कविता-कानन
महानगर मुस्कराता रहा
जब तक उसमें क़स्बा था
वह भी क़स्बे में था
हर चेहरा नूरानी था
फ़ासलों की झुलसाती बयार
और चिलचिलाती धूप का
स्वतः प्रवेश निषेध था
इस दिशा में
बावजूद इसके
अपनेपन की नर्म, मुलायम हरी घास
और रिश्तों के लहलहाते पौधों में
सपनों के मन मुताबिक फूल नहीं खिले उसके
सपनों के बेहतर बीज बोने
वह चला गया
क़स्बे को पगडंडी में बिठाकर
राजमार्ग की अंगुली थामे
अरसे बाद बाँहें फैलाए खड़ा था क़स्बा
ऊँड़ेल देना चाहता था स्नेह का ठंडा और मीठा जल
जड़ देना चाहता था एक आत्मीय चुंबन
लेकिन
उसके वजूद से सपनों के फूलों की विचित्र महक आ रही थी
जिसे उसके भीतर के महानगर ने सींचा था
निर्मम फ़ासलों के हवा पानी से
क़स्बा तकता रहा, महानगर मुस्कराता रहा
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भगदड़
वह किसी की रहनुमाई की मोहताज नहीं
और न किसी ताक़तवर साये की ज़रुरत है उसे
वह सरहदों से परे की चीज़ है
जैसे हवा, बादल, बारिश, सूरज, चाँद और परिंदे
वह किसी आतंकी शिविर का हिस्सा नहीं
ईदी अमीन, लादेन, अफ़जल, बग़दादी के वर्चस्व को
ठेंगा दिखाते आई है
चाँद, सितारों पर बस्तियां बनाने के
तसव्वुर में जीने वाले
उसके वजूद के आगे पस्तहाल हैं
नहीं हैं उसके पास मिसाइलें
तोप, मोर्टर, लांचर, रॉकेट, गोला-बारूद की
उसे कोई ज़रुरत नहीं
वह बे-आवाज़ है, बे-आवाज़ रहती है
धमाकों से उसका कोई रिश्ता नहीं
वह भीड़ के गर्भ में पलती है, बढ़ती है
जन्म लेती है, जवान होती है
भीड़ चाहे गांधी मैदान की हो, रामलीला मैदान की हो
पूरी जगन्नाथ की हो, अक्षर धाम की हो
पीटर स्क्वायर की हो
भीड़ के साथ ख़ामोश चलती है
भीड़ के साथ उठती है, बैठती है
और अपने तयशुदा वक़्त में
भीड़ को उदरस्थ कर लेती है
विडंबना तो यह है कि
आर्तनाद, हाहाकार के बीच
उसका वीभत्स अट्टहास भी कोई सुन नहीं सकता
– मार्टिन जॉन