कथा-कुसुम
एहसासों के साये में
‘’हैल्लो!….कौन?…..कौन बोल……किससे बात करनी है?
‘’मैं…..मैं बोल रही हूँ….’’
मुझे धुंधला सा कुछ एहसास हो रहा है। स्मृति में उभरती हुई क्षीण सी ध्वनि मुग्ध कर रही है। मेहसूस हो रहा है कि चिर परिचित हैं। जो शरीर में भावावेश का रंगीन प्रकाशपुंज उत्पन्न कर रही हैं। मैं यह रहस्यमयी अनुभूति को समझने की कोशिश करता हॅूं ।
‘’…मैं…..मैं कौन?’’ जिज्ञासा बढ़ने लगी।
‘’कोई नाम तो होगा, आपका?’’
‘’हॉं है ना…..! आपका दिया हुआ।
‘’मरिचिका।‘’
……पलक झपकते ही सारे चित्र स्पष्ट होने लगे। स्मृति पटल पर मदमस्ती सी नृत्य करने लगे। मेरा पूरा अस्तित्व हवा में तैरने लगा–
……कई साल पहले के दृश्य ज्यों के त्यों आँखों में उतर आये। मैं किशोरावस्था मेहसूस कर रहा हूँ।
…..उन दिनों इतना विकास नहीं हुआ था। आज के समान इतनी सुविधाऍं भी नहीं थीं। आज की तरह रोजमर्रा के काम एक ही छत के नीचे नहीं हुआ करते थे। कुछ आवश्यक दैनिक कामों के लिये निवास से निकलकर कुछ निर्धारित अनुकूल स्थानों की शरण लेनी पड़ती थी, दिशा-मैदान के लिये। मरिचिका को घर-मौहल्ला पार करके कुछ दूर सुनसान झाडि़यों की ओट में आना पड़ता था।
इसी अवसर का लाभ उठाते हुये मैं घण्टों पहले, उसके मार्ग में अपनी अटाला साईकिल की चैन इत्यादि की मरम्मत के बहाने टकटकी लगाये उसके उदय होने की प्रतीक्षा करता रहता था। दूर से ही सही, उसकी एक झलक पाकर अद्भुत अनुभूति का एहसास होता था। सूरज डूबते हुये लालिमा बिखेर रहा था, तभी वह आती हुई दिखाई दी,—कुर्ती-सलवार पहने हुये, डुपट्टा गले में, जो उरोजों पर मचलता हुआ। ज्यों-ज्यों नज़दीक आती जाती, मेरे हृदय की धड़कन बढ़ती-घटती रहती। जैसे ही वह समीप आई……सुद-बुद खो बैठा। कुछ केशों के झुरमुट को पार करती हुई नशीली तीखी नज़रें मुझ पर बिखेरती हुई, मादक मुस्कान का तोहफा देकर, फर्राटे से आगे बढ़ गई। मैं अपनी निगाहों से उसे ओझल होते देखता रहा। मौन, मूर्तिवत्त!
यह सिलसिला दिन-प्रतिदिन कई महिने चलता रहा। ना मैं कुछ बोला, ना ही वह साहस की, मुँह खोलने का। मगर बेकरारी बराबर बनी रही। धरोहर की तरह।
……जब धैर्य की सीमा समाप्त हो गई, तब मुझसे रहा ना गया। हिम्मत जुटाकर बहादुरी दिखा ही दी…..जैसे ही वह करीब आई, मैंने एक पुर्जा कई तह में मुड़ा-तुड़ा उसके कदमों में उछाल दिया। वह कुछ पल के लिये ठिठक कर रूकी, एक तिरछी नर्म नजर मुझ पर गड़ा दी और झट से; वह पुर्जा झपट ली। कदाचित ऐसी ही स्थिति का वह इन्तजार कर रही हो!!
अब चैन मिला, मेरे दिल के गुबार प्रथम प्रेम-पत्र के रूप में उसके पास पहुँच गये। तीव्र प्रतीक्षा में लीन हो गया। कब कोई प्रतिक्रिया आयेगी। प्रताड़ना, क्रोध, नसीहत, चेतावनी, अपमान ना जाने किस रूप में जवाब आयेगा।
……सोचते-सोचते कई साल बीत गये। पुन: ना वह कभी दिखी; ना ही कोई संदेश आया। आज सारे सुहाने ज़ख्म हरे हो गये। व्याकुलता व जिज्ञासा उभर आर्इ। एक-एक पल प्रतीक्षा करना भारी पड़ने लगा।
आतुरता इतनी बढ़ गई कि सहन करना मुश्किल हो रहा है। आखिर मैंने रिटर्न काल कर ही दिया-मोवाईल की वेल तो जा रही है।
‘’हैल्लो…..!’’ उसकी आवाज आई। लेकिन मेरे ओंठ सिल गये। मैं कुछ बोल नहीं पा रहा, वह ही बोली, ‘’हैल्लो….कुमार…..कौन?…..कुमार बोल रहे हैं?’’
