व्यंग्य
ये मुँह और मसूर की दाल- डॉ. महेन्द्र अग्रवाल
श्वेतवस्त्र धारिणी देवी सरस्वती आज प्रातः काल से ही विचलित थीं। मुख मंडल पर स्वाभाविक शांति के स्थान पर अशांति विराजमान थी। उनकी भाव-भंगिमाओं से उद्विग्नता स्पष्ट परिलक्षित थी। इतना अशांत उन्होंने स्वयं को पहले कभी महसूस नहीं किया। बात इतनी थी कि उनकी पिछली रात बहुत बेचैनी से कटी। वह रात भर सो नहीं पाईं। कारण कुछ विशेष नहीं, अविशेष जैसा था। भारत भूखंडे किसी पददलित आदमी जैसे तुच्छ प्राणी ने उनके कार्यालय में एक पंजीकृत पत्र प्रेषित किया था और बुद्धि की देवी के रूप में वीणा वादिनी की प्रतिष्ठा को चुनौती देने के अंदाज़ में उनसे इस बात की विवेचना करने का अनुरोध किया था कि ‘ये मुँह और मसूर की दाल’ की कहावत जन सामान्य से लेकर साहित्यिक हलकों में क्यों चल रही है? ‘मसूर की दाल’ में ऐसी क्या विशेषता है, जो उसे मुँह से लगाया जाए? यह किस आधार पर मुँह से लगाने लायक है? दाल वर्ग की ढेर सारी दालों में अलग-अलग हैसियत की इतनी दालें हैं और उनके इतने अधिक उपयोग हैं कि उनकी तुलना में मसूर की दाल की कोई हैसियत ही नहीं है। थोड़ी बहुत है भी तो केवल मुगलकालीन दासियों बांदियों जैसी। यह भी उसका सम्मान है अन्यथा किस मुँह से मसूर की दाल अपनी विशेषताएँ गिनवा सकती है। जबकि शास्त्रों में तो यह निषेधात्मक खाद्य के रूप में वर्णित है।
बस इसी पत्र में उभरे प्रश्नों के नुकीले भाले ज्ञानदायिनी वागेश्वरी के मन को बार-बार क्षत विक्षत कर रहे थे। याचिकाकर्ता के रूप में पत्र प्रेषक ने अंत में इस कहावत को बदलने और मसूर की जगह किसी अन्य उपयुक्त श्रेष्ठ दाल को यह महती दायित्व सौंपने का अनुरोध भी किया था ताकि कहावत में वर्णित दाल के आधार पर कहावत का सम्मान बरकरार रह सके।
हंसवाहिनी का नीर क्षीर विवेकी हंस भी उनकी मनोदशा भाँपकर अनमनस्क-सा स्थिर था। प्रश्न किसी मुँह या मसूर से अधिक देवी श्री की अपनी प्रतिष्ठा का भी था। उनके विचलित होने का कारण भी यही था। देवी ने इन प्रश्नों पर गंभीर मंथन किया। किंतु किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकीं।
आज सुबह से यही प्रश्न फिर उन्हें रह-रह कर कचोट रहा था। क्या करें, यदि उसके पत्र का जवाब नहीं दिया गया या उचित कार्यवाही नहीं की गई तो जनसामान्य में उनकी बुद्धिमत्ता पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। हो सकता है ब्रह्मदेव साहित्य, संस्कृति, कला, विधि जैसे विभागों का प्रभार छीनकर उन्हें अर्द्धशिक्षित महिला की तरह कोई खराब मंत्रालय न पकड़ा दें। तब क्या होगा? हज़ारों हज़ार वर्ष की प्रतिष्ठा एक अदना से व्यक्ति के कारण धूल में मिल जाएगी। लोग समारोहों में उनकी पूजा करना बंद कर देंगे। सम्मेलनों में उनकी तस्वीर के आगे दीप जलाने से परहेज करेंगे। हो सकता है उनकी तस्वीर या मूर्ति रखना ही बंद कर दें। फिर उनकी वंदना भी कौन गाएगा? क्या सार्वजनिक समारोहों में उनकी प्रतिष्ठा बरकरार रह पायेगी!
