कथा-कुसुम
कथा
मिसेज़ खन्ना ने घड़ी की तरफ देखा और चिंता से पति की ओर मुड़कर बोलीं,”कमाल है, पंडितजी ने बड़ी देर लगा दी । ज़रा फ़ोन मिलाइयए ना । कहाँ रह गए पतानहीं ।” मिस्टर खन्ना ने हाथ में पकड़ी हुई डिस्पोज़ेबल प्लेट्स वरुण को पकड़ाते हुए खाने की मेज़ पर रखने की हिदायत दी और तुरत-फुरत नंबर मिलाया । पंडित जी ने फ़ोन नहीं उठाया । मि. खन्ना विस्मित नैनों से अपनी धर्मपत्नी की ओर देखते हुए बोले, “पंडित जी फ़ोन ही नहीं उठा रहे हैं । चलो दुबारा मिलाता हूँ ।”
मिसेज़ खन्ना हैरान-परेशान होते हुए बोलीं, “हाँ जी , दुबारा मिलाइये। की गल हो गई है ? टाइम भी कितना हो गया है । सत्यनारायण जी की कथा के लिए पत्ते लाने वाले थे पंडित जी । पतानहीं, उन्हें याद है या नहीं । आधा घंटा ऊपर हो गया है ।”
खन्नाजी की माताजी नीले रंग का सूट पहने सोफे पर बैठी उनकी बातें सुन रही थीं । उनकी बातें काटते हुए बोलीं, “शैली, किसी दूजे पंडित नू बुला लै । होर किन्नी वेट करोगे?
मि. खन्ना बोले, “चाई जी ठीक कह रही हैं । ठहर, मैं शर्मे से पूछता हूँ, कोई और पंडित मिल जाए ।”
शैली बीच में बोली , “पर ……।”
अब मि. खन्ना थोड़ा चिढ़ते हुए बोले,”ओय यार, बिना केले के पत्तों के भी तो हो सकती है ना कथा । कथा ही तो पढ़नी है ना बस ।
चल तू चिंता ना कर । मैं फ़ोन लगाता हूँ ।
तभी फ़ोन की घंटी बजी । मि. खन्ना उछल पड़े ।
“ओय, पंडितजी का फ़ोन है ।”
दूसरी ओर से आवाज़ आई, “हैलो”
“हैलो पंडितजी, कित्थे रह गए तुस्सी ?”
“बस पन्द्रह मिनट में पहुँचते हैं, फिर बताते हैं । ज़रा एक मुसीबत आ गई है ।”
“हैं! कैसी मुसीबत ? मि, खन्ना के कान फ़ोन पर ही लगे हुए थे कि फ़ोन कट गया । वे कभी फ़ोन को देखते, कभी शैली को तो कभी माताजी को । फिर शैली की ओर मुड़े और चिड़चिड़ाते हुए बोले,” सारी दुनिया में यही पंडित मिला था तुझे । परेशान करके रख दिया है । अब कह रहा है, मुसीबत में हूँ, पंद्रह मिनट में आऊँगा । पतानहीं कौन सी मुसीबत की बात कर रहा है । हमें और मुसीबत में डाल रखा है ।
फिर दरी पर बैठे आगंतुकों को नज़रें घुमा-घुमाकर देखने लगे । वे काफी देर से उनकी बातें मूक दर्शक बनकर सुन रहे थे । ये सभी पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदार थे जो सत्यनारायण कथा में शामिल होने के लिए आमंत्रित किए गए थे । सभी भक्ति-भाव में डूबे हुए, सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित खन्नाजी की ख़ुशी में उन्हें बधाई देने आए थे ।
दरअसल , उनकी बेटी सलोनी इंजीनियर बन गई थी । मन्नत पूरी करने के लिए उन्होंने कथा रखी थी । सलोनी अपनी सहेलियों के साथ
सज-धजकर अपने कमरे में बंद होकर गप्पें मारने में व्यस्त थी ।
उसे इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि कथा कब होगी या पंडितजी समय पर क्यों नहीं पहुँचे हैं । वह कभी ठंडा लेने तो कभी
कुछ खाने का सामान लेने के लिए रसोई की ओर आती तो घर आए लोगों को नमस्कार कर देती और फिर अपने मित्रों के साथ अपने कमरे में बंद होकर मस्ती में खो जाती ।
माताजी को मेहमानों का ख़याल आया । उन्होंने शैली को चाय-ठंडा परोसने के लिए कहा । शैली ने भी फ़रमाबरदार बहू की तरह आज्ञा का पालन किया । ऊपरी तौर पर वह लोगों के साथ हँस-बोल रही थी पर मन ही मन पंडित जी को कोस रही थी ।