‘’हॉं….।‘’ मैंने अपने आपको सम्हाला, ‘’हॉं मैं कुमार बोल रहा हूँ। कहो कैसे फोन किया। इतने साल बाद! तुम तो अचानक ही विलुप्त हो गईं। कहॉं हो? कैसी हो? कुछ तो मालूम होता….? तिल भर भनक तक नहीं।‘’
‘’अरे-अरे…..तुमने तो फोन पर ही ताबड़तोड़ फायरिंग चालू कर दी।‘’ कुछ रूककर, ‘’तुम्हारी तरह मैं भी तुमसे पहली बार ही बात कर रही हूँ। अब तक हमारी बातें निगाहों में हुई है।
‘’तुम्हारा लम्बा इन्तजार शीघ्रातिशीघ्र समाप्त हो रहा है। मैं सबेरे-सबेरे; तुम्हारे नगर की स्टेशन पहुँच रही हूँ। शायद तुम्हारे निवास ना पहुँच पाऊँ। तुम्हें कष्ट देना चाहूँगी, तुम स्टेशन आ जाओगे?
‘’धन्य भाग्य! आता हूँ।‘’
स्टेशन पर ज्यादा चहल-पहल नहीं थी। कस्वानुमा शहर का स्टेशन भी छोटा ही होता है।
ट्रेन आने में पन्द्रह-बीस मिनिट शेष थे। कभी-कभी अल्प समय भी लम्बी प्रतीक्षा का एहसास करा जाता है।
ट्रेन प्लेटफार्म में इन्टर हो चुकी थी, मगर मुझे लग रहा है कि ट्रेन रूक क्यों नहीं रही है?
कुछ यात्री अपना-अपना सामान सम्हालते हुये प्लेट फार्म पर आ गये। मैं एक ही जगह पर खड़ा हुआ दायें-बायें- नज़रें दौड़ा रहा हूँ।
……कहॉं है….कौन सी बोगी है।
आश्चर्य! वह बिलकुल मेरे समीप खड़ी मुस्कुरा रही है। मैं भी झेंपकर मुस्कुरा तो दिया। मगर मेरा शरीर जड़ हो गया। कुछ क्षण तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि एक मुद्दत के बाद ऐसा भी हो सकता है।
‘’क्या सोच रहे हो कुमार!’’ चेहरे का तेज प्रफुल्लता; मुस्कान का मिश्रणयुक्त दिव्य लावण्य जबरजस्त आकर्षित कर रहा है,’’मैं वही हूँ!’’
‘’हॉं…हॉं!’’ चेतना लौटी मेरी!
सामान हाथ में लेकर हम गुमसुम स्टेशन से बाहर आ गए।
मैं सुबह की शॉंत समीर को चीरता हुआ कार दौड़ा रहा हूँ। हालात पर विचार करने की क्षमता नहीं है, शायद! मुझे लगा समय ठहर सा गया है।
……मरिचिका को सीधा घर ले जाता हूँ, तो अपने माता-पिता को क्या बोलकर परिचय कराऊँगा।
……वह भी तो नहीं पूछ रही है कि घर में कौन-कौन हैं। चुपचाप बैठी है। जैसे उसकी सारी उलझने सुलझ गर्इं हों। जैसे अब सुनहरे भविष्य की बुनावट कर रही हो।
निवास निकट आता जा रहा है। सन्नाटा अब भी टूट नहीं रहा है। जैसे दोनों सन्न रह गये हों। यकीन ही नहीं हो पा रहा है कि इतने सालों बाद हम यूँ मिलेंगें। कुछ कारण भी तो पता लगे कि वह अचानक यहॉं क्यों आ गई।
मैंने कनखियों से उसे देखा….उसकी आँखों में आँसू छलक रहे हैं। शबनम की बूँदों की भाँति। शायद उसने भी मुझे अपनी और देखते हुये मेहसूस किया है। परन्तु अब भी वह कुछ बोली नहीं। मुझे लगा, वह अपने अन्तर्मन में घुमड़ रहे किसी तूफान का सामना कर रही है।
बहुत साहस किया, मगर कुछ पूछ नहीं पाया, ना ही कुछ अंदाज लगा पाया। आखिर माजरा क्या है?
