लघुकथाएँ
आतंकवाद के गुरु
“सर, संसद में बम ब्लास्ट के प्लान में शामिल एक आतंकवादी पकड़ा गया है।”
“अच्छा, अभी चलो।”
बैरक में आतंकवादी जंजीरों से बंधा हुआ था। साहब ने डंडा उठाया और कई बार पीटने के बाद पूछा, “बता, कौन है तेरा मास्टर, किसका चेला है तू?”
एक पल की शांति, फिर ठंडी आवाज़
“मेरे चार गुरु हैं, पहला मेरे निर्दोष पिता द्वारा मालिक के बारे में कुछ जान जाने पर उनकी हत्या, दूसरा मेरी माँ का राजनेताओं द्वारा शोषण, तीसरा तुम जैसे पुलिस वालों द्वारा केस रफा दफा और चौथा भूख।”
देशभक्त
शहर का दृश्य देखकर वो चकित था, वो चाहता था कि साम्प्रदायिक दंगे हों, लेकिन यहाँ तो उल्टे सब एक साथ थे। एक सम्प्रदाय के देवता की यात्रा निकल रही थी तो दूसरे के लोग वहीँ ज़मीन पर बैठ नमाज़ पढ़ रहे थे, दो अन्य सम्प्रदायों के लोग भी वहीँ खड़े थे।
उसने एक सम्प्रदाय वाले से पूछा कि, “दूसरे सम्प्रदायों के लोगों को मारोगे तो नहीं?”
उसे जवाब मिला, “हमारे देवता की यात्रा है, उन्होंने कभी नहीं कहा कि चुपचाप बैठे इंसानों को मारो।”
एक अन्य सम्प्रदाय के व्यक्ति से पूछा तो उसने कहा, “नमाज़ के वक्त नमाज़ी सिर्फ खुदा को याद करता है।”
तीसरे सम्प्रदाय के व्यक्ति ने कहा कि, “हमारा उद्भव तो केवल रक्षा के लिये हुआ था।”
चौथे सम्प्रदाय के व्यक्ति से पूछने पर उत्तर मिला कि, “हमारे मसीहा ने सूली पर चढ़ना सिखाया है, मारना नहीं।”
अंत में थक कर उसने सबसे पूछा “क्या वातावरण था, सब आराम से अलग-अलग अपने अनुसार रहते थे। आखिर तुम सब इकट्ठे हो कर क्या बना रहे हो?”
सभी का प्रत्युत्तर एक साथ आया, “भारत का नक्शा!”
निर्माताओं से मुलाक़ात
वो मुझे साथ लेकर गया, उसे चुपचाप इंसान ढूंढना था।
सबसे पहले उसने मिलाया एक नामी शिक्षक से, जो बात करने में तेज़ था, लेकिन खुद नकल कर के उत्तीर्ण होता था।
फिर उसने मिलाया एक बड़े चिकित्सक से, जो अपनी चिकित्सा की पद्धति को सबसे अच्छा कहता और बाकी को बुरा।
फिर मिलाया तीन भिखारीयों से, जो अपने धर्म का हवाला देकर भीख मांगते थे और रोज़ रात को खुदके परिवार वालों को ही नशे में मारते।
उनमें से एक का नाम भीखू था, दूसरे का प्रवचन और तीसरे का नेता।
आखिर में मिलाया एक लाश से, वो खुद तो चुप थी, लेकिन उसके घर के लोगों का क्रन्दन बहुत तीव्र था, हालाँकि उनके मन में धन का हिसाब चल रहा था।
उसने आखिरकार चुप्पी तोड़ी, “ऐसा लगता है कि इंसान को मैं तत्वों से नहीं, दूसरों के शब्दों से बना रहा हूँ|”
इंसान जिन्दा है
वो अपनी आत्मा के साथ बाहर निकला था, आत्मा को इंसानों की दुनिया देखनी थी।
वो दोनों एक मंदिर में गये, वहां पुजारी ने पूछा, “तुम हिन्दू हो ना!” आत्मा हाथ जोड़ कर चल दी।
और एक मस्जिद में गये, वहां मौलवी ने पूछा, “तुम मुसलमान हो ना!” आत्मा ने मना कर दिया।
फिर एक गुरूद्वारे में गये, वहां पाठी ने पूछा, “तुम सिख तो नहीं लगते” आत्मा वहां से चल दी।
और एक चर्च में गये, वहां पादरी ने पूछा, “तुम इसाई हो क्या?” आत्मा चुपचाप रही।
वो दोनों फिर घर की तरफ लौट गये। रास्ते में उसकी आत्मा ने कहा, “इंसान मर गया, सम्प्रदाय ज़िन्दा है।”
उसने कहा, “नहीं! “इंसान ज़िन्दा है। सभी जगह सम्प्रदाय नहीं होते।”
यह कहकर वो आत्मा को पहले एक अस्पताल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे ‘रोगी’ ठीक होने आये थे।
और फिर एक जेल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे ‘कैदी’ थे।
और मदिरालय लेकर गया, जहाँ सब के सब ‘शराबी’ थे।
और एक विद्यालय लेकर गया, जहाँ ‘विद्यार्थी’ पढ़ने आये थे।
अब आत्मा ने कहा, “इंसान ज़िन्दा तो है, लेकिन कुछ और बनने के बाद।”
गिरने की कीमत
दो गायक महीनों बाद सवेरे की सैर पर साथ निकले।
एक ने पूछा, “तुमने शास्त्रीय संगीत छोड़कर ये घटिया राग अलापना क्यों शुरू किया?”
दूसरे ने कहा, “शास्त्रीय संगीत ने आत्मा को चैन और अमन की दौलत दी, लेकिन मेरी पत्नी और बच्चे भूखे रहे। अब मेरे गानों को गली में घूमने वाले गाते हैं, पान की दुकानों और वाहनों में बजते हैं, बच्चे उन पर नृत्य करते हैं और अब देखो कल ही ये खरीदा है।”
उसने एक बड़े से मकान की ओर इशारा किया, जिसे देखते ही पहले के फटे कपड़ों में से शास्त्रीय संगीत की आत्मा निकल छूटी।
– चंद्रेश कुमार छतलानी