कविता-कानन
यह कैसा बसंत?
एक सौंधी बयार
टकराकर जा रही थी
नथुनों से बार-बार
मन महक रहा था
तन चहक रहा था
कलरव का शोर
दे रहा बसंतागमन की
बधाई बार-बार
प्रतीक्षारत मेरे नयन गड़े थे
द्वार की ओर
तभी दस्तक हुई
जानती थी मैं कि
यह वही होगा जिसकी
प्रतीक्षा थी वर्ष भर से
तपाक से कुण्डी खोली
देखा तो रह गई दंग
पूछा कौन?
मैं बसंत
क्षत -विक्षत
लाल पुता हुआ चेहरा
बसंत!! तुम
बसंत की तो पीली आभा होती है
वह गदराया-सा
सुन्दर राजकुमार
कामदेव का अवतार
बस–बस
सुन रो पड़ा वह
निकलने लगे रक्त के अश्रु
डरा हुआ इधर-उधर देखता
बोला, “हाँ मैं तो वैसा ही था,
पर इन आतंकियों ने
किसी रंजिश का शिकार
मुझे ही बना डाला और
नोंच डाला मुझे बिना सोचे-समझे
मैंने कोशिश ही तो की थी
सबके मन में खुशियाँ फैलाने की
सबके दिलों को जोड़ने की
तुम तो जानती हो मैं तो किसी
जाति-सम्प्रदाय से जुड़ा नहीं
न ही मेरी माँ प्रकृति ने
किया दुराभाव किसी के साथ
सबसे किया एक जैसा व्यवहार
फिर पता नहीं क्यों
धूल-भरी आँधी की तरह वे आए
और नोंच डाला मुझे
अपना अस्तित्व जताने की होड़ में
कर डाला क्षत-विक्षत मुझे”
क्या कहती?
अपनी ही मनुष्य जाति के
इस जघन्य कृत्य को
कैसे सही ठहराती?
हम शर्मसार हैं
माँ प्रकृति! तेरे पुत्र को
नहीं दे पाए उचित सम्मान
बसंत तुम हार मत मानना
चले आना अगले वर्ष भी
शायद तब तक
मानव की सोच बदल जाए
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होली की हुडदंग
होली की हुडदंग में
पी ली ‘पी’ ने भंग
नाचन लगे ढोल-थाप पर
ले के सखी को संग
देख के उनके यह रंग-ढंग
हम तो भई रह गए दंग
हमने भी पकड़ा एक को
लगे नाचने उसके संग
देख कर हमें नाचते-गाते
किसी और के संग
उतर गई झटके-से
हमरे पियूजी की भंग
आए, पकड़ हाथ पूछन लगे
नाचोगी मेरे संग?
झटक कर हम बोले
नहीं, जाओ तुम उस सखी संग
माँगन लगे बार-बार माफ़ी
हम तुमसे ही लगवाएंगे रंग
गीले सौटुए से मारी मार
और मल दिया काला रंग
ऐसी रही हमारी होली
इस बेर पियू के संग
विश्वास नहीं अट्टहास करो
यह तो है सब होली के रंग
खेलें हमने आप सबके संग
बुरा न मानो होली है
– मंजु महिमा