कथा-कुसुम
आरती का थाल
“लो कविता, तुम आरती उतारो!”
आरती का थाल रेणु से ले; भाभी ने कविता को थमा दिया।
रेणु रूआँसी हो अपने मनोभाव को चुपचाप छिपा गयी।
शादी में सब रस्में निभायी जा रही थीं। रेणु भी बहुत उमंग के साथ आगे बढ़ सब नेकचार करने को उतावली हो जैसे ही आगे आती
भाभी किसी न किसी अंदाज़ में उसे पीछे कर अनदेखा कर अपने मायके वालों से सब रस्में करा रही थी।
आरती का थाल यूँ अपने हाथ से लेते देख एकबारगी को तो उसे लगा था कि वह रो ही पड़ेगी।
उसको रह-रह कर याद आ रहा था। जब भतीजे की शादी के रिश्ते का पता चला था।
उसने कितने चाव से शादी में आने की तैयारी की थी। नये कपड़े, गहनें सब नये लिये थे। शादी के सप्ताह भर पहले ही आने के लिए रमेश से ज़िद्द भी की थी। रमेश ने उसे समझाया था कि इतनी जल्दी जा कर क्या करोगी पर वह नहीं मानी थी। उसने कहा था- अगर मै ही अपने घर की शादी में नही जाऊँगी तो कौन जायेगा। पता है जब भाई की शादी हुई थी। बुआ महीना भर पहले आ गयी थी, सब रस्में भी तो मुझे ही करानी होंगी। मैं बुआ जो ठहरी। और रमेश से यह कह कि तुम दो दिन पहले आ जाना। मायके चली आयी थी। जब से आई भाभी की हर बात में उस की अनदेखी से वह बहुत दुखी थी।
तभी उसके कन्धे पर हाथ रख; किसी ने कहा- रेणु क्या सोचने लगी?
उसने पलट कर देखा, रमेश उसका हाथ हिला रहे थे।
रेणु की आँखें गीली देख सब समझ गये।
“रेणु तुम को कहा था न ज़्यादा अपेक्षा रखना ठीक नहीं।”
“हाँ, सही कहा था अपने….!”
“भगवान शिव ने मना किया फिर भी माँ पार्वती ने नहीं माना और अपमानित हुईं। फिर मैं तो इंसान हूँ।” यह कह रेणु नेकचार पर ध्यान न देते हुए रमेश के साथ बैठकर बातें करनें लगी।
– बबीता कंसल