ग़ज़ल
ग़ज़ल-
दरो-दीवार सब ढहा होता
ख़ला-ओ-आसमां जिया होता
उसे मालूम आग की शिद्दत
हसरतों का धुआं सहा होता
फ़िदा होना ग़ज़ब सही लेकिन
कभी वो मुन्तज़िर रहा होता
नज़र की बाँक पर लुढ़कता सा
दिपदिपाता गुहर सजा होता
संभल के यूँ नपा-तुला कहना
कभी कुछ बेसबब कहा होता
कहा हँसते हुए सरे-खल्क़त
नज़र भर रीझ के कहा होता
छिपा ही वो रहा ख़ुदाई में
कभी तो रूबरू रहा होता
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ग़ज़ल-
रोशनी सब जगह क्यों पहुंची नहीं
महज़ वादों ने ख़ुशी सौंपी नहीं
किस तरह नग़में हवाओं के सुनें
सिर्फ़ तहखाने, वहाँ खिड़की नहीं
अश्क़ ख़ामोश रह के खो से गए
क्यों हवाओं में नमी बिखरी नहीं
साथ होना भी ग़ज़ब जादू लगे
जो नहीं तुम तो कुछ ख़ुशी ही नहीं
आहटों से जुस्तजू बढ़ती रही
नींद राहत सौंपती पसरी नहीं
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ग़ज़ल-
शोख़ नज़रों की पनाहों में ग़म छुपे भी हैं
हसरतों के भँवर चौतरफ़ा अनदिखे भी हैं
भीड़ से हटके कहीं दिखते साथ सांझ ढले
दरमियाँ उनके कई जज़्बे अनकहे भी हैं
हौसलों की हर बुलन्दी भी आसरा चाहे
पुल बने हैं जो कहीं खम्भों पे उठे भी हैं
मुस्कराते हैं छुपाकर ज़ख्म अपने अक्सर
शाम ढलते वे कहीं तनहा सुबकते भी हैं
कौन गिनता है यहाँ लहरें शाम होने तक
रेत पर उसने लिखे वादे फिर पढ़े भी हैं
– कैलाश नीहारिका