कथा-कुसुम
कहानी- बचत
सड़ी गर्मी के बाद पावस ऋतु ने सुहानी बौछारों के साथ दस्तक दी। इस मौसम का आनंद लेते हुए अंकिता बैंक से घर तक पैदल चलकर आई थी। घर पहुँचते ही उसने साड़ी बदलकर पंखा धीमी गति में चलाया, ठंडा पानी पिया और बैंक की पास बुक हाथ में लिए बिस्तर पर औंधी गिर पड़ी। अतीत के चलचित्र में खो सी गई अंकिता। वह एक निजी विद्यालय में पढ़ा रही थी। पिछले ढाई वर्षों में 6,000 रुपए की पगार अब तक बढ़कर 10,000 हो गई थी।
उसने शुरू से ही बचत करनी शुरू कर दी थी। दरअसल 4 वर्ष पहले जब उसके पति पारितोष ने बॉस से तंग आकर इस्तीफ़ा दिया था, तब वह मात्र गृहिणी का जीवन जी रही थी और अपनी इकलौती बेटी के बचपन को सँवारने और गृहस्थी की देखभाल करने में समय बिता रही थी।
अचानक पति के इस तरह नौकरी छोड़ देने पर वह आहत तो हुई पर उसने धैर्य नहीं छोड़ा। साथ ही पति को भी यह कहकर भरोसा दिलाती रही कि एक दरवाज़ा बंद होता है तो कई और दरवाजे खुल जाते हैं। अब पहले से ज्यादा अच्छा होगा और मैं तुम्हारे साथ हूँ। मिलकर कुछ न कुछ कर लेंगे। दो-तीन महीने तो पारितोष ने जमा-पूँजी के सहारे गृहस्थी की गाड़ी खींची लेकिन जब पैसे ख़त्म होते नज़र आये तो वह टूटने लगा। यहाँ-वहाँ अपना बायो-डाटा भेजता पर कुछ ख़ास बात नहीं बन रही थी। अंकिता की हर कोशिश यही रहती थी कि इस चुनौती भरे समय में वह पति को हताश न होने दे। उसने बड़े अरमानों के साथ घर-खर्च में से बचाकर एक लाख रुपए बैंक में जमा किये
थे कि जब पारितोष घर खरीदेंगे तो उन्हें वह अचानक इतने पैसे देकर चौंका देगी। लेकिन समय की टेढ़ी चाल ने उसके अरमानों पर पानी फेर दिया था।
उसने एफ. डी. अपने पति के हवाले कर दी और खर्चों की चिंता न करने की सलाह दे डाली। अचानक इतने पैसों की मदद ने पारितोष के विचलित मन को ऐसी ठंडक दी जैसी तपती भूमि को पहली बौछार से मिलती है। अब तो वह पूरी तरह से अंकिता का क़ायल होता जा रहा था। पहले अक्सर वह उसका मज़ाक बनाता रहता था, परन्तु अंकिता के व्यक्तित्व का एक नया पहलू विवाह के इतने वर्षों के बाद उसके सामने आया था।
अंकिता अब उसे नई-नई और बेहद करीब महसूस होने लगी थी। भावुक क्षणों में उसने अंकिता से नौकरी लगने के बाद उसकी पसंद का घर खरीदने का वादा भी कर दिया था।
बुरा वक़्त जब करवट लेता है तब समय की चाल नया खेल शुरू कर देती है जो जीवन को अच्छाइयों की ओर ले जाती है। छः महीने घर ज़रुर बैठना पड़ा परंतु पारितोष ने हिम्मत नहीं हारी और नौकरी की तलाश में जुटा रहा।
मन्नत पूरी होने का समय था। पारितोष को उम्मीद से अच्छी नौकरी मिली। अब पारितोष ने अंकिता की पसंद का मकान लोन पर लेकर अपना वादा और फ़र्ज़ दोनों पूरे कर दिए। पारितोष अब खुश रहने लगा था। एक मुस्कान और गुनगुनाहट उसके चेहरे पर छाई रहती थी, परन्तु समय का वह निर्मम रूप अंकिता को भीतर तक हिला चुका था। अब वह पहले की अपेक्षा गम्भीर रहने लगी थी। हमेशा पति को धीरज देने वाली पत्नी का धैर्य अब टूटने लगा था।
वह पहले की तरह निश्चिन्त रहना और महीने के खर्च से दो पैसे बचाकर ख़ुशी का एहसास करना जैसे भूल गई थी। अक्सर उन महिलाओं के जीवन चरित्र के बारे में जानने के लिए जिज्ञासु रहने लगी थी, जिन्होंने जीवन की कठिन परिस्थितियों से सबक लिया था और अपने जीवन को ऊँचाइयों पर ले जाने के सफल प्रयास किये। उधर पारितोष अपने नए व्यवसाय में मस्त और व्यस्त रहने लगा और इधर अंकिता के मन में हर समय तूफ़ान शोर मचाने लगा था कि अब ऐसे नहीं चलेगा जैसा कि हमेशा से चलता आया है। उसे भी घर से बाहर निकलकर कुछ भी करके अपने पैरों पर खड़ा होना ही होगा।
