कथा-कुसुम
तुम्हारी माँ
बचपन से बापू को देखा था, हमेशा शराबी ही दिखे। कभी उनमें पिता की झलक दिखी ही नहीं। लम्बा क़द, मजबूत हाथ, झुके हुए कंधे, चाल लड़खड़ाती, हाथ में दारू की बोतल। यही थी मेरे बापू की पहचान।
जब भी उन्हें घर में प्रवेश करते देखता, मैं कांप उठता। आते ही वो माँ पर बरसते, गाली के साथ बातें करते। माँ सहमी-सहमी सी रहती, कभी बापू से उसे थप्पड़ भी खानी पड़ती। बस, बिलखते हुए वो एक ही बात कहती, “छोड़ दो, मत मारो!”
उस समय मेरा मन करता बापू को धक्के मारकर बाहर कर दूँ पर ऐसा कर नहीं पाता, वो पिता थे। माँ के ऊपर जब नज़र ठहरती, जैसे कोई साक्षात देवी हो। दिनभर पूजा करती, जो खाना बनाती पहले मुझे खिलाती फिर बापू को देती। अपने लिये क्या रखती, मैंने नहीं जाना। छोटी उम्र से यही सब देखा- पिता की दहशत और माँ का समर्पण।
बापू के बारे में जब भी माँ से कुछ पूछता; वो कहती, “तू अभी बच्चा है, जा बाहर खेल”। मेरा प्रश्न हर बार अनुत्तरित रह जाता। एक दिन बापू पीकर आये और मुझसे बक-झक करने लगे। दो थप्पड़ कस के जड़ दिये। देखते ही माँ रोटी बनाना छोड़, बेलन लेकर दौड़ पड़ी, बेलन से बापू के सिर पर प्रहार किया। जैसे उस दिन माँ की देह पर देवी सवार हो गई हो। कटे वृक्ष की तरह बापू गिर गये। सिर से लहू बह रहा था, शून्य नज़रों से वो मेरी ओर ताकने लगे। लेकिन माँ की आँखों में अभी भी नफ़रत भरी थी। फिर भी वो बापू के सिर से बहते लहू को साफ करने लगी।
मैंने बापू के क़रीब आना चाहा लेकिन माँ ने रोक दिया। मेरी तरफ देखकर बोली, “इन्हें मैं अकेले संभाल लूँगी, जा पढ़, जिंदगी संभाल। तेरे बापू का साया मैं कभी तुझ पर नहीं पड़ने दूँगी। हाँ, ध्यान से सुन ले… तुम्हारे बाप की पत्नी नहीं, मैं तुम्हारी माँ कहलाना चाहती हूँ।”
मैं विचारशून्य खड़ा; माँ को देखता रहा। मुझे लगा, माँ बोलेगी, “अभी तू बच्चा है, जा खेल बाहर।”
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रील बनाम रीयल
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ हॉल की सारी बत्तियाँ एक साथ जल उठीं। “कमाल का रोमांस, बिलकुल अमिताभ और रेखा की जोड़ी।” एक साथ कई आवाज़ें दर्शक-दीर्घा से आयीं।
“अरे, चल रहा होगा दोनों में रोमांस। थियेटर-सिनेमा में काम करने वाले लोगों के लिए प्यार की परिभाषाएँ कुछ अलग होती है। जहाँ जिससे मिले, दोस्ती प्यार में बदल गयी। पति-पत्नी कहने भर के लिए होते हैं। यूज़ एंड थ्रो वाला हिसाब-किताब, हा..हा..हा।” फिर से कुछ तेज आवाज़ें मेरे कानों में गर्म सलाखों की तरह चुभने लगीं।
लोग भी अजीब होते हैं, अपना टेंशन दूर करने रंग-मंच का जी भर रसास्वादन करते हैं। पर जैसे ही पटाक्षेप होता है, इनके रंग बदलते देर नहीं लगती। लग जाते हैं नायक-नायिका की बखिया उधेड़ने। जैसे ख़ुद दूध के धुले हों!”
मैं, साथी कलाकार (रोहित) के साथ, खचाखच भीड़ से अपने को बचाते हुए हॉल से बाहर निकल आयी। सीधे पार्किंग में लगी गाड़ी की तरफ आगे बढ़ ही रही थी कि रोहित ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, “रुको, मुझे अभी तुमसे कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं।”
“नहीं रोहित, जल्दी से घर पहुँचना है।” मैं अपना हाथ खींचते हुए बोली।
“प्लीज, दो मिनट रुक जाओ।”
“अच्छा, जल्दी से बताओ।”
“मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।” रोहित ने झट से अपने दिल की बात सुना डाली।
“तुम्हारा दिमाग़ तो नहीं ख़राब हो गया है। रोहित, रील लाइफ और रीयल लाइफ में बहुत अंतर होता है। पता है न! शादी में दोनों परिवारों को जुड़ना पड़ता है?”
“हाँ, सब पता है। मेरे परिवार में सिर्फ मैं हूँ और मेरी माँ। माँ से तुम पहले ही फंक्शन्स में कई बार मिल चुकी हो|”
“और मेरे परिवार में? मैंने तो तुम्हें ‘विधवा हूँ’ सिर्फ इतना ही बताया था न! और कुछ भी तो नहीं?”
“अरे, मैडम जी मुझे सब पता है। तुम्हारे ड्राईवर से तुम्हारे बारे में मैंने सबकुछ पता कर लिया है। तभी तो मैं तुमसे बेहद प्यार करने लगा हूँ। तुम्हारी एक अपाहिज बेटी भी है। उसी के इलाज के लिए तुम ये सब कर रही हो।” रोहित मुस्कुराते हुए बोला।
मैं ठगी-सी रोहित को देखने लगी और वो अपलक मुझे।
जाने से पहले एक बात तुम्हें बताना चाहता हूँ, “मुझे अपनी संतान की इच्छा नहीं है। हाँ, तुम्हारी बेटी का पिता कहलाना मुझे पसंद होगा। अब आगे निर्णय तुम्हारे हाथों में है।”
मैं अपलक रोहित को जाते हुए देख रही थी। आज वह आदमी कम, देवता अधिक नज़र आ रहा था।
– मिन्नी मिश्रा