व्यंग्य
भयंकरजी का व्यंग्य लेखन!
भयंकरजी धीर-गंभीर आलोचक थे। मेरे जैसे लेखक से बात करना उनकी शान के खिलाफ था, लेकिन आलोचना की हालत खस्ता होने से न तो लेखक उन्हें पुस्तकें भेज रहे थे और न ही स्वप्रेरणा से लिखी उनकी आलोचना कोई पत्र छाप रही थी। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने आपको लाइमलाइट में रखने के लिए वे क्या करें? अंत में हारे को हरि नाम होता है। उन्हें लगा कि व्यंग्य का बाजार गर्म है और व्यंग्य के नाम पर कुछ भी लिखा जा सकता है। कुछ भी लिखकर ऊपर मात्र ‘व्यंग्य’ लिखा और हो गया व्यंग्य। इसी ख़याल से उन्होंने अपने आपको व्यंग्य की ओर उन्मुख किया और लिख मारा रेल्वे स्टेशन मास्टर की बेबसी पर व्यंग्य। व्यंग्य लिखने के बाद वे आ धमके मेरे पास। मैंने आश्चर्य से कहा- “प्रभो, यह उल्टी गंगा क्यों? मुझ अनाथ को बुला लिया होता आपने कष्ट क्यों किया?”
भयंकरजी थोड़े से हँसे और बोले- “शर्मा, कोई उल्टी गंगा नहीं बही। मुझे ही आना था इस बार तुम्हारे पास। तुम प्रतिभा के पुन्ज हो, यह देखो मैंने एक व्यंग्य रचना लिखी है। इसे पढ़कर बताओ कि यह ‘व्यंग्य’ बना या नहीं।’ मैंने कहा- “आपने ऊपर ‘व्यंग्य’ तो लिख दिया न! जहाँ तक पढ़ने का सवाल है, मैं आपकी व्यंग्य रचना क्या पढ़ूँगा। आप ठहरे मूर्धन्य और स्वनामधन्य आलोचक, आपको पता है एक अच्छी रचना कैसे लिखी जाती है। उसमें क्या गुण होेते हैं। उसका परफेक्ट साँचा आपके पास है, इसलिए मुझे शर्मिन्दा मत करिये। मैं रचना छपने के बाद तो आपकी रचना पढ़ सकता हूँ, लेकिन अप्रकाशित रचना पर कोई कमेंट करूं, यह मेरे जैसे छोटे लेखक को शोभा नहीं देता।” भयंकरजी ने इस बार विचित्र प्रकार का मुँह बनाया और दांत पीसने के बाद दिखावे की हँसी के लिए दो दांत दिखाये और कहा- “शर्मा तुमने व्यंग्य में शोहरत पाई है, मुझे पता है तुम बेबाक राय इस व्यंग्य रचना पर दे सकते हो।”
भयंकरजी के कथन पर मैं निरूत्तर हो गया। उनके हाथ से रचना लेकर मैंने उस तथाकथित व्यंग्य रचना को पढ़ा, एक पल सोचा और बोला- “यह द्विवेदी कालीन जैसा लेखन है भयंकरजी। मेरा मतलब यह व्यंग्य नहीं, स्टेशन मास्टर पर रेखाचित्र। उसकी बेचारगी का वर्णन है। आप इसे व्यंग्य क्यों कह रहे है ?’ भयंकरजी एक पल को पसोपेश में पड़ गये, फिर बोले-‘फिर इसमें व्यंग्य कैसे आ सकता है, व्यंग्य भी आये तो धारदार, ताकि छपते ही हाहाकार मच जाये।’
मैंने कहा-‘हाहाकार क्यों मचेगा, यह तो स्टेशन मास्टर की करूण कथा है। हिन्दी साहित्य में इस तरह का लेखन बहुत कम हुआ है। मेरी राय में आप पदों को लेकर उन पर चुन-चुन कर रेखाचित्र लिखें तो यह बहुत बड़ा काम होगा। पदों पर बहुत कम लिखा गया है। एकदम नवीन प्रयोग होगा आपका यह।’
‘शर्मा, मैं व्यंग्य की बात कर रहा हूँ। तुम रेखाचित्र को रो रहे हो, बताओं इसमें व्यंग्य कैसे नहीं आया। क्या रेल दुर्घटनाओं के लिए बेचारे स्टेशन मास्टर को दोषी ठहरा देना सरकार पर व्यंग्य नहीं है ? क्या स्टेशन मास्टर जो भागदौड़ करता है, वह उसकी दयनीयता को नहीं दर्शाता। मेरा सवाल तुमसे सिर्फ इतना सा है कि इसमें पैनापन कैसे आ सकता है।’ भयंकरजी ने मेरे सामने भयानक स्थिति पैदा की। इस बार मैंने दो पल के लिए सोचा और फिर कहा-‘आप इस ‘व्यंग्य’ रचना को सौ बार लिखिये, मैं समझता हूँ, तब तक तो पैनापन आ ही जायेगा, क्योंकि मैं इसमें पैनापन पैदा करने में असमर्थ हूँ।’
इस बार भयंकरजी लगभग चिल्लाये-‘तो मैं क्या तुम्हारे पास यहाँ सिर चटाने आया हूँ। पैनेपन के अभाव के कारण ही तो मैं तुम्हारे पास आया हूँ। तुम पैनापन पैदा करने में असमर्थ हो तो अब तक तुमने भाड़ झोंका है या व्यंग्य लेखन किया है ? मुझे छपने की कोई त्वरा नहीं है, लेकिन पहले यह एक कम्पलीट व्यंग्य रचना बननी चाहिए।’ मैं बोला-‘इसीलिए तो मैंने इसे सौ बार लिखने को कहा है।’ वे फिर बिलबिलाये-‘मैं जब बिना पढ़े पुस्तक समीक्षा लिखता हूँ तो यह रचना मैं सौ बार इस जन्म में तो लिख नहीं सकता। ऐसा करो यह रचना तुम अपने पास रखो, मैं सात दिन बाद आऊंगा, तुम इसमें पैनापन ला देना। मेरा मतलब री-राइट तुम्हें ही करना है।’ मैंने सहमकर कहा-‘आज्ञा शिरोधार्य, मैं देखता हूँ, लेकिन तब तक आप रेखाचित्र छाप कोई अन्य व्यंग्य रचना मत लिखना।’ वे बोले-‘मैं जब तक यह रचना परिपक्व नहीं बन जाती, तब तक किसी अन्य रचना के लेखन का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।’ मैंने फिर सहमकर पूछा-‘भरंकरजी एक बात बताइये, आप व्यंग्य लेखन की ओर उन्मुख कैसे हुये। आप तो आलोचक थे।’
भयंकरजी थोड़ा सामान्य होकर बोले-‘शर्मा एक आलोचक कुछ भी लिख सकता है। आलोचक के पास एक प्रखर दृष्टि होती है, जिनसे वह रचनाओं की नाप तोल करता है। तुम्हारे पास तो मैं केवल इसलिए आया था ताकि तुम्हारी गहराई को देख सकूं। दरअसल तुम दूर के ढ़ोल हो। लाओ मेरी रचना तुम क्या करोगे उसमें संशोधन या सुधार।
मुझे अब साफ दिखाई दे रहा है कि व्यंग्य लेखन की हालत खस्ता क्यों है ? तुम्हें व्यंग्य दिखाया तो तुमने उसे रेखाचित्र कहा। बहुत ही सतही दृष्टि है तुम्हारी। लिखने की तुम्हारी आदत भले ही हो, लेकिन तुम स्काॅलर नहीं हो।’ यह कहकर उन्होंने अपनी रचना उठाई और बोले-‘अब देखना व्यंग्य क्या होता है, नम्बर लगा दूंगा व्यंग्यों का। तुम उनसे सीखना कि व्यंग्य होता क्या है ?’ यह कहकर वे चले गये और मैंने पीछे से साष्टांग प्रणाम कर राहत की सांस ली। एक पल को मुझे लगा भी कि कहीं भयंकरजी के व्यंग्य लेेखन से मुझे तो कोई खतरा नहीं है, परन्तु मेरा मनोबल अपनी जगह कायम था।
– पूरन शर्मा