क्या वह इस प्रश्न पर जाँच आयोग बैठा दें। किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को मनोनीत कर दें। किसी अकादमी के अध्यक्ष को इसकी जाँच का दायित्व सौंप दें। ऐसी स्थिति में भी जाँच के विषय में कुछ निर्देशात्मक बिंदु निर्धारित किए जाने आवश्यक थे। उन्होंने सोचा और सामने पड़ी पट्टिका पर ‘रफ़-वर्क’ करना शुरू कर दिया।
1- यह मुँह और मसूर की दाल में वर्णित मुँह किसका है? किस वर्ग का है, किस वर्ण का है और उसकी सामान्य या असामान्य विशेषताएं क्या-क्या हैं?
2- इस कहावत के प्रारंभिक प्रयोगकर्ता ने मसूर की दाल का ही इस्तेमाल क्यों किया? क्या वह मसूर प्रेमी था? क्या वह मसूर के अतिरिक्त किसी अन्य दाल का प्रयोग नहीं करता था? क्या इसी कारण उसने इकलौते विकल्प के रूप में मसूर का प्रयोग किया?
3- क्या उस समय अन्य दालों का उत्पादन नहीं होता था? क्या वह अपने स्वाद, रंग, रूप और प्रकृति में प्रयोजनीय नहीं थीं।
4- मसूर की दाल का उत्पादन कहाँ से प्रारंभ हुआ और यह शनैः शनैः किन-किन क्षेत्रों में विस्तारित हुई?
5- यह कहावत किस भाषा की है? नहीं नहीं, यह तो हिंदी भाषा की है। इस प्रश्न का क्या औचित्य? हाँ, कैसे प्रचलन में आई? इसकी विवेचना हो सकती है?
दालें तो कितने ही प्रकार की हैं। चने की, मूंग की, तुअर की, उड़द की, मटर की, उसमें भी छिलके वाली, बिना छिलके वाली, पॉलिश वाली, बिना पॉलिश वाली, फिर मसूर की दाल को इतना महत्व क्यों?
उनके मस्तिष्क में सहसा ही एक पूरक प्रश्न कौंधा कि कल फिर किसी ने पूछने का साहस कर लिया कि छाती पर मूंग ही क्यों दली जाती है, मसूर, उड़द या तुअर क्यों नहीं, तब इसका उत्तर भी क्या होगा? इन दोनों दालों में क्या कोई अंतर्संबंध है, कहीं दाल-दाल मौसेरी बहनें तो नहीं?
ज़्यादातर दालें रंग में पीली होती हैं किंतु यही दाल ऐसी है, जो भीतर से लाल रंग लिए होती है। लाल रंग मानव जाति का प्रिय रंग है। बाहर के आवरण को उठाते-हटाते ही लाल रंग के दर्शन शुभ माने जाते हैं। सूर्योदय की लालिमा तो लाभदायी, रुचिकर, मनोहारी है ही, सूर्यास्त की लालिमा भी कम दर्शनीय नहीं होती और उसके बाद भोर काल तक लालिमा के सानिध्य के तो कहने ही क्या!
इस कहावत में मसूर की दाल जैसे दाल न रहकर प्रतिष्ठा की बात बन गई है। वह भी उस विशेष रूप से वर्णित कुछ लोगों के उस कथित मुँह के लिए।
अन्य दालों की तुलना में पहले मसूर की दाल बहुत सस्ती थी। अर्थात अन्य दालों की तुलना में उसकी कोई औक़ात नहीं थी। गाँव के ब्राह्मणों में दलितों जैसी। आज भी दालों का जो भाव चल रहा है, उसमें चना, मूंग, तुअर, उड़द की तुलना में मसूर की दाल सबसे गिरी हुई है। क्या मनुष्य इसी दाल के साथ रोटी खाकर प्रभु के गुण गाता होगा?
प्रोटीन के स्तर पर भी अन्य दालों की तुलना में मसूर की दाल को देखा-परखा जा सकता है। यहाँ भी यह अन्य दालों से श्रेष्ठ सिद्ध नहीं होती। दुख बीमारी में भी मूंग की दाल का ही सेवन किया जाता है। फिर यक्ष प्रश्न यही है कि इतनी दालों के होते हुए भी किसी अन्य दाल के नाम पर यह कहावत क्यों नहीं बनी? जबकि उड़द, मूंग और तुवर की प्रतिष्ठा मसूर की तुलना में कहीं अधिक है। वे लोकजीवन में अधिक प्रचलित हैं। अधिक प्रतिष्ठित हैं। फिर इस कहावत में मसूर की दाल ही क्यों? इसे इतना साहित्यिक भाव क्यों?
