व्यंग्य
स्मार्ट सिटी का बवाल
गुज़रे ज़माने की याद आ गई। कालेज का एनुअल फंक्शन होना था। मुझे एक नाटक में जो भूमिका निभानी थी, उसके लिए काली पैंट और सफेद शर्ट पहननी थी, जो मेरे पास थी ही नहीं। मेरे एक मित्र ने मदद की और जब मैं उस ड्रेस में कालेज पहुँचा तो मेरे कुछ मित्रों ने कहा- क्या बात है यार! बहुत स्मार्ट दिख रहे हो। उधारी की वह ड्रेस वापस करनी ही थी, लेकिन हफ्तों मैं सपने में वही ड्रेस पहने अपने आपको स्मार्ट देखता रहा। यह शब्द है ही ऐसा, जो कभी भी किसी को किसी भी रूप में दैवीय वरदान के रूप में प्राप्त हो जाता है। देने वाला मुस्कुराकर औघड़दानी भगवान शिव की तरह यह तमगा बिना माँगे ही किसी के गले में लटका सकता है। सलीके से भलमानुस की तरह निकलो तब तो ठीक भी, बिल्कुल उठाईगीर लगो या फटीचर, खुशहाल रहो या देवदास जैसे बदहाल, देने वाले की श्रद्धा है तो वह यह ‘स्मार्टनेस’ का तमगा आपके गले में लटका ही देगा और आपकी रातों की नींद में अच्छा खासा खलल डाल देगा।
जिस दिन हमारे शहर को स्मार्ट सिटी घोषित किया गया, उसके बाद कई महीनों तक हमें सपने में भी सब कुछ स्मार्ट ही दिखता रहा। जागने पर मैं बार-बार आईने में अपनी शक़्ल देखकर अलग-अलग कोणों से स्मार्टनेस की तलाश करता, लेकिन सपने तो सपने ही हैं। कई बार बहुत अच्छे सपने देखने के बाद भी दिन खराब चला जाता है। कभी-कभार शहर के किसी एरिया में नालियों की सफाई होते या सड़को के चैड़ीकरण का काम होते देख, या सड़क के बीचों-बीच डिवाइडर बनाने के लिए की गई जानलेवा खुदाई आदि काम स्मार्ट सिटी की याद ताज़ा कर उत्साह का संचार करने की नाकाम कोशिश करते रहे, लेकिन परिणाम की कोई जल्दी नहीं थी। सरकारी योजनाओं का स्वभाव ही ऐसा होता है। किसी के भूखे होने की ख़बर पहले कई बार अख़बारों में छपेगी, फिर विपक्ष की खींचतान के बीच सदन में बहस होगी़। तब कहीं जाकर आयोग गठित होगा। रिपोर्ट आने के बाद, उसके लिए वित्तीय प्रावधान, फिर धीरे-धीरे अमल। तब तक भूखा व्यक्ति या तो भूख से दम तोड़ चुका होगा, या किसी लोकतांत्रिक मार्ग पर चल पड़ा होगा।
सक्रिय राजनीति में जो काम विपक्ष करता है, वही काम राजनीति के गलियारों से बाहर रहते हुए कुछ बौद्धिक टाइप के लोग भी करते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष की तर्ज पर किसी भी शहर में चाय की गुमटी, पान के ठेले पर या किसी नुक्कड़ पर इन तथाकथित बोद्धिकों को वाणीयुद्ध करते देखा जा सकता है। लेकिन राजनीतिक बहसों से इनकी बहसें एक मात्र इस मामले में अलग होती है, कि सदन की तरह इनकी बहस में सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं होते। दोनों ही पक्षों के बड़े दमदार तर्क होते हैं। दोनों ही किसी भी तरह लोकप्रियता के रसीले फल हासिल करने के लिए सारे दाँव-पेंच लगाते हैं। यहाँ भी समर्थक ढोल-मजीरे के साथ गुणगान करते दिखते हैं, तो दूसरे निन्दा पुराण का पाठ कर अपना हाज़मा दुरुस्त करते हैं। पब्लिक इन बहसों पर मुस्कुराती हुई इनकी लोकप्रियता पर मुहर भी लगाती है। यह अलग बात है कि वह मुहर अक्सर ‘नोटा’ पर ही लगती है।
खैर, बात चल रही थी स्मार्ट सिटी की। प्रदेश के मुखिया का हमारे नगर में दौरा हुआ। घोषणावीर बिना कोई बड़ी घोषणा किये लौट जायें, यह तो सम्भव ही न था। सरकार की उपलब्धियों की गिनती शुरू हुई। आधे घंटे तक उपलब्धियों की गिनती और साथ में पिछली ‘नकारा सरकार’ की नाकामियों का अखण्ड पाठ हुआ। जनता साँस रोके सुनती जा रही थी और हर बार ताली बजाने के बाद, किसी नये जुमले के लिए कमर कस कर खुद को तैयार भी करती जाती थी। आखिरकार जनता के सोच का लोहा गरम होते-होते लाल सुर्ख हुआ और मौका देख मुखिया ने घोषणा का वज़नदार हथौड़ा चला दिया। कर दी घोषणा – ‘हालांकि सूची में नहीं था, फिर भी हम आपके शहर को स्मार्ट सिटी का तोहफ़ा देकर जाना चाहते हैं’। तालियाँ बजाने और जयकारा लगाने वाले स्मार्ट कल्पनाओं में ऐसे खोये कि यह भी नहीं देख पाये कि उड़न खटोला कितनी देर फुर्र हो गया। बहरहाल सब गर्व से सीना चैड़ा कर लौटे। स्मार्ट होने की कल्पना का सुख ही अलग होता है।
दो-तीन महीने तक इन्तज़ार करने के बाद कुछ फुरसतिया विघ्न सन्तोषियों ने सभाओं में रेंकना शुरू कर दिया। जितना कुछ सभाओं से निकलता, ब्याज सहित अख़बारों में छपता। इनके पास कुछ निश्चित शब्दों का कोटा होता है। जिस दिन इनके पास कोई काम न होता, बस अपने चिरपरिचित धारदार शब्दों की तलवार चमकायी और सभा में भाँजना शुरू। लोकतंत्र की हत्या, जुमला, भ्रष्टाचार, फरेब, अहंकारी, दलित विरोधी जैसे शब्दों की फुलझड़ियाँ छोड़कर यह खुद को गौरवान्वित करते, तो जनता इनकी नादानी पर यह सोचकर तरस खाती कि कौन सी नयी बात बता रहे हो, यह तो हम जबसे होश सम्हाले तभी से देखते आ रहे हैं।
जनता का भरपूर मनोरंजन होने के बाद स्थानीय भैया जी ने करवट ली। प्रदेश के मुखिया को याद दिलायी कि आपने स्मार्ट सिटी का जो वायरस हमारे शहर में छोड़ा था, अब वह बहुत लोगों को संक्रमित कर रहा है। मुखिया तो घुटे-पिटे चतुर-सुजान थे ही। फौरन वायरस रोधी किट जारी कर दी। हफ्ते भर के अन्दर कलेक्टर को लिखित पत्र मिल गया। कलेक्टर को भी इस रंगमंच की हक़ीक़त पता थी। योजना मंडल की बैठकें शुरू हुईं। छः महीने तक कई बैठकों में इस वायरस पर ही चर्चा होती रही। हर बैठक में सबसे बड़ा मुद्दा इसके बजट और क्रियान्वयन का ही रहा। भैया जी हर बैठक में किसी टूटे हुए पलँग की तरह बैठक कक्ष की शोभा बढ़ाते और वायरस किट के इस्तेमाल की विधियों पर बगुले की तरह नज़र रखते।
एक बार प्रदेश मुख्यालय से किसी अनुभवहीन अधिकारी ने स्मार्ट सिटी की प्रगति का ब्यौरा माँग लिया। कलेक्टर साहब ने भी तुरन्त सक्रियता दिखाई। नगर निगम के राजस्व अधिकारी को बुलाकर शहर को अतिक्रमण मुक्त करने का निर्देश दे डाला। अपनी साख बनाने उसने तुरन्त अमल शुरू कर दिया और फिर तो ग़ज़ब हो गया। कितने ही रसूखदारों के बहुमंजिला भवन जेसीबी के निशाने पर आ गये। तमाम भाषणवीरों के साथ भैया जी भी टेंशन की चपेट में आ गये। अख़बार नवीसों की सजगता बढ़ी तो, कलेक्टर साहब को समझाने की कोशिशें भी तेज़ हो गयीं। कलेक्टर ने भी समझदारी से काम लिया। बैठकें चलती रहीं। ‘हमने देखा है, हम देख रहे हैं, हम देखेंगे’ के भीष्म वचनों के बीच आधे से अधिक अतिक्रमण, सड़कों के किनारे उजड़े हुए मीना बाज़ार की कहानी कहने लगे। भैया जी को बहुत नागवार गुज़रा और रातों-रात कलेक्टर ही बदलवा दिये।