उसे याद आया, जब एक दिन पारितोष अपने दफ़्तर चले गए और बिटिया स्कूल, तब रोज़ की तरह वह चाय और नाश्ता लेकर टी.वी. के सामने बैठ गई थी। समाचारों में खोई अंकिता की तन्द्रा अमली की बजाई घंटी से टूटी। अमली काम ख़त्म करके वहीं टी.वी. के आगे बैठ गई। वह बहुत बातूनी थी, इसलिए उसे काम की याद दिलाते हुए उसने पूछा, “अब कहाँ जाना है तुझे काम करने?” अमली ने टी.वी.पर ही नज़रें गढ़ाए हुए जवाब दिया, “आठवें माले पर, लेकिन भाभी अभी जिम से आधे घंटे बाद आएगी।”
अंकिता ने परेशान नज़र उस पर डाली और फिर उसे भी चुपचाप समाचार देखने की हिदायत दे डाली। टी.वी. पर गाँधी जी का चित्र देखकर अंकिता उससे पूछ बैठी, “इन्हें पहचानती है क्या? पहले तो वह ध्यान से देखने लगी। फिर बोली, “ये सुदामा है, भगवान कृष्ण के भाई। जिस नोट पर इनकी फोटो होती है वो ही नोट चलता है।” बड़े सयाने अंदाज़ में बोली थी वह।
“क्या…सुदामा!” उसकी हैरानी की सीमा नहीं थी। “ये सुदामा जी का चित्र है? किसने बताया तुझे?” उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं।
“हमारे इलाके में एक आदमी हमारी जात वाला है। उसे सब बंजारा कहते हैं। वो सबकी मदद भी करता है | उसी ने बताया था।”
अंकिता हतप्रभ सी उसकी ओर देखती चली गई और बोली,
“ये सुदामा जी नहीं हैं, गाँधी जी हैं। तू गाँधीजी के बारे में कुछ नहीं जानती है? ये हमारे राष्ट्रपिता हैं। बच्चा-बच्चा इनके बारे में जानता है। पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे। सत्तर साल पहले इन्होंने ही हमें आज़ादी दिलवाई थी।” बोलते-बोलते वह उसका चेहरा एकटक देखती चली गई। अन्दर-ही-अन्दर न जाने कितने प्रश्न उसके मस्तिष्क में कोलाहल मचा रहे थे। वह सोच भी नहीं सकती थी कि अज्ञानता की सीमा इस हद तक भी हो सकती है।
जैसे अंकिता अमली को अपलक हैरानी से देख रही थी, वैसे ही अमली भी चेहरे पर मूढ़ भाव लिए अंकिता को अपनी ओर घूरते हुए एकटक देख रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि ऐसा क्या कह दिया उसने जिसे सुनकर भाभी इतनी बेचैन ही गई! उसकी अंदरूनी उलझन बढ़ती जा रही थी। तभी अंकिता थकी आवाज़ में बोली, “सुदामा कृष्ण के मित्र थे, भाई नहीं।” खैर! अमली ने ही परिस्थिति से बचने के लिए नज़र चुराते हुए बात बदली।
“भाभी आज जो पगार मिली है, उससे मैं स्टील के डोंगे खरीदूँगी ….मैं जहाँ भी काम करती हूँ न, वहाँ कोई चीज़ पसंद आए तो खरीद लेती हूँ। अपना मन नहीं मारती।” फिर अपना नया किस्सा लेकर बैठ गयी। वैसे भी आज उसके पास काफ़ी समय था।
“भाभी आपको पता है, मैंने बेटी के जेवर खरीदने के लिए 20,000 रुपए इकट्ठे कर लिए हैं। 20 -25 हज़ार और करने हैं। ब्याह में सोने के बूँदे और नथ दूँगी। कैसी गुड़िया सी लगेगी मेरी बेटी। मुझे तो कुछ भी नहीं मिला था ब्याह में।”
राजस्थान के डूँगरपुर इलाके में रहने वाले कुछ गरीब राजस्थानियों में से अमली भी एक थी जो गाँव छोड़कर अहमदाबाद काम की तलाश में आई थी। “पिछले साल मैंने बाला के लिए गले का पेंडेंट लिया था। सब छुपाकर रखती हूँ।”
“किससे छुपाकर रखती है ?”