मसूर की दाल की प्रकृति आयुर्वेदाचार्यों की दृष्टि में भी कुछ विशेष नहीं है। यह दाल छिलके सहित खाई जाती है। खड़ी भी बनती है। हाँ, दालमोठ में अवश्य मसूर की दाल का इस्तेमाल होता है। क्या पहले राजा महाराजा केवल इसी का उपयोग करते थे? क्या इसी के माध्यम से वह क्षीण होती हुई शक्ति बढ़ाने का प्रयास करते थे? इसलिए इसे महत्वपूर्ण माना गया। इस कहावत के अनुसार मसूर की दाल, दाल न होकर प्रतिष्ठा की बात बन गई है। वह भी इस कहावत में वर्णित उस विशेष मुँह के लिए। शायद इसीलिए छोटे मुँह, बड़ी बात का मुहावरा भी गढ़ा गया।
नारायणण्ण् नारायणण्ण्ण्! चिरपरिचित ध्वनि कान में गूंजते ही देवी की तंद्रा टूटी। नज़र उठाते ही देवी को निकट आती हुई नारद की छवि दिखाई दी। उन्हें देखकर देवी ने पिछले चौबीस घंटे में सुख-संतोष की पहली साँस ली। सामने प्रकट होते ही सावधानीपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। नारद अलौकिक दुनिया के प्रथम पत्रकार थे। देवी की शक्ल देखते ही भाँप गए कि मामला कुछ गड़बड़ है। आदतन पूछ बैठे- क्या बात है, देवी कुछ परेशान हैं? देवी तो प्रश्नातुर बैठी थीं। छूटते ही समस्या का रोना रोकर समाधान करने का अनुरोध किया। नारद पूरी बात जानकर अचंभित हुए। वह भी पुराने घाघ पत्रकार थे। देवों-दानवों की अनेक पीढ़ियों को तारते हुए राजनीतिक पत्रकारिता का एक-एक पाठ रट चुके थे। उन्होंने बिना किसी उत्तेजना के देवी से धैर्य धारण करने का अनुरोध किया। तर्क, वितर्क, कुतर्क की स्थितियों से ऊपर उठने का इशारा करते हुए नारद ने देवी से कहा- जब तक कोई निर्णय न हो, तब तक आप उसकी याचिका को स्वीकार करते हुए इस कहावत के प्रयोग-प्रचलन पर रोक लगा दीजिये। इस कहावत की प्रासंगिकता उपयोगिता को दृष्टिगत रखते हुए किसी भाषा साहित्य अकादमी के अध्यक्ष को इसकी जाँच का दायित्व सौंप दीजिये। याचिकाकर्ता को पत्रोत्तर में पत्र भेजकर सूचित कर दीजिये कि आपके पत्र पर यथोचित कार्यवाही की जा रही है और उसके परिणाम से यथा समय सूचित किया जावेगा। वह भी शांत होकर बैठ जायेगा। समस्या का चुटकियों में हल होते देखकर देवी ने हर्षित स्वर में कहा- ऐसा ही किया जाएगा देवर्षि। आपने तो कमाल ही कर दिया।
इसमें कमाल कुछ भी नहीं है देवी। आपने कभी भरत भूभाग का भ्रमण नहीं किया। वहाँ सभी समस्याओं का ऐसा ही निदान किया जाता है।
जो भी हो ऋषिवर, मेरी समस्या का निदान तो हो ही गया। आपको बारंबार नमन।
नारद के प्रस्थान करते ही देवी ने उनके कहे अनुसार यथोचित कदम उठाए। उनकी कृपा से बने अनेक साहित्यिक अकादमियों के अध्यक्ष भी समस्या का स्थायी हल ढूढ़ने में उनकी कोई सहायता नहीं कर सके। पी.एचडी धारी और पी.एचडी के विद्वान गाइड बगलें झाँकने लगे परंतु समस्या जस की तस बनी रही। तब से आज तक कोई अंतिम परिणाम मेरी आँखों के सामने नहीं आया। कहावत जनप्रचलन में बदस्तूर बनी हुई है। मैं भी जानता हूँ और आप भी। इसलिए यह तुच्छ लेखक इस पर प्रश्नचिन्ह लगाने या कुछ ऐसा लिखने को तैयार नहीं है, जिससे माँ सरस्वती का कोपभाजन बनना पड़े। आखिर मुझे भी इसी धंधे में रहकर किसी साहित्यिक अकादमी का अध्यक्ष बनने की अपनी चिर कामना की पूर्ति करनी है न!
– डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल