लेख
गणतन्त्र की जननी वैशाली: भुवनेश्वर शुक्ला
गणतन्त्र की जननी, चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर की जन्मभूमि, भगवान बुद्ध की कर्मभूमि और महान नृत्यांगना, अनिद्य सुन्दरी आम्रपालि की रंगभूमि होने के कारण वैशाली विश्व प्रसिद्ध है। राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तम्भ यहाँ के गौरवशाली अतीत का साक्षी बना हुआ है। वैशाली ने ही सर्वप्रथम पूरे विश्व को शान्ति, अहिंसा और विश्व बन्धुत्व का पाठ पढा़या।
रामायण एवं विष्णुपुराण के अनुसार वैशाली नगर की स्थापना इक्ष्वाकु पुत्र विशाल नाम के राजा द्वारा हुयी, अतः इस नगर का नाम वैशाली पड़ा। दूसरे मत के अनुसार लिच्छवी गणतन्त्र बहुत विशाल भू-भाग में फैला था, इसलीये इसकी राजधानी का नाम वैशाली पड़ा। आदिकाल में वैशाली में राजतन्त्रीय शासन पद्धति थी। रामायण के अनुसार कोशल के राजा दशरथ और विदेह के राजा सीरध्वज जनक के समकालीन वैशाली के राजा सुमति थे। इन्हीं के समय विश्वामित्र राम और लक्ष्मण वैशाली आये थे, जब राम नौका द्वारा गंगा नदी पार कर रहे थे, तब उत्तर की ओर स्थित वैशाली के स्वर्णजड़ित गुम्बद तथा कंगूरों पर उनकी नजर पड़ी और उन्होंने उत्सुकता से इस समृद्धिशाली नगरी के विषय में अपने गुरु विश्वामित्र से पूछा। विश्वामित्र ने वैशाली का इतिहास बताते हुए कहा कि हे राम! यह वही भूमि है, जहाँ देवता और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन के विषय में मंत्रणा की थी। यह वही भूमि है जहाँ देवराज इन्द्र ने निवास किया था। यहाँ दिती ने तपस्या की थी। यही राजा तृणबिन्दू और उनकी पत्नी अलम्बुषा के पुत्र विशाल ने अपनी राजधानी स्थापित की थी। गुरु विश्वामित्र राम और लक्ष्मण एक रात समृद्धशाली वैशाली नगरी में ठहरे। राजा सुमति का आदर सत्कार प्राप्त कर दूसरे दिन तीनों लोगों ने मिथिला नगरी को प्रस्थान किया।
वैशाली का वृज्जिसंध अपने गणतन्त्रीय संविधान के लिये विश्व प्रसिद्ध है, उस समय लिच्छवि सर्वाधिक प्रसिद्ध थे इसीलिये इसे लिच्छविगण भी कहते थे।
केन्दीय कार्यपालिका में राजा, उपराजा, सेनापति और भंडागारिक होते थे। नौ गणराज्यों की एक समिति होती थी, जो विशेषकर राज्य विभाग देखती थी। केन्द्रीय विधानमंडल को संस्था कहते थे। जहाँ इसका अधिवेशन होता था, उसे संस्थागार कहते थे। (आज की संसद) इसके सदस्यों की संस्था 7707 बतायी गयी है। संस्थागार का प्रत्येक सदस्य राजा कहलाता था और उसे एक उपराज, एक सेनापति एवं एक भंडागारिक दिये जाते थे। प्रत्येक सदस्य का अभिषेक होता था, अभिषेक के लिये एक अभिषेक मंगल पुष्करणी थी। इसके जल से राजाओं का अभिषेक न होने पर राजाओं का अभिषेक सम्पूर्ण नहीं माना जाता था। सरोवर जल को लिच्छवि राजाओं के अलावा दूसरा कोई छू भी नहीं सकता था। पुष्करणी के बाहर और भीतर बड़ा ही जबरदस्त पहरा होता था। ऊपर से ताम्बे का जाल बिछा हुआ था जिससे कि उड़ते हुये पंछी तक उसमें चोंच न डूबा सकते थे। (यह अभिषेक पुष्करिणी अब भी है) लिच्छवियों की न्याय प्रणाली की बहुत प्रशांसा होती थी, क्योकि कई कचहरियाँ एक के ऊपर दूसरी बनी हुई थीं, इनमें से कहीं भी अपराधी निर्णय के अनुसार मुक्त हो सकता था, राजा न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिकारी था, भगवान महावीर की जन्मस्थली कुण्डपुर (वासोकुण्ड) का भूमि को अहल्य माना जाता है। उस पर कभी भी हल नहीं चलाया गया, वर्तमान में भी नहीं चलता है। महावीर की जन्मस्थली होने के कारण लोग उसे पवित्र मानकर वहाँ दीपावली को अर्थात महावीर स्वामी के निर्वाण के दिन दीपक जलाया करते हैं।