फ्लैट के सभी दरवाज़े-खिड़कियाँ खुले थे । वरुण ने माताजी के कहने पर हलके स्वर में जगजीत सिंह का भजन ‘हे राम,हे राम’ लगा दिया था । शायद ऐसा इसलिए करवाया गया होगा ताकि आने वालों का मकसद अंशतः सफल हो सके । धुप-बत्ती जलाकर ज़रा धार्मिक माहौल महसूस कराने की कोशिश भी कर ली गई । अब चाय-ठन्डे का दौर भी समाप्त होने को था । शैली बड़बड़ाने लगी । तभी धार्मिक प्रवृत्ति वाली उसकी एक पड़ोसन हंसिका भाभी बोलीं , “शैली क्यों परेशान हो रही हो ? दस मिनट और देख लेते हैं । नहीं तो घर से पुस्तक लाकर कथा पढ़ दूँगी ।” फिर बड़े गर्व से बोलीं , “वैसे भी हर पूर्णमासी को मैं सत्यनारायण की कथा खुद ही घर में करती हूँ । पंडित-वंडित को नहीं बुलाती ।”
घर के सभी सदस्य हंसिका भाभी को बड़े कृतज्ञ भाव से देखने लगे । घर वालों के डूबते दिल अब जैसे थोड़ा-थोड़ा सँभलने लगे ।
शैली बोली, “ठीक है भाभी । पंडित जी नहीं आए तो ऐसा ही करना होगा । थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया । सभी इंतज़ार कर रहे थे और धूप की खुशबू और भजन भक्तिमय वातावरण को शांति प्रदान करने की कोशिश कर रहे थे ।
पंद्रह मिनट कहा और पौना घंटा हो गया, पंडितजी न पहुँचे । शैली का दिल बैठने लगा । मन ही मन ईश्वर से हुई भूलों की माफ़ी माँगने लगी । शायद ये सब उसी के किन्हीं पापों का फल है ,ऐसा सोचकर सत्यनारायण जी की फोटो के आगे माथा टेककर अपने अनजाने गुनाहों की माफ़ी माँगने लगी ।
अन्दर से सलोनी माँ के पास आई और उसे रसोई में चलने को कहा । शैली यंत्रवत उसके साथ रसोई में आ गई । सलोनी ने नखरे दिखाते हुए कहा, “माँ पूजा-वूजा जल्दी निबटाओ ना । मैं अपने दोस्तों के साथ एक घंटे बाद मूवी देखने जा रही हूँ । अब सब अलग-अलग हो जाएँगे । पतानहीं फिर कब मिलेंगे । प्लीज माँ, जल्दी करो ।
“पर बेटा, पंडितजी तो अभी तक आये ही नहीं हैं । हम उनका इंतज़ार कर रहे हैं । घर में तेरे लिए ही तो पूजा रखी है और तू अब बाहर जाने की बात कर रही है । कहीं बाहर-वाहर नहीं जाना है आज । कल जाना बस ।”
सलोनी अपनी आँखें फैलाते हुए, सख्त आवाज़ में बोली, “मैंने पूजा के लिए नहीं कहा था । और हाँ, यदि पूजा रखी भी थी तो टाइम का भी तो कोई हिसाब-किताब होता है ना।”
दोनों ओर से फँसी शैली बेटी को अनदेखा किए रसोई से बाहर निकल आई और लगभग रोती हुई शक्ल बनाकर मि. खन्ना की तरफ देखा । उन्हें भी अपनी पत्नी के त्रस्त चेहरे को देखकर दया आ गई । वे हंसिका भाभी की ओर मुड़ते हुए हाथ जोड़कर बोले, “अब तक तो आए नहीं पंडितजी । आप ही पढ़ देंगी क्या कथा ?”
“हाँ,हाँ क्यों नहीं ? अभी घर से कथा की किताब ले आती हूँ ।” बड़ी ज़िम्मेदारी से कहती हुई वे गर्वित महिला भीड़ में अकस्मात ही आकर्षण का केंद्र बन गईं । बेडौल शरीर को बड़े जतन से धीरे-धीरे हिलाते हुए उठने का प्रयास करने लगीं ।
तभी लिफ्ट का दरवाज़ा किसी ने खोलकर जोर से बंद किया तो कई जोड़ी आँखें दरवाज़े से भीतर आने वाले दो पंडितों पर जम गईं । मिसेज़ खन्ना भी हैरान रह गईं कि कहाँ तो एक भी पंडित नहीं आ रहा था , और जब आए तो दो एक साथ ।
“ पंडित जी क्या हो गया था ? इतनी देर क्यों लगा दी ?”
