व्यंग्य
अब मार्च का मौसम रुलाता बहुत है- अरुण अर्णव खरे
वर्षों पहले एक नाभि-दर्शना नायिका को पर्दे पर गाते देखा था- “तेरी दो टकिया की नौकरी/ मेरा लाखों का सावन जाये।” सावन को इतना सम्मान देने वाली नायिका की करुण पुकार ऊपर वाले ने सावन में सुनी हो या ना सुनी हो पर मार्च के महीने या कहें वित्तीय-वर्ष समापन के मौसम में ज़रूर सुन लेता था और दो टके सावन पर कुर्बान कर देने का जज़्बा दिखाने वाले पिया की झोली लाखों से भर देता था। समय के साथ नौकरी दो टके की रही नहीं और लाखों के सावन का सामना भी लाखों के पैकेज से होने लगा। ना ही अब वैसी झड़ी लगती है और ना ही सावन के लिये लाखों की नौकरी की कुर्बानी माँगने का साहस नायिका कर पाती है। नायिका भी पहले जैसी फ़ुरसतिया नहीं रही कि पिया के इन्तज़ार में बैठी गाना गाती रहे। वह स्वयं भी लाखों की नौकरी करने लगी है। अब उसे ना सावन का भान रहता है और ना ही बसन्त लुभाता है और तो और मार्च का महीना पास आते ही उसे लक्ष्य और लाखों के पैकेज की चिन्ता सताने लगती है।
पहले शरद, पावस और बसन्त की भाँति ही मार्च का महीना भी किसी मौसम से कम नहीं होता था। ये मौसम सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों के लिये खुशियों की अगाध सौगात लाता था। पत्नियों के लिये यह महीना उत्सव का मौसम होता था। पति लोग उत्साह से रात-रात भर काम करते थे। घर लौटते तो दो टके की नौकरी का उलाहना देने वाली पत्नियाँ हालचाल बाद में पूछतीं, जेबें पहले टटोलने लग जाती थीं। उनकी कितनी ही उम्मीदें मार्च के इसी मौसम में फ़लीभूत होती थीं।
नायिका जब छोटी थी तो उसे भी मार्च का मौसम अत्यन्त सुखकारी लगता था। एक तो स्कूल से छुट्टी और पापा भी मार्च के अन्त तक उसकी सारी फ़रमाइशें पूरी कर दिया करते थे। नये-नये कपड़े और खिलौनों के साथ उसे नई सायकिल तक मिल जाती थी। समय के साथ वह सरकारी कर्मचारियों के लिये मार्च के महीने का महत्व समझने लगी थी। इस महीने में उसने घर में पैसों की कमी नहीं देखी थी। पिताजी को देर रात तक काम करते देखा था। माँ को भी नई-नई साड़ियों और गहनों में चहकते देखा था। समूचे घर का कायाकल्प भी इस मौसम में हो जाया करता था। नए पर्दों से लेकर नया टीवी, फ्रिज, वीडियो-प्लेयर और सोफा तक घर पर आ जाता था। जिस तरह किसान अच्छी बारिश के लिये बादलों की और आशा भरी निगाहों से देखा करता था, उसी तरह सावन में नख-शिख तक जलने वाली नायिका मार्च आते-आते एक धन-बारिश की कामना में लग जाती थी- जो तन को आग तो नहीं लगाती थी अपितु मन की आग बुझा ज़रूर देती थी। अच्छी बारिश से जहाँ किसान खूब फलता-फूलता था, वहीं अच्छे मार्च से सरकारी अफसरों की बीवियाँ। अफसर बिचारे खटते रहते थे। उन्हें अपना गला भी तरीके से तर कर पाने के लिये अप्रेल का मुँह ताकना पड़ता था।
मार्च का मौसम तो अब भी आता है पर अब सुहाता कम और डराता ज़्यादा है। नौकरीपेशा लोगों को तो छोड़िए, महिलाओं और बच्चों तक को इस मौसम में डरावने सपने आने लगे हैं। बच्चे एल.के.जी. से ही अच्छे केरियर का बोझ सिर पर लिए बड़े हो रहे हैं। मार्च में होने वाला इम्तिहान उन्हें केवल डराने आता है। पहले बच्चा सेकण्ड डिवीजन में भी पास होकर सबका चहेता बन जाता था पर अब तो शत-प्रतिशत से ज़रा-सा कम पर्सेण्टाइल देखकर भी माँ-बाप का चेहरा लटक जाता है। बच्चों के पास तो खेलने-कूदने का भी समय नहीं है। मार्च में एग्जाम हुए नहीं कि स्कूल फिर से खुल जाते हैं। थोड़ी बहुत जो छुट्टियां उन्हें मिलती भी हैं तो वे भी अति संवेदनशील मॉम-डेड की कृपा से संगीत, पेंटिंग, क्रिकेट या ऐसे ही किसी दिखावटी शौक में झोंक दी जाती हैं। अब बच्चे करें भी तो क्या करें- हरेक की अपनी सीमा होती है- हर कोई आई.आई.टी, आई.आई.एम. या ए.आई.पी.एम.टी. में तो सेलेक्ट हो नहीं सकता। ना हर कोई तेंदुलकर या कपिल देव बन सकता है। आकांक्षाओं के इतने बोझ तले बच्चे डरेंगे नहीं तो और क्या करेंगे। कमजोर दिलवाले और सेंसटिव टाइप के बच्चे तो डरकर दुनिया को ही अलविदा कह जाते हैं फिर भी कोई कुछ समझने को तैयार नहीं है।
मार्च में नायिका पति के घर आने पर सबसे पहले उसकी जेबें देखा करतीं थी, अब उसका लटका हुआ चेहरा देखकर आशंकित हो उठती हैं कि अगला करवाचौथ मना पाएगी कि नहीं। जो महिलाएँ नौकरी करने लगीं हैं, उन्हें नौकरी चले जाने की चिन्ता खाए जाती है- बच्चों को देखें, सासू की बातें सुने या पति को खुश रखें। सावन में पति की नौकरी को कोसने वाली नायिका, पल्लू में तरह-तरह के दवाब बाँध कर फागुन में भी पति से दूर-दूर भागती फिरती है। अब उसे ना सावन जलाता है और न फागुन गुदगुदाता है।
पुरुष भी मार्च में कम परेशान नहीं रहता। टारगेट पूरा ना कर पाने का भय उसे हरदम सताता रहता है। मार्च में तो यह भय बौखलाहट में बदल जाता है। वित्तीय प्रबंधन के नाम पर सरकारें मार्च में भुगतान पर रोक लगाकर मार्च के सुहाने मौसम को पहले ही दूसरे आषाढ़-सा दुखदायी बना चुकी हैं। सावन के अन्धे को हर जगह हरा-हरा दिखता है यह मात्र कहावत नहीं थी, मार्च के मौसम में भी उसे भरपूर हरियाली मिल जाती थी देखने को- पैसों की गर्मी के बावजूद मार्च अपनी तपन का अह्सास नहीं कराता था पर अब तो जेठ-सा लगने लगा है यह मुआ मार्च का महीना।
पति-पत्नि कमाते हैं तो जाहिर है घर में सम्पन्नता बढ़ी ही होगी। सब कुछ है घर में पर बच्चे आया के हवाले से बड़े हो रहे हैं या फिर बुढ़ा गयी सास पोते पालने के लिए जवानी वाली माँ के रोल में फिर से अवतरित हो गयी है। याद नहीं आता पति-पत्नि कब आखिरी बार हाथों में हाथ डाल कर पार्क में टहले हों, परिवार के साथ बैठ कर खिलखिलाए हों, दोस्तों की महफिल में ठहाके लगाए हों या बच्चों के लिये घोड़े बने हों। अल-सुबह अपने काम पर निकल जाने वाले पति-पत्नि देर शाम से पहले शायद ही कभी लौटकर आते हों। वीक एण्ड पर किसी मल्टीप्लेक्स में लेट-नाईट का शो ही उनका एकमात्र मनोरंजन है। आपाधापी में उन्होंने ना कभी उगते सूरज का आनन्द लिया और ना ही चाँदनी रातों में नौका-विहार की ही कल्पना की। सावन क्या अब तो हर मौसम आता है और चला जाता है- ना कहीं कोई चर्चा और ना ही कोई सुगबुगाहट। शरद की शहदीली रातें और बसन्त के खुशगवार दिन केवल कवियों के लिए ही रह गए हैं। कवि भी परेशान है कि लिख तो लिया पर अब सुनाएँ किसे। जिजीविषाओं के अजीब मकड़जाल में उलझे नायक-नायिका को अब हर मौसम एक-सा लगता है। कभी खुशगवार लगने वाला मार्च का मौसम तो हर दिन सोते-जागते बुरे सपने दिखाता है, वह अक्सर सोचता है कितना अच्छा होता कि कलेण्डर में मार्च का महीना ही ना होता।
– अरुण अर्णव खरे