मैं अपने आप को कार ड्राइव में एकाग्र करने की कोशिश करता हूँ; मगर अनेकों सवालों के ज्वार-भाटा उठ रहे हैं। शंकाएँ….कुशंकाएँ फुफकार रही हैं। वह भी चुप है; मैं भी कुछ अशांत मेहसूस कर रहा हूँ। बहुत ही असहनीय स्थिति व्याप्त हो गई है। तभी एक चमत्कार जैसा हो गया….हम दोनों की निगाहें एक साथ परस्पर टकरा गईं। वह हंस पड़ी, ‘’कर दिया ना अचम्भित।‘’
‘’हॉं वह तो है।‘’ मैंने लम्बी सॉंस ली।
असल में, मांजरा शीघ्र-अति-शीघ्र जान लेने के लिये उत्सुक हूँ। वर्तमान ऐसा ठिठक गया कि ना पीछे जाते बन रहा है; ना ही आगे बढ़ पा रहे हैं!!!, ‘’कुछ कॉफी-चाय वगैरह….?’’ मैंने कार मंदी की।
उसने सर हिलाकर स्वीकृति दे दी।
कप उठाते हुये उसने बताया, ‘’वास्तविक कारण यह है….मेरे आने का….।‘’ फिर चुप! उदास; जमीन ताकने लगी।
‘’हॉं-हॉं….बताओ।‘’ मैंने उसे प्रोत्साहित किया।
लगा वह अपने दिमाग का पिटारा खोलना चाह रही है।
‘’मैं पूर्णत: तन्हा, निराश्रित, दिग्भ्रमित मेहसूस कर रही हॅूं। एक अव्यक्त सी बेचैनी ने मुझे अपने आगोश में कैद कर लिया है। मैं मुक्ती का खुला आसमान चाहती हूँ। मैं जीना चाहती हूँ कुमार….जीना….’’ मरीचिका रो पड़ी।
मैंने उसे ढांढ़स बंधाया, ‘’चलो फिलहाल घर चलते हैं।‘’
कार अपनी रफ्तार पकड़ रही है, मगर कसैलापन वातावरण में घुलता ही जा रहा है। कभी-कभी अनचाहे हालातों को भी सहन करना होता है।
जैसे ही मैंने द्वार में प्रवेश किया; वह भी मेरे पीछे-पीछे आ गई। मॉं-पिताजी ने बड़ी हैरत से पूछ लिया, ‘’कौन है ये…?’’
‘’मरिचिका….।’’ झट से मेरे मुँह से उसका नाम सुनकर दोनों मेरी और खास कर उसकी और टकटकी लगाकर देखते रहे। आगे कुछ पूछते मैंने ही स्पष्ट बोल दिया, ‘’ये मरिचिका है; अब अपने साथ ही रहेगी।‘’
वे समर्थन में सिर हिला कर, अपने दैनिक काम में लग गये। मगर मरिचिका अपने आप को रोक नहीं पाई। बहुत ही सम्मान व संस्कारी मुद्रा में उसने दोनों के पैर छू लिये। वे प्रसन्न होकर दुआएँ देने लगे।
मुझे लगने लगा कि घरेलू परिवेश काफी कुछ पारिवारिक छवि का आकार लेने लगा है। कुछ दिनों में मरिचिका एक बिछड़े हुये सदस्य की तरह पुन: घुलमिल गई। और सारे काम-काज अपनी गृहस्थी की तरह सम्हाल ली। घर का कौना-कौना उसका जाना पहचाना हो गया।
हृदय की कुछ गॉंठें खुलना शेष था। सम्भवत: समय के साथ वे भी ढीली होते-होते एक दिन खुल ही जायेगी। इस आस में दिन-प्रति-दिन बीतते जा रहे हैं।
स्वभाविक रूप से जुगनू अपनी प्रजातिगत विशेषता के कारण एक नन्हें सितारे की तरह चमकता है, तुरन्त ही अंधेरे में लुप्त हो जाता है। इसी प्रकार मेरे चारों ओर अनेक जुगनू चमचमा कर विलीन हो रहे हैं। जैसे जुगनू की जि़न्दगी ज्यादा नहीं होती, उसी तरह मुझे असमंजस से भरपूर मकड़जाल में दिमाग उलझा सा प्रतीत होता है। अनेकों प्रश्नों के अम्बार लगे हैं-मरिचिका से पूछूँ, कि ऐसे क्या हालात बने कि तुम्हें यहॉं आना पड़ा?