उनके हाथ में केले के चार बड़े-बड़े पत्ते थे । पंडित भैरों ने अपने से छोटी उम्र के पंडित को पत्ते और कथा सामग्री सजाने के लिए कहा और खुद एक कुर्सी पर बैठ गए । पंडित जी भी परेशान से लग रहे थे । वे माता जी को नमस्कार करके बोले , “यजमान, देर से आने के लिए माफ़ी देदो, दरअसल भाभी ने हमें पत्ते लाने के लिए कहा था ।मंदिर के पीछे वाले बंगले में केले के पेड़ हैं, पर वहाँ के चौकीदार ने पत्ते देने से मना कर दिया था । फिर मैंने अपने चचेरे भाई शंकर को बुलाया । वे साथ आए दूसरे पंडित की ओर इशारा करके बोले । “इसे बाइक चलानी आती है । इन पत्तों के लिए हम काफी भटके । दो-चार जगह हमने पत्ते माँगे पर लोगों ने नहीं दिए अब हमने सोचा कि हम बिना किसी को बताए ही पत्ते तोड़ लेंगे । दो पत्ते ही तो चाहिए थे । शंकर दीवार कूदकर बंगले में घुस गया । इसने पत्ते तोड़कर मुझे पकड़ा दिए । मैंने वे पत्ते तुरंत भागकर दूर खड़ी बाइक पर बाँध दिए ।
जब काफी देर तक शंकर नहीं आया तो मैं वापिस बंगले की तरफ गया । वहाँ तो शंकर को गार्ड ने पकड़ रखा था । गार्ड ने उसे थप्पड़ भी मारे और पुलिस की धमकी भी देने लगा । जब हमने अपनी इज्ज़त का वास्ता देकर पुलिस को न बुलाने की विनती की तो उसने हमसे १००० रूपये धरवा लिए ।” कुछ देर तक सन्नाटा छाया रहा । सलोनी भी अपने मित्रों के साथ पूजा वाले स्थान पर आ गयी थी । उसे भी जल्दी थी । जल्दी से कथा निबटे तो वह आज़ाद हो ।
मि. और मिसेज़ खन्ना को समझ नहीं आ रहा था कि वे इस बात पर सहानुभूति प्रकट करें या उनके इंतज़ार में उन्होंने जो परेशानी झेली, उसके लिए उन्हें दो टूक सुनाएँ । खैर, पंडितजी ने सबको यथास्थान बैठने का निर्देश दिया और मंत्रोच्चारण आरंभ किया । शंकर तो बस जैसे भैरों पंडित का साथ देने आया था । वह मोबाइल के बटनों से खेलने में व्यस्त था । शायद किसी को बार-बार मैसेज भेज रहा था । पूजा विधिपूर्वक आरम्भ हो चुकी थी । सभी के ह्रदय मंत्रोच्चार की ध्वनि से भाव-विभोर होने लगे थे । भक्तिमय वातावरण पूरी तरह से सत्यनारायण जी को समर्पित हो चला था । माता जी तन्मयता से आँखें मूँदकर पूजा का आनंद ले रही थीं । पंडितजी मन्त्रों के बाद कथा पढ़ने लगे । सभी लोग दीन-दुनिया से परे एकाग्रता से कथा सुन रहे थे । अचानक कथा में व्यवधान पड़ा । मोबाइल की घंटी बजी । पंडित जी ने कथा रोककर शंकर से मोबाइल माँगा । वे ‘हैलो’ कहकर किसीको विवाह प्रसंग में काम आने वाली सामग्री की सूचि लिखवाने लगे । फिर पाँच मिनट के उपरान्त फ़ोन बंद करके शंकर की ओर बढ़ा दिया । सभी हैरान नेत्रों से पंडितजी की ओर देखने लगे। अब शायद उन्हें भी कथा में पड़ने वाले व्यवधान के बारे में कुछ महसूस हुआ । अपनी गलती पर पर्दा डालने के लिए खिसियानी सी हँसी हँसते हुए बोले, “फ़ास्ट फ़ूड का ज़माना है । आजकल सारे बिज़नस फोन पर ही होते हैं । यदि मैं फ़ोन न उठाता तो वे किसी और पंडित को नक्की कर लेते ।” फिर सत्यनारायण जी की फोटो की ओर क्षमा की मुद्रा में कान पकड़ते हुए कुछ बड़बड़ाए और कथा को पुनः ऐसे पढ़ने लगे, जैसे कुछ हुआ ही ना हो । कुछ लोग एक-दूसरे को अर्थपूर्ण नज़रों से देखकर मुस्कराए और फिर कथा सुनने में व्यस्त हो गए ।
खैर कथा समाप्त हुई । आरती भी ज़ोर-शोर से हुई माता जी ने शैली को दोनों ब्राह्मणों को आसन में बिठाकर भोजन करवाने के लिए कहा तो वे हिचकिचाते हुए हाथ जोड़कर माताजी की ओर मुड़कर बोले,
“माताजी, क्षमा करना । प्रसाद थोड़ा चख लिया है और थोड़ा घर के लिए बाँध लिया है । खाना हो सके तो बाँध दो । समय कम है । एक और जगह कथा करनी है । वैसे भी आज यहीं के लिए देर हो गई थी। अब तक तो मुझे दूसरी जगह पर भी कथा आरम्भ कर देनी चाहिए थी । माताजी क्षमा कर दीजिये । हमारी ज़िन्दगी भी व्यस्त हो गई है । आजकल पंडितगिरी में बहुत कम लोग रह गए हैं और फिर हमें सबका ध्यान रखना पड़ता है ।
अब प्रदक्षिणा विधि का समय था । मिसेज़ खन्ना ने दान में देने के लिए एक कुरता-पजामा रखा था और १०१ रूपए भी । परन्तु दूसरे पंडित को भी खाली हाथ नहीं भेज सकते थे । माताजी के निर्देशानुसार उन्हें भी ५०१ रूपए दिए गए । मिसेज़ खन्ना ने सलोनी को पंडितजी के पाँव छूने का इशारा किया । उसने पंडितजी का आशीर्वाद तो लिया पर आँखों ही आँखों में माँ को समझा दिया कि वह अपने दोस्तों के साथ बाहर जा रही है और बिना उनकी अनुमति की प्रतीक्षा किये मित्र मण्डली के साथ बाहर चली गई ।
पंडित भैरों मिसेज़ खन्ना की ओर ऐसे देखने लगे, जैसे उन्हें कुछ कहना हो । मियाँ-बीवी को समझ नहीं आया कि अब क्या बाकी रह गया है । पंडितजी जा क्यों नहीं रहे हैं ?
“कुछ कहना चाहते हैं आप पंडित जी ?” खन्ना जी ने पूछा ।
“यजमान ! आपके लिए जो केले के पत्ते लाये थे, उनका जुरमाना १००० रूपए मैंने अपनी जेब से भरा था । बस वही…।”
खन्ना जी ने इशारा समझते हुए रूपए उनकी ओर बढ़ाए ।
“धन्यवाद” कहकर संतुष्ट भाव से दोनों हथेलियाँ ऊपर की ओर खोलकर आशीर्वाद की मुद्रा में उन्हें देखा और फिर दरवाज़े की ओर मुड़े । कुछ ही पल में वे लिफ्ट से नीचे चले गए ।
सबने प्रसाद खाया । नाश्ता-पानी लिया और फिर विदा ली । उनकी दो पड़ोसनें हंसिका भाभी और शीतल भाभी माताजी के पास आकर बैठ गईं । कमरे में शांति सी फ़ैल गई । मियाँ-बीवी भी वहीँ आकर बैठ गए और प्रसाद खाने लगे ।
माताजी के चेहरे पर नाराज़गी के भाव थे । हंसिका भाभी बोलीं, “कमाल है! बड़ी महँगी पड़ी आपको ये कथा भाभी ।” शीतल भाभी भी बोलीं,“१००० रूपए में पड़े आपको केले के चार पत्ते । आपको यकीन है कि पंडितजी सच बोल रहे थे ? हो सकता है , पैसे ऐंठने के लिए उन्होंने झूठ बोला हो ।
थके हुए मि. खन्ना शांति से उनकी बातें सुन रहे थे और मिसेज़ खन्ना ठगी हुई मुद्रा में बड़ी मासूमियत से बोलीं, “ पता नहीं, क्या सच है और क्या झूठ? कथा निबट गई, बस शांति हो गई है मुझे ।”
माताजी चिड़चिड़ाते हुए बोलीं, “ देख शैली ! आगे सी ऐसे पंडित को बुलाने से तो अच्छा है कि हंसिका की तरह घर में खुद ही कथा कर लो । बीच-बीच में मोबाइल बजे जा रहा था । उन्हें भी पता है न कि कोई उन्हें कुछ नहीं कहने वाला । और क्या कह रहा था वह पंडित कि पूजा-कथा अब उनके बिज़नस हो गए हैं तो फिर तो हमें भी वह कस्टमर से ज्यादा और कुछ नहीं समझता होगा । ऐसे लोगों का बस चले ना तो सारे शास्त्र और विधियाँ बदल डालें । असली पंडितों की लगता है आजकल कमी हो गई है ।
एक हमारा ज़माना था, जब कीर्तन करो या कथा, उसका पूरा सुख महसूस होता था । आत्मा को परमात्मा के दर्शन हो जाते थे । तब हर चीज़ में भाव छुपे होते थे और आज हर चीज़ पैसा और बिज़नस का दूसरा नाम बनकर रह गई है । भक्ति रस तो आज की कथा में शुरू से आखिर तक रत्ती मात्र भी ना मिला ।”
मि.और मिसेज़ खन्ना हारे हुए जुआरी की तरह एक-दूसरे को देखते रह गए ।
– कविता पन्त