“अपने मर्द से।” हाथ नचाते और भवें उठाती हुई बोली।
“भाभी, गाँव से यहाँ अहमदाबाद में दो पैसे कमाने आये थे। कमाए भी, और मेरा मर्द भी बहुत मेहनत करता है पर सारी जोड़ डूँगरपुर जाकर अपने रिश्तेदारों के हवाले कर देता है। मुझसे भी पैसे माँगता है। शुरू में तो मैंने दिए पर जब हमेशा के लिए उसने यह आदत बना डाली तो मैंने देने से साफ़ मना कर दिया। मैंने कहा कि मैं घर के लिए खर्चों में मदद करुँगी पर गाँव नहीं भेजूँगी।” उसके इरादों की दृढ़ता उसके चेहरे पर भी झलकने लगी जो उस समय उसकी ताकत का अहसास करा रही थी।
वह फिर बोली, “क्या मैंने गलत किया भाभी?” वे लोग तो बिना कुछ किए हमारे पैसों से मौज मनाते हैं और हम कमाकर भी कंगले रह जाते हैं। घर में और बहुएँ भी तो हैं, उन्हें चिंता क्यों नहीं है घर चलाने की? वे भी यहाँ काम करने आ सकती हैं न! भाभी मैंने जब से काम करना शुरू किया है, तब से बुरे वक़्त से तो लड़ने की ताकत आ गई है मुझमें। सच में, हमारा काम ही हमारा भगवान है, हमारा सहारा है। ये गाँव वाले नहीं समझते।”
अचानक घड़ी देखकर हड़बड़ाकर उठी, “अच्छा भाभी चलूँ! भाभी भी जिम से आ गई होगी।”
अब अंकिता को भी काम तलाशने की प्रेरणा मिल गई थी अमली से। बेशक अनपढ़ अमली को अक्षरज्ञान और सामाजिक ज्ञान नहीं था, पर आज वह उसे संघर्षरत जीवन से ऊपर उठने का सच्चा ज्ञान देकर रवाना हुई। अंकिता भी काम करना चाहती थी पर घर से बाहर जाकर काम करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई थी अब तक। एक वह अमली थी जो गाँव से बाहर आकर काम का सुख ले रही थी। अंकिता अब स्वयं को छोटा महसूस करने लगी।
यही सब सोचते-सोचते वह पत्रिका लेकर बैठ गई, पर पन्ने ही उलट-पलट करती रही। दरअसल अब वह अपनी खाना बनाने वाली कोकिलाबेन के बारे में सोचने लगी कि उसका पति तो घर में बेकार बैठा है और वह घर-घर जाकर खाना बनाती है। क्षीणकाय कोकिला के चेहरे पर उसने कभी थकान नहीं देखी थी। 10वीं पास कोकिला इतनी भोली थी कि उसने अपने पति की इस बात पर भरोसा कर लिया था कि उसके पति की जन्मपत्री में जन्मभर बीवी की कमाई खाना लिखा है। इस बात से उसका दिल तो बहुत दुखता था परंतु बेटियों को पालने और पढ़ाने की खातिर उसने इस विकट स्थिति के साथ बेमन से समझौता कर लिया था और स्वयं संघर्षरत हो गई। मन ही मन अंकिता भी जब उसके बारे में सोचती तो उसे वह नारी-शक्ति का प्रतीक लगती थी।
अंकिता नहा-धोकर आई और बायोडाटा तैयार करने बैठ गयी। अब वह बेटी के स्कूल को रवाना हो गई। उसे उम्मीद नहीं थी कि पहले ही झटके में उसे नौकरी मिल जाएगी। उसे 6,000 रुपए मासिक मिलने लगे। अब उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। घर लौटने पर जब पति और बेटी को उसने खुशखबरी सुनाई तो उन्हें भी विश्वास नहीं हो रहा था। विश्वास तो उसे भी नहीं हो रहा था, परंतु समय के साथ उसे विश्वास भी हुआ और उसका अनुभव भी बढ़ा।
जीवन के संघर्षों से नई अंकिता ने जन्म लिया था। अब वह पति के पैसे नहीं, अपनी कमाई जोड़ रही थी और ढाई साल बाद रेकरिंग अकाउंट से आने वाले 1,50,000 रुपए के इंतज़ार में दिन गिन रही थी। अचानक अंकिता की तन्द्रा टूटी तो अतीत के पर्दों से बाहर आकर चमकती आँखों से अपनी पास-बुक निहारने लगी। ढाई वर्ष पूरे हो चुके थे। 4,500 रुपए की मासिक बचत अब लगभग 1,50,000 रुपए बन गई थी। चार-पाँच बार उसने अपनी पास-बुक को चूमा और अपने सीने से लगाकर आँख मूँदकर लेट गयी।
उसकी आँखों से ख़ुशी के आँसू बह रहे थे। उसे अपनी ताकत का अहसास हो रहा था। धीरे से उसके होंठ खुले और उसके दिल की आवाज़ जैसे गूँज उठी, “पारितोष, मैं तुम्हें कभी टूटने नहीं दूँगी।”
– कविता पन्त