ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
सियासत जब तलक छलती रहेगी
तरक्की हाथ ही मलती रहेगी
उमीदों के दिये अंतिम सफर में
ये बाती कब तलक जलती रहेगी
अना की है हुकूमत बस्तियों पर
मुहब्बत किस क़दर पलती रहेगी
मुकाबिल हैं जहां में आग-पानी
दुआ कितने दिनों फलती रहेगी
शफ़ाकत से हमारी आशनाई
अदा ये ही उन्हें खलती रहेगी
सदाएँ फोड़तीं सिर पत्थरों से
मगर दुनिया यूँ ही चलती रहेगी
मिले मंज़िल या राहें गम नहीं कुछ
मुहब्बत ‘गीत’ में ढलती रहेगी
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ग़ज़ल-
ज़िन्दगी को करीब पाती हूँ
एक दुनिया नई बसाती हूँ
धूप चिड़ियों-सी जब फुदकती है
हसरतें ओढ़ कर लजाती हूँ
अजनबी से लगे सभी अपने
बारहा जब भी आजमाती हूँ
जिस्म की कैद में न रहता दिल
बिन परों के इसे उड़ाती हूँ
बेबसी से लिपट के रोया क्यों
मन के मन की न जान पाती हूँ
कितनी गहराई है ख़ुदा जाने
इन निगाहों में डूब जाती हूँ
बिन तुम्हारे भरी-सी दुनिया में
‘गीत’ तन्हा मैं ख़ुद को पाती हूँ
– गीता शुक्ला गीत