इतना तो तय है कि कुछ ऐसी घटना जरूर हुई है कि उसे यह अभूतपूर्व निर्णय स्वीकार करना ही श्रेयस्कर लगा।
उसके असाध्य दु:खों को कुरेदना मुनासिव नहीं लगता! इतना चिन्तन में था कि वह कब कमरे में आकर बिखरी किताबें रेक में जमाने लगी….पन्जे के बल उचक-उचक कर। सफल गृहणी की तरह!
वह अपने काम में तल्लीन है। मैं उसे देखे जा रहा हूँ-लम्बेबाल घटा समान, भरा पूरा सुदृढ़ शरीर, हवा में मादकता और भीनी-भीनी सुगन्ध घोलता हुआ।
‘’ये गम्भीर…..कशिश।‘’ उफ! उसने अपनी आँखों एवं आवाज की कशिश और खुशबू घोलकर वातावरण नशीला बना दिया। ये कैसा आकर्षण उत्पन्न हो रहा है। कहीं ये प्यार की कोंपल तो नहीं फूट रही !!!
‘’बेटा कुमार…।‘’
‘’हॉं मॉं….।‘’ कंधा करते हुये मैंने मॉं का प्रतिबिम्ब दर्पण में देखते हुये पूछा, ‘’कुछ मंगाना है? मार्केट से।‘’
‘’नहीं रे, सब तो है, सामान घर में।‘’ मॉं ने मेरी तरफ देखकर हल्के से आदेशानुसार लहजे में कहा, ‘’मरिचिका को भी साथ ले जा, घूम-फिर आयेगी तेरे साथ ।‘’ मॉं मेरे रू-ब-रू आकर कह रही है, ‘’उसका भी तो ध्यान रखना चाहिए।‘’ मुस्कुराते हुये।
…..जैसे मुझे अपराध बोध हुआ, ‘’हॉं-हॉं क्यों नहीं….।‘’ मॉं के कन्धे पकड़कर, मैंने उन्हें खुश किया, ‘’मरिचिका तैयार हो जाओ; चलते हैं।‘’
कार फर्राटे भर रही है। रोड खाली सा है।
‘’थोड़ा धीरे चलाओ!’’ मरिचिका ने मेरी ओर देखा और मुस्कुराने लगी, ‘’ऐसा लग रहा है, जैसे तुम मुझे भगाकर ले जा रहे हो।‘’
‘’जब भगाना था….।‘’ स्पीड कम करके मैंने उसकी ओर देखा।
अभूतपूर्व! वह मुझे एकदम नई-नवेली दुल्हन की तरह मेरी आँखों में समाती जा रही है। ग़ज़ब की दीप्ति है चेहरे पर, कार में मादकता घुलती जा रही है। आँखों में मदहोशी उभर रही है। अनायास ही कार बायें ओर मुड़कर रूक गई। हम दोनों के फासले बहुत कम हो गये, यहॉं तक कि एक दूसरे की तीव्र सांसें परस्पर आलिंगन करने लगीं; मौन।
कुछ पल चारों ओर नज़रें घुमाकर देखा और अपने अनुकूल स्थान पर निश्चित होकर बैठ गये। हरियालीयुक्त प्राकृतिक स्निग्धता में मुग्ध मेहसूस करने लगे। काफी कुछ समय मौन बीतने के बाद भी बातों का सिलसिला शुरू नहीं हो पा रहा था। दोनों एक-दूसरे से नज़रें चुरा रहे थे। आखिरकार आँखों में झांककर देखा, तो लगा अनेकों लहरें हिरनी की भॉंति छलांगें मार रही है। आशा व विश्वास की लालिमा ललायित कर रही है।
‘’ समय आ गया है कि….।‘’ मैंने वार्ता का सिरा थामा….कि अब हमें निर्णय या घोषणा कर देनी चाहिए कि हमारा आपस में रिश्ता क्या है?’’ मैं। घांस में तिनका ढूँढ़ने लगा।
‘’कहीं मैं तुम्हारे गले तो नहीं पड़ रही।‘’ मरिचिका ने उसे पूर्ण आत्मविश्वास से देखा। वह मन्द-मन्द मुस्कुरा रहा है।
‘’मैं तो…..।‘’ कुमार ने बेझिझक उसकी आँखों में आँखें डालकर बताया, करीब सरककर बोला, ‘’मुझे तो मन मॉंगी मुराद मिल गई।‘’ रिलेक्स दिखा वह।
‘’मैं भी कभी भूल नहीं पाई तुम्हें।‘’ गम्भीरता पूर्वक, ‘’हालातों ने मुझे इस कदर विषम परिस्थिति में पहुँचा दिया कि कोई आस की किरण दिखाई नहीं दी।‘’ मरिचिका की-
गम्भीरता और गहरी हो गई। कुमार ने उसके हाथ को अपने हाथों में थाम लिया। मगर वह बोलती ही रही, ‘’घनघोर काली घटाओं ने मुझे ऐसा घेरा कि मेरा अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया।‘’ मरिचिका अपनी डबडबाई आँखों से मुझे निहार रही है। वेवश। निसहाय। निरीह प्राणी की तरह।
‘’तो फिर….?’’ मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही वह बोल पड़ी, ‘’समय पलटा और मेरी सारी बाधाऍं चूर-चूर हो गई।‘’ जमीन ताकते हुये, ‘’ओर मैं एकदम अकेली दोराहे पर खड़ी हो गई। बोली, ‘’मैं मूर्तीवत् खड़ी रह गई। सामने अंधेरा ही अंधेरा था….बस!’’ वह जैसे हड़बड़ाकर खड़ी हो गई। जैसे ही मेरी चेतना लौटी; मेरी आँखों में तुम्हारी सूरत उतरने लगी। सम्पूर्ण व्यक्तित्व मेरी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ; एक शख्सियत के रूप में और मैं अविलम्ब यहॉं चली आई।‘’
‘’इसे कहते हैं टेलीपैथी।‘’ मैं भी खड़ा होकर उसके बाजू में बिलकुल पास आ गया, ‘’मैं जब भी शादी का ख्याल करता, तब ही तुम्हारे साथ गुजारे सारे पल व नजा़रे मेरे और जमघट लगाकर मुझे घेर लेते एवं मैं उन्हें अपने हृदय में समेटकर सहेज लेता, जो मुझे सही समय का इन्तजार करने में मददगार होते।‘’
‘’तो इन्तजार खत्म हुआ?’’
‘’हॉं हुआ ना!’’
‘’….कब?’’
‘’अभी-अभी !’’
‘’मैं समझी नहीं!’’
‘’समझ जाओगी।‘’ कुमार इठलाते हुये, ‘’जल्दी ही!’’
‘’लेकिन यह सस्पेन्स…..?’’
‘’तुमने कहा तुम अकेली हो ?’’
‘’हॉं, कुदरत के कहर ने मेरे रास्ते की सारी उलझनें घ्वस्त कर दीं।‘’
‘’तो फिर हम दोनों एक-दूसरे का सहारा बन सकते हैं।‘’ उसकी तरफ देखकर, ‘’अगर तुम एग्री हो तो!’’
‘’क्यों नहीं….।‘’ वह प्रफुल्ल होकर बोली, ‘’अन्धा क्या चाहे, दो ऑंखें।‘’
‘’मगर….।‘’
‘’हॉं बोलो क्या शंका है।‘’
‘’यही…कि कोई कानूनी सामाजिक या पारीवारिक समस्या तो नहीं आयेगी।‘’ कुमार कुछ गम्भीर हो गया। सोचने लगा।
‘’देखो कुमार।‘’ मरिचिका आत्मीयता से आत्मविश्वास भरे अन्दाज में बोली, ‘’मेरा तो कोई आगे-पीछे है नहीं।‘’ उसने खुलासा किया, ‘’किसी भी तरह की रूकावट आने की कोई सम्भावना लगती तो नहीं।‘’
‘’हॉं वह तो है।‘’ कुमार ने भी किसी संकल्प की तरह जोर देकर कहा, ‘’किसी सर्वमान्य व्यवस्था के अन्तर्गत हम एक-दूसरे को अपनाते हैं, तो किसी को क्यों शिकायत होने लगी।‘’
कुमार-मरिचिका ने मॉंता-पिता के चरण स्पर्श करके अपनी मन्शा व्यक्त कर दी।
उन्होंने दोनों को अपनी बाहों में भरकर स्वीकृति दी। खुशी के आँसू छलक आये।
कोर्ट मैरिज के बाद मॉंता-पिता ने उन्हें शुभाशीष के साथ नये गृहस्थ जीवन की शुभकामनाएँ दी।
गले की मालाएँ उतारते हुये जब वे अपने रूम में आ गये, तब मरिचिका ने कुमार के पैर छूना चाहा, मगर कुमार ने उसे अपनी बाहों में थामकर, ‘’तुम्हारी जगह मेरे दिल में है।‘’ दोनों आलिंगनबद्ध हो गये। संयुक्त स्वर दोनों का गूँज उठा, ‘’खो जायें…एहसासों के साये में…।‘’
– राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव