यादें!
भूत की कमीज़
ये यादें बड़ी पुरानी ,हर पल ही कहती रहतीं कोई न कोई कहानी ! मित्रो ! आठवीं में दिल्ली पढ़ती ,पढ़ते क्या उन दिनों तो मस्ती ही ज़्यादा मारते | आज के बच्चों की तो कल्पना से भी बाहर की बात ! अगली क्लास में जाने भर से मुहल्ले में लड्डू बँट जाते |अब पर्सेंटेज वर्सेन्टेज कौन पूछता !
“लो जी,हमारी मुनिया आठवीं में आ गई है—” मतलब आठवीं में दिल्ली में आए और लड्डू मुज़फ्फरनगर में बंट रहे हैं |यानि नानी और अम्मा अपने मुहल्ले भर को लड्डू खिला देतीं |
छुट्टियों में कभी-कभी चाचा जी के बच्चे भी दिल्ली की मौज मनाने आ जाते | बड़ा मज़ा आता उन्हें मेरे ठाठ-बात देखकर |मैं ठहरी इकलौती औलाद ,वो भी कई बच्चों के जाने के बाद ,सो पैम्पर होना स्वाभाविक था | बस ,एक बात जो बहुत कठिन लगती जिससे पापा पर बहुत भुनभुन करने का मन भी करता ,ज़रूर करती भी होऊँगी ,अब क्या ? ये याद नहीं | मैं तो खुश हो जाती थी कि छुट्टियों में अम्मा के साथ चाचा जी की लड़कियाँ आ जाती थीं और हम खूब मस्ती करते | जहाँ तक संभव होता पापा भी बच्चों को सैर-सपाटा करवाते रहते | वो मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉमर्स में सैक्शन-ऑफ़िसर थे उन दिनों और माना जाता था कि बड़े अच्छे पद पर हैं |मुझे तो छुट्टियों में भी कत्थक सीखने जाना ही पड़ता | सो,मेरे दो खेलने के घंटे कम हो जाते | पर, हम रात का खाना खाकर मस्ती करते | जहाँ लोधी कॉलोनी में हम रहते उस ब्लॉक में तीन ओर फ्लैटनुमा क्वार्टर बने हुए थे ,केवल सामने का भाग झाड़ियों से बंद था | बीच में लॉन जिसमे चारों ओर लंबे-लंबे पेड़ और झूले ,फिसलनी पट्टी,सी-सॉ लगे हुए थे | जैसे ही मैं डाँस सीखकर आती ,खाना तैयार होता ही , सब साथ में बैठकर खाते | फिर चारपाइयाँ लॉन में लगा दी जातीं | लगभग पाँच बजे मैं जाती थी और साढ़े सात तक वापिस आ जाती|
पापा के मित्र डॉ. स्वरूप सिंह उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग के विभागाध्यक्ष थे ,उनकी पुत्री के साथ मैं डाँस सीखती जो एक ही साल चल पाया क्योंकि मैं बड़ी हो रही थी और माँ व बड़ों का विचार था कि अब मुझे माँ के पास रहना चाहिए जो मुज़फ्फरनगर में संस्कृत की अध्यापिका थीं |
ख़ैर ,शैतानी और उछल-कूद के लिए तो हम कहीं से भी समय ढूंढ ही लेते | खाने के बाद फिर से एक दौर खेल का शुरू होता, पास-पड़ौस के सारे बच्चे खूब उधम मचाते और फिर सबके घरों से आवाज़ें आने लगतीं ;
” बहुत हो गई मस्ती ,अब घर चलो ”
एक बार में तो कोई भी सुनने वाला होता नहीं था, हम सब बुलाने के बाद भी उछल-कूद मचाते रहते और जब आवाज़ें डाँट में तब्दील होने लगतीं तब कहीं जाकर हम घरों में घुसते |
रात को चौकीदार सड़कों पर घूमा करते अत: बाहर सोने में कोई डर नहीं था | बड़े लोग तो अंदर ही सोते लेकिन कुछ घरों के बच्चों को बाहर लॉन में सोने की इज़ाज़त मिल गई थी जिनमें मैं भी शामिल थी | शर्त तो वैसे होती थी कि बहुत खेल लिया गया है, अब सीधे सोना ही पड़ेगा जिसमें पापा का स्ट्रिक्ट सुबह घूमने जाने का आदेश ! छुट्टियाँ हैं तो आलसी नहीं बन जाना है| थोड़ी दूर पर ही ‘लोधी टौंब’ गार्डन था जिसमें स्वास्थ्य-लाभ लेने वाले लोग अल्ल्सुबह टहलने आ जाते | गुलमोहर के फूलों से ज़मीन अटी पड़ी रहती। पेड़ों के नीचे की ज़मीन ऊपर से नीचे की ओर आती ,हम सब बच्चे पेड़ के नीचे जाकर ऊपर से नीचे की ओर लुढ़कते और यह खेल हमारा तब तक चलता जब तक किसी बच्चे के घर से कोई नौकर या पिता न आ जाते | घूमने के लिए आते हैं या शैतानी करने | लीजिए वे इतना भी नहीं समझते थे आख़िर घर से तो हम पैदल ही चलकर आते थे ,अब गार्डन में पहुँचने पर तो शैतानी लाज़िमी थी | खैर ,रुटीन था यह तो ,इसमें कोई व्यवधान पड़ता तो किसी को भी अच्छा न लगता लेकिन भई थी तो माता-पिता की आज्ञा ! टाली कैसे जाती? हमारा बाहर निकलना ही बंद हो जाता ,बेशक स्वास्थ्य के भने ही सही हमें शैतानी करने के मौके तो मुहय्या होते रहते |
एक रात का ख़ास ज़िक्र करना है | चाचा जी के बच्चे आए हुए थे ,रुटीन वही रहता हर साल ! सुबह लोधी गार्डन,दोपहर में घर में उधम और रात को कत्थक सीखने से आने के बाद खाना और फिर वही लॉन में चारपाइयाँ जिन पर उछल-कूद आधी रात तक भी नहीं तो बारह /एक बजना तो मामूली बात थी और फिर सुबह-सवेरे आवाज़ें पड़नी शुरू | उस दिन रात को चाचा जी की बेटी ने भूतों की कहानी सुनाई | अब ये तो याद नहीं क्या रहा होगा उसमें पर होगा ज़रूर कुछ गड़बड़ जो आधी रात को चचेरी बहन सरला ने गहरी नींद में हिला दिया | दोनों एक चारपाई पर सोते थे ,पड़ौस की चारपाई पर अरोड़ा साहब की दोनों बेटियाँ ! तीसरी चारपाई पर सूद अंकल की बड़ी बेटी जो मुझसे कोई दो/तीन साल बड़ी होंगी और उनका छोटा भाई | बस ! हमारी तरफ़ ये तीन ही चारपाइयाँ होती थीं और हमसे काफी दूरी पर दूसरे गेट के पास और कुछ लोग सोया करते | उस समय अधिकतर सबकी ही चारपाइयों पर सफ़ेद मसहरी चार डंडों की सहायता से बांधकर लगाई जातीं |घर का सेवक दीनू बाहर बरामदे में सोता था |
” उठ तो प्रणव..” सरला ने मुझे हिला ही तो डाला |
रात में इतनी देर तक शैतानी करके टूटकर सोएं और दो-चार घंटों में कोई कच्ची नींद में हिला दे तो कैसा लगेगा?
“क्या है ,सोने दो न मुझे..” मैंने शायद करवट बदल ली होगी | पर उसका तो मुझे झिंझोड़ना ज़ारी ही रहा |
“उठ तो ,देख ! वो क्या है?” फिर भी मैं काफ़ी देर तक आनाकानी करती रही |
“अब नहीं उठेगी न तो मैं तुझे छोड़कर अंदर भाग जाऊँगी..” उसकी आवाज़ में घिग्घी बंधी हुई थी |
“दीनू भैया..” सरला के मुँह से दबी हुई आवाज़ निकल रही थी |
“क्या है? क्या हुआ?” सरला बहुत घबराई हुई थी, इतनी कि उसके हाथों -पैरों से कंपकंपी छुट रही थी |
“देख !” सरला ने अपनी थरथराती ऊँगली को मसहरी में से ही बाहर की ओर इशारा किया |
“देख! वो क्या हिल रहा है!” उसकी आवाज़ काँप रही थी, निकल नहीं रही थी | अब मुझे जगा देखकर थोड़ी सी ज़ोर से निकलने लगी थी |
मैंने आँखें फाड़कर देखा ..हाय ! सच्ची पेड़ पर सफ़ेद रंग का कोई इधर-उधर हिल रहा था | शायद उस रात हवा भी कुछ ज़्यादा ही चल रही थी, वो जो भी था पेड़ पर ज़ोर ज़ोर से इधर से उधर जा रहा था | मैं इतनी ज़ोर से चीखी कि पास वाली चारपाइयों पर सोए बच्चे भी जग गए और दीनू भैया भी बरामदे मे से उठकर भागे हुए आए |
हम दोनों इतनी बुरी तरह काँप रहे और दीनू को समझ नहीं आ रहा कि भाई ये सब चल क्या रहा है?
वैसे ब्लॉक के बाहर लैंप-पोस्ट की रोशनी आ रही थी लेकिन ब्लॉक में चारों ओर लंबे-लंबे पेड़ लगे होने के कारण रोशनी पूरी तरह से वातावरण में पसरी हुई नहीं थी | धूप-छाँव का खेल सा था, रोशनी और अँधेरे की लुकाछिपी चल रही थी और लगभग सारे बच्चे ही अपनी चारपाइयों पर चिपके हुए थे | कुछ ही मिनटों बाद सारे बच्चे शोर मचाने लगे जबकि शायद उन्हें पूरी बात तो समझ भी नहीं आई होगी |
” क्या हुआ बीबी..” दीनू भैया ने हमारे ब्लॉक के बरामदे की लाइट खोल दी थी और अब वे कुछ घबराए हुए से हमारी चारपाइयों के पास खड़े थे |
हम दोनों बहनें अपनी मसहरी को कसकर पकड़े रहे और दीनू भैया पूछते रहे | धीरे-धीरे हम सबने मिलकर इतना शोर मचा दिया कि कई ब्लॉक्स के बरामदों की लाइटें खुल गईं और हमें काफ़ी लोगों ने लॉन में आकर घेर लिया | माँ-पापा भी आ चुके थे | अचानक सरला की दृष्टि पेड़ पर पड़ी और घिघियाते हुए वह अचानक दलबदलू सी मुँह फाड़कर हंसने लगी | सबको बहुत खीज आ रही थी ,आख़िर हुआ क्या ? शेरनी की तरह सरला मसहरी से बाहर निकलकर खड़ी हो गई और हँसते हँसते लोटपोट होने लगी |
“ये क्या बद्तमीज़ी है सरला ? आधी रात को ये क्या तमाशा है?”पापा काफ़ी गुस्से में थे |
“वो ताऊ जी..” उसकी हँसी रुक ही नहीं रही थी ,मेरा व सब बच्चों का ध्यान भी पेड़ पर जा चुका था और वे सब भी हँसने लगे थे | बड़ों को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था | लगभग सभी खीजे हुए थे | हम बच्चों का तो शगल ही था मस्ती मारना पर और सबको तो सुबह उठकर अपने काम पर लग जाना था |
” कुछ बोलो तो सही ,ये अचानक हुआ क्या है?” पापा ने गुस्से में पूछा|
“ताऊ जी! वो पेड़ पर देखिए न! ”
” क्या है पेड़ पर ?”एक मिनट बाद ही पापा बोले –
” ये कमीज़ ही तो है, दीनू! तुम्हारी कमीज़ है न ?” पापा को तुरंत ख्याल आ गया|
” जी साब जी”
” मैंने कितनी बार कहा है, ऎसी हरकतें न किया कर!”
पापा सारा नाटक समझ चुके थे| वो पहले भी चेता चुके थे दीनू को और सरला को भी| दीनू अपने कपड़े पेड़ पर हैंगर पर सुखाने से बाज़ न आता और सरला भूतों की कहानियाँ सुनाने से बाज़ न आती| सो,उस दिन दीनू की सफ़ेद कमीज़ ने पवन के झोंकों से अठखेलियाँ करके हम बच्चों के मन में भूत का भ्रम पैदा कर दिया था और बात का इतना बतंगड़ बन गया कि रात को हमारा बाहर सोना बंद करवा दिया गया| स्वाभाविक था हमारे खेलों पर भी अब सी.आई.डी की निगाहें चिपक चुकी थीं|
– डॉ. प्रणव भारती