अतिक्रमण हटाने की पीड़ा से आहत भैया जी ने स्मार्ट सिटी का दूसरा छोर पकड़ा। शहर की सड़कों को स्मार्ट बनाना तय हुआ। ठेकेदारों की महीने भर की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद ठेका हो गया। तमाम कसौटियों में फिट पाये गये ठेकेदार ने अपनी क्षमता दिखाते हुए, छः महीने में काम पूरा करने का संकल्प रखा, तो भैया जी की डाँट पड़ गयी। दो साल की अवधि में काम पूरा करने का लक्ष्य उसको दिया गया। ठेकेदार शायद समझदार था। भूमिपूजन की दक्षिणा और प्रसाद वितरण के बाद वह अपनी दूसरी साइट पर चला गया। कभी-कभार उस तरफ से निकलने पर भूमिपूजन के लिए खोदी गई सड़क, स्मार्ट सिटी का दुखद सपना एक साल तक ताज़ा करती रही।
बीच-बीच. में कभी जिला प्रशासन, तो कभी भैया जी ठेकेदार को काम की इम्पार्टेंस याद दिलाते और ठेकेदार कभी खुद सशरीर, तो कभी अपने किसी कर्मचारी के चोले में आकर खुजली का इलाज कर चला जाता। इसी बीच एक बार निर्माण विभाग के एक बाबू ने रूटीन में नोटिस जारी करते हुए इसे भी थमा दिया। ठेकेदार भी ताव खा गया। आनन-फानन अपनी मशीनरी लाकर अतिक्रमण मुक्त हुए हिस्से की सड़क पर निर्माण का मैराथन शुरू कर दिया, जो एक पुलिया पर जाकर दम तोड़ गया। पुलिया के बाजू में पिछली सरकार के मंत्री के तीस साल पहले बने तीन मंजिला भवन को निहारने की हिम्मत किसी में न थी। फिर सभाएँ होने लगीं, अख़बारों को समाचार मिलने लगे, लेकिन एक हफ्ते के अन्दर ही कुछ गोपनीय बैठकों के बाद डायवर्सन पर सहमति बन गयी। ठेकेदार तब तक अपना साजो सामान समेटकर फिर ग़ायब हो चुका था।
कहीं सड़क पर हुई खुदाई के रूप में, तो कहीं बीच सड़क पर पड़ी चोरी से बची निर्माण सामग्री के अवशेष के रूप में स्मार्ट सिटी की स्मार्ट सड़क का काम हमारे नगर के कुछ हिस्सों में ट्रामा सेंटर से निकले हुए रोगी की तरह दिखने लगा था। बरसात के दिनों में नालियों के स्मार्ट कचरे को बारिश के स्मार्ट पानी के साथ बहने की पूरी आजादी मिल चुकी थी। इन्हीं सड़कों पर बरसात के दिनों में कुछ नान स्मार्ट, ज़ाहिल लोग आये दिन अपनी नादानी के कारण सरकारी अस्पतालों के लिए सिरदर्द और प्राइवेट अस्पतालों के लिए वरदान बनते रहे। अख़बारों के लिए समाचार और बौद्धिक वाणीवीरों के लिए स्मार्ट होने का जरिया भी बनते रहे। इनके स्मार्टनेस में जरा सी भी कमी होती दिखती, कि अपने-अपने घराने के झण्डे लिए निकल पड़ते और दो-चार दिनों में स्मार्ट होते ही इनका आक्रोश मुस्कुराहट में बदल जाता।
स्मार्ट सिटी की सफलतम असफलता के शानदार सात वर्ष बीत चुके हैं। स्मार्ट सिटी की बुलेट ट्रेन का नाम जिस साइन बोर्ड पर लिखा था, उसके ऊपर किसी कम्पनी ने नामर्दी के गारंटीड इलाज का विज्ञापन लिखवा दिया है। हमारे शहर की नौ किलोमीटर की स्मार्ट सड़क अभी भी अपनी तकदीर पर रोती हुई, हमारी मलिन बस्तियों की तरह आउटर पर खड़ी अपने अच्छे दिनों की प्रतीक्षा कर रही है। सभी भाषणवीर और बौद्धिक वाणीवीर समय-समय पर अपने स्मार्ट होने की जुगत लगाने, दो साल पहले पूरी हुई भैया जी की विशाल चार मंजिला स्मार्ट कुटिया में गम्भीर चर्चाओं के लिए इकट्ठे होते हैं और फिर मुस्कुराते हुए भैया जी के ‘मॉल’ के जल्दी शुरू होने की शुभकामना देते हुए वापस चले जाते हैं। इस स्मार्ट शब्द की लीला तो शायद लीलाविहारी भी न समझ पायेंगे। मुझे तो अब इस शब्द से इतना डर लगने लगा है कि मैंने मेरे चोरी हो चुके स्मार्ट फोन की थाने में रिपोर्ट भी नहीं लिखाई। मुझमें अब और स्मार्टनेस झेलने की कूवत बची नहीं दिखती।
– डॉ. राम ग़रीब विकल