ; इतने सारे हैं कि हम सबों को काम-भर मिल जाएंगे!” और ऐसा कहते हुए वह तुरंत एमादिगी के पीछे ही लग लिया, और फिर उसके पीछे लग लिए स्टॉप पर खड़े लोगों में से कई और भी!
सभी के हिस्से में काम-भर मशरूम आ गए थे। जिनके पास थैले नहीं थे, उन लोगों अपने छातों उलटा खोल कर उसी में भर लिए! किसी ने सुझाया: “क्या ही अच्छा हो कि हम सब मिलकर एक सम्मिलित भोज का आयोजन करें, सब लोग साथ-साथ मजे लें इन मशरूमों का!” हालाँकि, शायद ही किसी ने इस सुझाव पर कान दिया था, क्योंकि अपने-अपने हिस्से का मशरूम लेकर सबने अपने-अपने घरों की ही राह पकड़ी!
लेकिन वह प्रस्तावित सम्मिलित भोज भी जल्दी ही हुआ, वास्तव में उसी शाम को, जब सारे-के-सारे वही लोग फिर से इकठ्ठे हुए पड़े थे– अस्पताल के एक ही वार्ड में, अलग-अलग बिस्तरों पर… जबकि सबों के पेटों को पम्प करके उसमें से सारे मशरूम निकाले जा चुके थे और डॉक्टर उन्हें फ़ूड-प्वाइजनिंग के खतरे से बाहर निकाल लाने में कामयाब हो चुके थे! और यदि ऐसा विषाक्त-भोजन ले चुके होने के बावजूद भी उनके हालात ज्यादा गंभीर होने से बच गए थे, तो इसका कारण बस यही था कि खाने वाले लोग ही इतने ज्यादा हो गए थे कि सबके हिस्से में आई अलग-अलग मात्रा काफी अत्यल्प ही पड़ी थी!
मार्कोवाल्दो के ठीक बगल में ही एमादिगी का भी बिस्तर लगा था… बहुत देर से वे दोनों एक-दुसरे को वितृष्णा और क्षोभ से घूरे ही जा रहे थे।
– राकेश कुमार