लेख
पुरुष वर्चस्व बनाम नारी अस्मिता: प्रेम नारायण
भारतीय समाज शुरू से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है। इसलिए घर–परिवार और समाज पर पुरुष का ही वर्चस्व हमेशा से रहा है। उसकी सत्ता को एक लंबे समय तक चुनौती देने वाला कोई नहीं था। एकछत्र राज्य को भोगने के बाद जब उसकी सत्ता पर खतरा मंडराने लगा तो उसे उसकी चिंता होने लगी। खतरे से निपटने की लिए उसने बहुत ही सोच-समझ कर नियमों में परिवर्तन कर व्यवस्था को अपने अनुरूप करने का प्रयास किया। इसके लिए बहुत से ग्रन्थों, स्मृतियों आदि की रचना की गयी, जिनके माध्यम से तथाकथित नैतिकता और मूल्यों की बात करके नारी को बंधन में बांधने का प्रयास किया जाने लगा। प्रकृति का एक नियम है कि जो चीज कभी नीचे रहती है, उसे एक दिन ऊपर आना पड़ता है और ऊपर वाली को नीचे। जब दलन की सारी हदें पार हो जाती है तब स्व-अस्तित्व का प्रश्न उठता है और वहीं से संघर्ष की शुरुआत होती है।
‘दलित’ शब्द की बहुत सारी व्याख्याएँ की जा चुकी हैं, बहुत सारा विमर्श भी किया जा चुका है। ‘दलित’ को हमेशा से ही जाति के आधार पर विमर्शित किया गया परंतु यदि हम देखें तो सबसे ज्यादा यदि किसी का दलन हुआ है तो वह नारी का ही हुआ है। यह दलन न केवल हमें भारतीय समाज में देखने को मिलता है बल्कि विश्व के हर समाज में हम नारी को शोषित और दलित अवस्था में पाते है। इस मामले में सारे विश्व के पुरुष समाज की सोच लगभग एक सी ही रही…नारी का हर स्तर पर शोषण। समूचे विश्व पटल पर यदि दृष्टिपात किया जाये तो हम पाते हैं कि लगभग विश्व के हर समाज में नारी की स्थिति दोयम दर्जे की रही है। यही स्थिति उनकी दुर्दशा का कारण है। इसलिए मेरी दृष्टि में यदि कोई सबसे बड़ा दलित है, तो वो है नारी और उसमें भी भारतीय नारी।
प्राचीनकाल में नारी को समाज और परिवार में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। उसे कई प्रकार के अधिकार भी मिले हुये थे। अपाला, घोषा जैसी विदुषी नारियां थी जिन्होंने वेदों की रचना में अपना अतुलनीय सहयोग दिया था। उनकी हर मामलों में सलाह ली जाती थी। नारी यहाँ चरणों की दासी नहीं थी बल्कि पुरुष की सहचरी थी, मार्गदर्शक थी। यही कारण है कि इस युग में उसे पुरुष की अर्धांगिनी का स्थान मिला हुआ था। परंतु धीरे–धीरे पुरुष का अहं उस पर हावी होने लगता है और वह स्वयं को नारी से श्रेष्ठ मानने लग जाता है। अपने अहं की संतुष्टि के लिए उसने नारी को विद्या से विहीन करने का कुचक्र रचा क्योंकि वह जानता था कि विद्याविहीन होने पर ही वह नारी को अपने अधीन रख पायेगा। इसलिए उसे महानता और त्याग की देवी बनाकर घर रूपी मंदिर में प्रतिस्थापित कर दिया और घर परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी देकर उसे हमेशा के लिए उलझा दिया। यहीं से नारी का स्वर्णिम समय अंधकार के गर्त में जाना शुरू होता है।
एक ओर जहाँ नारी को समस्त शक्तियों के केंद्र में रखा गया था, उसे शक्ति के पर्याय के रूप में देखा जाता था, धीरे-धीरे शक्तिहीन कर पुरुष के ऊपर निर्भर बनाने का प्रयास किया जाने लगा। महाज्ञानी शंकराचार्य जब एक नारी से शास्त्रार्थ में हार जाते हैं, उसका सामना नहीं कर पाते, तब अपने अहं को बचाने के लिए उन्हें कहना पड़ता है कि- ‘द्वारं किमेकम् नरकस्य?- नारी।’ अर्थात नर्क का द्वार कौन है? तो वे बड़े ही शान से कहते हैं– नारी। परंतु शायद वह यह भूल गए थे कि वह नारी ही थी जिसने उन्हें जन्म दिया था, पाला-पोसा था और योग्य बनाया था। वास्तव में यहाँ शंकराचार्य इतने दोषी नहीं हैं क्योंकि यह वह समय था जब पुरुष अपने आप को नारी का परमेश्वर मानता था और एक परमेश्वर अपनी दासी से पाई हुई हार को कैसे बर्दास्त कर सकता था? मनु तो नारी की स्वतंत्रता के घोर विरोधी बनकर सामने आते हैं।
पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्रश्य स्थाविरे भावे न स्त्री स्वतंत्राभमर्हती॥
(महाभारत अनु पर्व 20,14)
अर्थात् नारी को किसी भी हालत में स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए। इतना ही नहीं उन्होंने नारियों के चरित्र को पूर्णतया अविश्वसनीय बताया है। तुलसीदास ने भी कई जगह नारी की निंदा करते हुये उसे हमेशा ही पुरुषों के अधीन रहने के लिए कहा गया है। एक जगह वे नारी को पशु के साथ तुलना करते हुये उसे दण्ड का अधिकारी बताते है-
ढ़ोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।
(तुलसीकृत रामचरितमानस-सुंदरकाण्ड 148वाँ संस्करण गीता प्रेस पृ 751)
कबीरदास जो कि बहुत बड़े समाज सुधारक थे नारी निंदा से वे भी नहीं बच सके। वे नारी को ‘विष की बेल, मानते हैं और कहते हैं-
नारी की झाईं पडत, अंधा होत भुजंग।
कबिरा उनकी कौन गति, जो नित नारी संग॥
(कबीर-साखी)
मध्यकाल में तो नारियों की दशा और भी दयनीय हो जाती है। इस समय मुस्लिम शासकों का शासनकाल था। इस समय पर्दा प्रथा और अन्य कुप्रथाएँ महिलाओं पर डाल दी जाती हैं। अधिकांश महिलाओं का शोषण होता है। एक-एक पुरुष की कई पत्नियाँ होती हैं, जहाँ उनकी भूमिका केवल भोग्या के सिवाय कुछ नहीं होती। इस समय तक उनकी शिक्षा-दीक्षा लगभग समाप्त हो चुकी थी। घर की चारदीवारी में ही जीवन गुजारने के लिए मजबूर थी। बाल-विवाह और अनमेल विवाह जैसी परिस्थितियों में से उसे गुजरना पड़ता था। इतना ही नहीं, सती प्रथा जैसी अमानवीय परंपरा का भी उसे जबरन निर्वाह करना पड़ता था। न तो उसके पास कोई सामाजिक अधिकार थे और न ही कोई व्यक्तिगत।कुल मिलकर वह मात्र एक उपभोग की वस्तु बनकर रह गयी थी। ऐसा नहीं है कि यहाँ पर उसके मन में व्यवस्था के प्रति रोष नहीं था। रोष था परंतु पुरुष प्रधान समाज में उसकी आवाज को हमेशा दबा दिया जाता था।
आधुनिक काल में चूँकि भारत में ब्रिटिश शासन था और समूचे यूरोप में नारियों के अंदर चेतना और आत्म-सम्मान की भावना जागृत हो चुकी थी, अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गयी थी; इसलिए भारत में इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था। भारत के कई समाज सुधारकों ने शासन के साथ मिलकर इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया। पहली बार महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की गई और उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल करने का प्रयास किया गया। साहित्यकारों का भी ध्यान महिलाओं की स्थिति पर जाता है और जो नारी साहित्य में कभी गौण रूप में आती थी, अब वह केंद्र में आने लगी। कुल मिलाकर इस काल में महिलाओं को समाज के सामने स्वयं को स्थापित करने का अवसर मिलता है।
जैसे–जैसे नारी शिक्षित होती गयी, उसके अंदर अपनी अस्मिता और अधिकार की भावना भी जागृत होने लगती है। एक ऐसा दौर आता है, जिसमें महिलाएँ अपने अस्तित्व की खोज करना शुरू कर देती है। उसका एक सहज प्रश्न था कि पुरुष प्रधान समाज में उसकी अपनी क्या पहचान है? शादी के पहले पिता की पहचान, शादी के बाद पति की पहचान और पति के बाद पुत्र की पहचान ही क्या उसकी वास्तविक पहचान है? क्या उसका बेटी, बहन, पत्नी और माता बनकर त्याग, समर्पण और बलिदान की मूर्ति बन कर जीना ही उसके जीवन का लक्ष्य है? ये सारे प्रश्न उसे आत्म-मंथन करने के लिए विवश करते रहे। अंतत: उसे अपनी स्वयं की पहचान बनाने के लिए संघर्षरत होना पड़ता है, विरोधों का सामना करना पड़ता है। नारी के अंदर आए हुये इस परिवर्तन के आगे पुरुष को अपनी सत्ता खतरे में पड़ी हुई महसूस होती है और वह नैतिकता, सामाजिकता और धार्मिकता के उदाहरण देकर उसे फिर से दबाने की कोशिश करता है।
यहाँ पर हम बात नारी अस्मिता और पुरुष वर्चस्व की कर रहें है। अस्मिता का प्रश्न नारी के अंदर उठना स्वाभाविक ही है। जो नारी अपने जीवन का अधिकांश भाग सेवा और त्याग में लगा देती है और बदले में जब उसे तिरस्कार और अपमान मिले तो संघर्ष स्वाभाविक ही है। पुरुष वर्ग ने उसे कभी आभूषण और वस्त्र के मायाजाल में बांधा तो कभी रिश्तों की दुहाई देकर उसे घर की चारदीवारी में कैद किया। वर्षों उसे शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा और अशिक्षा के कारण भी वह अन्य अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पायी। परंतु जबसे उसे शिक्षा मिलनी शुरू हुयी, तब से वह अपनी अस्मिता की लड़ाई के लिए कटिबद्ध होती है। यहाँ भी उसका पुरुष वर्चस्व से संघर्ष होता है। पुरुष वर्ग ने कई प्रकार के नियम बनाकर उसे दूर रखने का प्रयास किया। कई प्रकार की भ्रांतियाँ फैलाई। उसे अबला कह कर काम और उत्तरदायित्वों के लिए अयोग्य साबित करने का कुचक्र रचा। इन सब कुचक्रों का सामना कर नारी ने अपने अस्तित्व का बोध कराया और उनके वर्चस्व को चुनौती दी। बात जब आरक्षण की चली तो महिलाओं ने भी अपने हक़ की लड़ाई लड़नी शुरू कर दी। हर स्तर पर उसने समाज और शासन को चुनौती दी और एक सीमा तक अपना हक़ पा लिया। आगे भी उसकी लड़ाई जारी है।
यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि महिलाओं की लड़ाई अपनी अस्मिता और सम्मानजनक स्थान को लेकर है न कि पुरुष वर्ग से और न ही वे उसे अपने से नीचा दिखाना चाहती हैं। वह केवल यह साबित करना चाहती है कि समाज में उसे लेकर अबला की जो छवि है, वह हटे और उसे भी बराबरी का दर्जा मिले। इस संदर्भ में नारीवाद, नारी-विमर्श और नारी सशक्तिकरण जैसे पहलुओं पर भी ध्यान देना जरूरी हो जाता है। नारीवाद एक विचारधारा है, जो नारी अस्मिता और उसकी पहचान के लिए संघर्ष करने की बात करती है, उसे पुरुष वर्चस्व की गुलामी से पृथक अपनी पहचान स्थापित करने को कहती है। नारी विमर्श नारियों की स्थिति पर चर्चा-विचारणा करता है और उसे मुख्यधारा में लाने का प्रयास करता है। नारी सशक्तिकरण नारियों को हर स्तर पर सशक्त करने की वकालत करता है और उसके लिए प्रयास भी करता है। आज के समय में ये तीनों अपने अपने स्तर पर नारियों को समता दिलाने के लिए, अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत हैं। साहित्य और अन्य क्षेत्र में महिलाओं ने नारी विमर्श को केंद्र में ला दिया है और इसी का परिणाम है कि सरकार और अन्य संस्थाओं को महिलाओं के हित में कार्य करने के लिए सोचना पड़ता है। यह केवल सामूहिक प्रयास और संघर्ष का ही परिणाम है कि कई राज्यों में स्थानीय चुनावों में महिलाओं को निश्चित सीमा में आरक्षण मिलना शुरू हो चुका है। ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद तक की यात्रा इसी संघर्ष का ही सुफल है। सेना में भी अब स्थायी सेवा की बात को उच्च न्यायालय भी मंजूरी दे चुका है। प्रशासनिक सेवाओं में भी महिलाएँ अपना सिक्का जमा चुकी हैं।
इस प्रकार अब धीरे-धीरे पुरुष वर्चस्व जो कि कभी हर क्षेत्र में हुआ करता था, अब कम होता जा रहा है। हर क्षेत्र में महिलाओं ने उनके वर्चस्व को चुनौती देकर अपने अस्तित्व का बोध पुरुष समाज को कराया है। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं रहा, जहाँ उसकी उपस्थिति न हो। आज की नारी अब अबला नहीं रही बल्कि सबला बनकर उभर रही है। कई-कई क्षेत्रों में तो वह पुरुषों से भी बहुत आगे निकाल चुकी है। अब वह सोच विदा लेने के कगार पर खड़ी नजर आ रही है, जहाँ केवल नारी को बच्चे पैदा कर उनकी देख–भाल और ताउम्र पुरुषों के चरणों की दासी बनकर चारदीवारी में रहने के लिए मजबूर किया जाता था। आज ‘नारी तू नारायणी’ कहने का समय आ चुका है, जिसके हाथ मे सृजन और प्रलय दोनों हैं।
– प्रेम नारायण