ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ज़मीनों में सितारे बो रहा हूँ
मुझे हरगिज़ न कहना रो रहा हूँ
गवाही दें समंदर, चाँद, साहिल
अकेला हूँ, कभी मैं दो रहा हूँ
उसे लौटा दिया मैंने ये कह कर
अभी जाओ, अभी मैं सो रहा हूँ
मुहब्बत की कहानी भी अजब है
जिसे पाया नहीं था, खो रहा हूँ
पुराने पर नये कुछ ज़ख्म खाकर
लहू से मैं लहू को धो रहा हूँ
दुआओं के वसीले से मैं ‘हाशिम’
यहाँ का था, वहाँ का हो रहा हूँ
******************************
ग़ज़ल-
तेरे ख़याल तेरे आरज़ू से दूर रहे
नवाब हो के भी हम लखनऊ से दूर रहे
बदन के ज़ख़्म तो चारागरों ने सी डाले
मगर ये रूह के छाले रफ़ू से दूर रहे
ज़मीं पे टपका तो ये इंकलाब लाएगा
उसे बता दो वो मेरे लहू से दूर रहे
किया है हमने तयम्मुम भी ख़ाके-मक़्तल पर
नमाज़े-इश्क़ पढ़ी और वज़ू से दूर रहे
मेरी ज़बान का चर्चा था आसमानों पर
ज़मीन वाले मेरी गुफ़्तुगू से दूर रहे
******************************
ग़ज़ल-
तमाशा अहले-मोहब्बत यह चार-सू करते
दिलो-दिमाग़ और आँखें लहू-लहू करते
वो रोशनी से भरी झील के किनारे पर
शिकस्ता रूह, दुरीदा बदन रफू करते
हमारे बारे में तफ्तीश की तमन्ना थी
तो जाने-जानाँ, परिन्दों से गुफ्तुगू करते
जमालो-हुस्न से लबरेज़ जब ज़माना है
तेरी बिसात ही क्या? तेरी आरज़ू करते
ज़मीं पे चाँद सितारे बिछा के ऐ ‘हाशिम’
फ़लक पे फूल सजाने की आरज़ू करते
******************************
ग़ज़ल-
दिल मोहल्ला ग़ुलाम हो जाए
कोई इसका इमाम हो जाए
दफ्तरे-इश्क़, काश तुम आओ
मेरे जैसों का काम हो जाए
यूँ तो रक्खा है प्यास का रोज़ा
आ गये हो तो जाम हो जाए
फिर ज़बाने-ख़ुदा पे लफ़्ज़े-कुन
जश्न का एहतिमाम हो जाए
चुप का घूंघट उठा के होठों से
जाने-जानाँ कलाम हो जाये
क़ैसो-फ़रहाद की तरह ‘हाशिम’
बस मुहब्बत में नाम हो जाए
******************************
ग़ज़ल-
कौनसे शहर में किस घर में कहाँ होना है
मैं वहाँ होता नहीं मुझको जहाँ होना है
एक जुगनू ने यह नुक्ता मुझे तालीम किया
किस पे पोशीदा रहो, किस पे अयाँ होना है
इसलिए तोलती रहती हैं परों को रूहें
हुक्म आते ही सर-ए-अर्श रवाँ होना है
वक़्त आ पहुँचा है अब तख़्त गिराये जाएँ
दोस्तो! हम से ही यह कार-ए-गिराँ होना है
इस क़दर दिल ने ख़सारा तो नहीं सोचा था
यह तो तय था कि मुहब्बत में ज़ियाँ होना है
मज़हब-ए-इश्क़ में जायज़ है सभी कुछ ‘हाशिम’
आज तुम जान हो, कल दुश्मन-ए-जां होना है
– हाशिम रज़ा जलालपुरी