जब जब वैशाली का वर्णन होगा तो महान नृत्यांगना तत्कालीन विश्वसुंदरी आम्रपाली को कैसे भुलाया जा सकता है। आम्रपाली उस समय विश्वसुन्दरी थी, वैशाली की नगर वधू थी, जिनको पुरुषों को रिझाने में पूर्ण दक्षता प्राप्त थी। रुप, विद्या, गायन, वादन, नृत्य का अवर्णनीय समन्वय थी। आम्रपाली वैशाली की अद्वितीय नारी विधाता की अनुपम पहली और आखिरी कृति थी। आम्रपाली शकुन्तला की ही भांति आम्रपाली को भी उसकी माँ ने जन्मते ही एक आम के बाग में फेंक दिया था। भोर प्रहर महार्षि महानामन नामक एक पूर्व लिच्छवि नायक हमेशा की तरह ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करने जा रहे थे कि एक शिशु के रुदन ने उनको विचलित कर दिया। वो भजन पूजन भूलकर उस शिशु कन्या को अपने आश्रम ले आये। महर्षि पत्नी को कोई सन्तान न थी, इसीलिये उन्होंने उसे अपना लिया और आम्रपाली नाम रखा, क्योंकि वह आम्रकुंज में मिली थी। आम्रपाली को सभी विद्याओं की शिक्षा दी गयी, चाहे वह गृहकार्य हो, नीति या दर्शन का विषय हो, गायन या नृत्य हो या रुपसज्जा, वह सभी गुणों में दक्ष थी। मगध नरेश बिम्बिसार ने आम्रपाली की बहुत प्रशांसा सुनी थी। सम्राट भी आम्रपाली से मिलने को उतावले थे लेकिन राजनीतिक स्थिति विकट थी। मगध में राजतन्त्र था और वैशाली में गणतन्त्र अतः दोनों राज्यों में वैचारिक द्वन्द एवं उठापटक थी। बिम्बिसार के लिये वैशाली में आना कठिन था और आम्रपाली के लिये वैशाली से बाहर जा पाना असम्भव था।
वेश बदलकर सम्राट बिन्बिसार वैशाली पहुचे। सात दिन, सात रात वे आम्रपाली के सप्तभूमि प्रासाद नामक महल में ठहरे। बिम्बिसार से आम्रपाली को एक पुत्र भी हुआ, जिसे उसने बिन्बिसार के पास भेज दिया था। वह बालक भय का नाम तक नहीं जानता था, इसी कारण उसका नाम अभय पड़ा। पाटलिपुत्रा (पटना) नगर का उद्घाटन करने के बाद भगवान बुद्ध वैशाली नगरी पहुचे और उधर आम्रपाली वन में विहार कर रही थी। आम्रपाली ने विनयपूर्वक भिक्षु संघ के साथ भगवान बुद्ध को अगले दिन के भोजन के लिये आमन्त्रित किया, जिसे भगवान बुद्ध ने स्वीकार कर लिया। तब आम्रपाली ने उठकर प्रस्थान किया। इसके बाद लिच्छवी गणों ने लाख प्रयत्न किया कि आम्रपाली अपना निर्णय बदल दे ताकि भगवान बुद्ध उनका निमंत्रण स्वीकार कर सकें लेकिन आम्रपाली ने अपना निर्णय नहीं बदला। दूसरे दिन आम्रपाली ने उत्तम भोजन पदार्थ खुद परोसकर भगवान बुद्ध और प्रमुख भिक्षु संघ को खिलाया। इसके बाद आम्रपाली ने बुद्ध से पूर्ण श्रद्धा और भक्ति के साथ उपदेश ग्रहण किया। इसके साथ ही आम्रपाली भी भिक्षुणी संघ में शामिल हो गई। वैशाली में पुरातत्व और इतिहास की दृष्टि से अनेक दर्शनीय स्थल हैं। बासोकुण्ड में महावीर स्वामी का जन्म स्थान, कम्मन छपरा में चौमुखी महादेव, राजा विशाल के गढ़ के भग्नावशेष, बावन पोखर का पुराना मंदिर तथा नवनिर्मित जैन मंदिर अभिषेक पुष्करिणी भगवान बुद्ध का अवशेष स्तूप, कोल्हुआ का अशोक स्तम्भ, वैशाली सग्रंहालय, विश्वशान्ति स्तूप आदि।
प्रत्येक वर्ष को महावीर जयंती को वैशाली महोत्सव भी मनाया जाता है। कुल मिलाकर वैशाली का इतिहास ऋग्वेद से शुरु होकर आज तक किसी न किसी रुप में शान्ति अंहिसा और कला संस्कृति के उत्कर्ष की कहानी कह रहा है। कहा तो यह भी जाता है कि अगर सत्ता का शीर्ष राजधानी दिल्ली है तो सभ्यता और संस्कृति की राजधानी वैशाली की यह पावन भूमि है। अन्त में मैं अपनी ही पंक्तियो से यह कहना चाहता हूँ। कि
रुको रुको ऐ राही श्रद्धा से शीश झुकाते जाओ
राजा विशाल की नगरी वैशाली को
फूल चढा़ते जाओ, चुन चुनकर बगिया से
पुण्यप्रतापी वैशाली नगरी पर,
रुको-रुको ऐ राही श्रद्धा से शीश झुकाते जाओं
लोकतन्त्र की इस जननी को
शीश झुकाते जाओ, बुद्ध की कर्मभूमि
और महावीर की जन्मभूमि को
– भुवनेश शुक्ला