कथा-कुसुम
लघुकथा- धरती के आँसू
“आज फिर लोक निर्माण विभाग के जे.ई. करन सिंह अलसुबह ही मेरे घर की ओर क्यों चले आ रहे हैं?” मन ही मन कुछ सोचकर किसना किसान नीम-दातून करता हुआ अपना सिर खुजाने लगा था। सोचने लगा था वह…।
“बचे खुचे चार ही खेत रह गए हैं अब तो। अब नहीं बेचूंगा भैया रे। सारा दिन ख़ाली बैठे-बैठे मेरा तो सरीर ही जाम हो रिया है। ऊपर से मरी ये सराब की लत; ना जीने देवै है ना मरन दे है।”
“रोज ही कलेश होन लगा घर में…माया का लोभ जीने भी ना देता है। अब ना भई!!”
“अरे! समझा करै हैं बात नै। गरमी में या धरती फुक जावै है बिल्कुल। पसीने हमें तो आवै हैं धरती भी आँसू बहावै है जी। लोग मजे में सोवै हैं ए.सी. में अर तुम किसान; मेहनत बस थारेई भाग में लिक्खी है के! मौज करैं सारे अर थारे वारे न्यारे।”
बरसात में कोई ठिकानाई ना है मुसीबतों का। कभी बाढ़ तो कभी बूंदा-बांदी। तो क्या ऐसे खेती होवै अब? अपने आराम की भी तनिक सोच ले। थारा भी तो आराम से जीने का हक है ना जी! लागत कीमत भी ना मिलती फसल की अब तो।” जे.ई. धाराप्रवाह बोलते हुए अपनी मंशा किसना पर थोपने का असफल प्रयास कर रहा था।
तभी रसोई से निकलकर पानी का गिलास लिये हुए शीला तेजी से आई और फुफकारते हुए बोली-
“बस बहुत हो गया बाबू जी! अब तो हम वोई हरे-भरे खेत देखना चाहवैंगे अपने पहले जैसे। गेहूं की सुनहरी बालियाँ देखे आठ बरस होरे हैं। ताजे भुट्टों का कैसा मीठा स्वाद होवै था! बैसाखी पे गेहूं की बालियाँ पूजै हीं। देस की धरती सोना उगलै थी। नास हो रिया है अब तो सब ओर बाग, जंगल, खेत, खलिहान, हल, बैल, चौपाए सभी खतम से हो गए जी। धरती रोवै ना तो के करै? ये सारी बिपदाएं म्हारी खुद की बुलाई हैं। बस भी कर दो जी अब। ना तो या धरती माता बुरी तरा डोलेगी सबने ले डूबैगी जी। हाहाकार मच जावैगी दुनिया में।”
“संतान जब ज्यादा परेसान करन लागै है तो माँ भी जार-जार रोवै है जी। उसका एक-एक आँसू अनमोल होवै है। मत बहन दो अब धरती के आँसू बाबू जी।”
शीला के जुड़े हुए हाथों को पकड़कर करनसिंह उठते हुए बस दो टूक बोले- “नहीं रोएगी धरती अब।”
शीला ने झुककर भू-माता को चूमकर कहा- “धरती माता की जय।”
– डॉ. अंजु लता सिंह