संस्मरण
पं. जसराज जी के साथ की वो मधुर स्मृतियाँ
संगीत के अनन्य उपासक पं.जसराज जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं फिर भी मैं उनके बारे में और उनकी उपलब्धियों के बारे में कुछ कहना चाहूँगी ।
पंडित जसराज जी का जन्म २८ जनवरी १९३० को एक ऐसे परिवार में हुआ जिसे ४ पीढ़ियों तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को एक से बढ़कर एक शिल्पी देने का गौरव प्राप्त है। उनके पिताजी पंडित मोतीराम जी स्वयं मेवाती घराने के एक विशिष्ट संगीतज्ञ थे।जब जसराज जी 4 वर्ष के थे तब उनके पिता जी का स्वर्गवास हो गया।
आप में से कुछ लोगों को यह पता होगा कि जसराज जी को उनके बड़े भाई महामहोपाध्य पं. मणिराम ने तबला की शिक्षा दी और उन्हें अपने साथ तबला बजाने के लिए साथ ले जाते थे । वह अनुभव करते थे कि तबलावादक या अन्य वादकों को उतना आदर नहीं मिलता था ।
1945 में लाहौर में कुमार गंधर्व के साथ एक कार्यक्रम में तबले पर संगत कर रहे थे कार्यक्रम के अगले दिन कुमार गंधर्व ने उन्हें डांटा था, ‘जसराज तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो, तुम्हे रागदारी के बारे में कुछ नहीं पता।’
।
उस दिन के बाद से उन्होंने तबले को कभी हाथ नहीं लगाया और तबला वादक की जगह गायकी ने ले ली। उन्होंने प्रण लिया कि जब तक व् शास्त्रीय संगीत मे विशारद नहीं कर लेते , अपने बाल नहीं कटवायेंगे। पूरी साधना हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को समर्पित कर उन्होंने संगीत की अनेक ऊँचाइयों को प्राप्त किया ।फलस्वरूप पंडित जी को सम्माननीय पुरस्कारों से विभूषित किया गया जिनमें- पद्मश्री, पद्मभूषण,पद्मविभूषण, कालिदास सम्मान, संगीत नाटक अकादमी रत्न-सदस्यता, महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार, शांतिनिकेतन की मानद उपाधि ‘ देसिकोत्तम’, उस्ताद हाफ़िज़ अली खां पुरस्कार, पंडित दीनानाथ मंगेशकर सम्मान, डागर घराना सम्मान, आदित्य विक्रम बिड़ला पुरस्कार, पंडित भीमसेन जोशी लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, सुमित्रा चरतराम लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान सम्मान विशेष उल्लेखनीय हैं।
उनके ढेरों रेकाॅर्ड्स, सीडीज और एल्बमों में उनका गायन देखकर यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने भक्ति को सर्वोपरि रखते हुए अपनी कला-साधना के ढेरों वर्षों को एक ऐसी आध्यात्मिक यात्रा में बिताया था, जिससे लगता है कि उन्हें गायिकी से मोक्ष पाने की कामना रही हो.
मुर्कियां, गमक, मींड और छूट की तानें उनकी गायकी की ख़ासियत हैं उनके सुरों का जादू कृष्ण की मुरली की तरह है. जो सुनता वह अपनी सुध-बुध बिसरा कर उनके संगीत रस में खो जाता ।
एक विलक्षण गायक थे पं.जसराज । कभी-कभी उनकी तैयारी देखकर यह अचम्भा होता था कि इतनी विशुद्ध रागदारी और स्वरों के लगाव को पण्डित जी कितनी तन्मयता से गाकर भक्ति गायन को अलौकिक बना देते थे ।
वे रागदारी में भी कठिन रागों, मसलन- गौरी, आसा मांड, अडाना, विलासखानी तोड़ी, अबीरी तोड़ी, हिण्डोल बसन्त आदि को गाते हुए भी पूरी तरह भक्ति भाव में रमे रहते थे ।
किंडलवुड कम्सुयूनिकेशंस की सीईओ सुनीता बुद्नधिराजा ने अपनी किताब “सात सुरों के बीच “ में बहुत ही हृदयस्पर्शी संस्मरण लिखते हुए कहा है “ “पं. जसराज के सुरों की पालकी पर चल कर बसंत आता है। तभी तो वे गाते हैं : और राग,सब बने बराती, दूल्हा राग बसंत। पर, बसंत तब आता है जब पं. जसराज उसे बुलाते हैं। बसंत तब आता है जब पंडित जसराज उसे गाते हैं।”
कृष्ण भक्ति साहित्य जसराज जी की गायिकी में पहली पसंद रही है. उन्होंने सूरदास, कृष्णदास, परमानंददास, छीतस्वामी और गोविंद स्वामी की पदावली खूब गाई है. स्वयं उन्होंने कहा ,” कई बार ऐसा होता है कि गाते-गाते स्वरों को खोजने लगता हूँ, ढूँढने लगता हूँ कि कहीं से कोई सुर मिल जाए. उस दिन लोग कहते हैं कि आपने तो आज ईश्वर के दर्शन करा दिए।”
सचमुच उनके भक्ति रस में पगे भजन सुन कर लगता है स्वयं कृष्ण, दुर्गाआदि उनकी उदात्तपुकार और तान सुन धरा पर अवतरित हो जायेंगे । सहज ही विश्वास होने लगता है कि तानसेन के दीपक राग से सचमुच दीपक प्रज्ज्वलित हो उठे होंगे ।
बहुत से लोगों को यह मालूम नहीं होगा कि पंडित जसराज ने अपनी जादुई आवाज़ में फ़िल्म 1920 का यह गाना ‘वादा तुमसे है वादा’ भी गाया था, जिसमें उनकी सुरीली आवाज़ ने आज की युवा पीढ़ी को मदहोश कर दिया था.
उन्होंने फिल्म ‘बीरबल माई ब्रदर’ (1975) में साउंडट्रैक दिया था
उन्होंने फिल्म ‘लाइफ ऑफ पाई’ के लिए एक साउंडट्रैक किया था, जो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और पश्चिमी संगीत का मिश्रण था।
वे पहले गायक थे जिन्होंने उत्तरी और दक्षिणी दोनों ध्रुवों पर कार्यक्रम दिया था
उन्होंने ख्याल गायकी में कई नए प्रयोग किए । जसराज जी ने जुगलबंदी का एक उपन्यास रूप तैयार किया, जिसे ‘जसरंगी’ कहा जाता है जिसमें एक पुरुष और एक महिला गायक होते हैं जो एक समय पर अलग-अलग राग गाते हैं। जसराज जी को अर्ध-शास्त्रीय संगीत शैलियों को लोकप्रिय बनाने के रूप में भी याद किया जाता है।
उन्होंने ओम नमो भगवते वासुदेवाय’, कृष्णभक्ति की स्तुतियों ‘मधुराष्टकं’और ‘अच्युचतं केशवम्’ को शास्त्रीय ढंग से गाकर भारत के घर-घर में पहुँचाया.
वे अष्टछाप के कवियों को गाते थे, ‘नवधा-भक्ति’ में डूबी हुई ‘आठों-याम’ सेवा के उपासक थे, जिसमें शरणागति की पुकार लगाना उनका प्रिय खेल था ।उनका भक्ति संगीत एवं गायन चंचल चित्त के लिये एकाग्रता की प्रेरणा होता तो संघर्ष के क्षणों में संतुलन का उपदेश।
पं. जी के गायन की समीक्षा करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है क्योंकि मैं न तो कोई संगीतज्ञ न संगीत समीक्षक हूँ पर संगीत प्रेमी अवश्य हूँ ।इसका प्रमाण है कि मैंने विवाह के 26 वर्ष के बाद खैरागढ़ विश्वविद्यालय से सितार में एम ए किया । मैंने कत्थक नृत्य की औपचारिक शिक्षा ली तथा कुछ समय बिरजू महाराज से भी प्रशिक्षण लिया । अनेक बार मंच पर एकल और लोक नृत्य प्रस्तुत किए । मुझे इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि मेरा परिवार संगीत में बहुत रुचि लेता है ।मेरा पौत्र जो 5 वर्ष की आयु से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीख रहा था अब 16 वर्ष की आयु में विदेश में रहने के बावजूद ऑनलाइन शास्त्रीय संगीत की तालीम जारी रख रहा है ।
अब चलिए पं. जसराज जी से जुड़े अपने कुछ संस्मरण आपसे साझा करती हूँ जो उनके संगीतज्ञ रूप से हट कर उनके व्यक्तित्व के सरल और संवेदनशील रूप से आपको रूबरु करायेंगे
1987 की बात है । मेरा भाई टोरोंटो से हम लोगों को यानी मेरे पिताजी आ. यशपाल जी जैन, माँ , मेरा व अपना परिवार लेकर न्यूयॉर्क पहुँचा । वहां वैदिक हेरिटेज जो हनुमान मंदिर भी कहलाता है वहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था थी । । मंदिर की संस्थापिका गुरू माँ श्रीमती विमला लूनावत जी थी । उन्होंने बाबूजी से कहा ‘बाबूजी दो दिन बाद पं. जसराज का गायन रखा है । मशहूर तबला वादक ज़ाकिर हुसैन संगत करेंगे । मेरी बहुत इच्छा है कि आप इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि रहें । “मैंने यह सुना तो एकदम उछल पड़ी पर बाबूजी ने अपनी असमर्थता जताई । क्योंकि हमें अगले दिन ही रवाना होना था और हमारा आगे का पूरा प्रोग्राम फ़िक्स था । गुरू माँ भांप गईं कि मेरा बहुत मन है तो मुझे पकड़ा , बोली,” अन्नदा, तुम बाबूजी को मनाओ ।”
मैं बाबूजी के पीछे पड़ गई और अड़ भी गई कि बाबूजी रुक जाइये ।ख़ूब समझाया कि मेरे लिए तो यह अत्यंत दुर्लभ अवसर है । हिंदुस्तान में तो जसराज जी को सुन नहीं पाए । अब सुनहरा मौक़ा मिल रहा है जो मेरे सितार की शिक्षा में बहुत मददगार होगा ।बड़ी कोशिशों और मिन्नतों के बाद आख़िर बाबूजी को मेरी बात माननी पड़ी ।
पं. जसराज जी के एकदम पास बैठ कर उनका गायन सुनना, कैसा रोमांचकारी अनुभव रहा होगा आप सोच सकते हैं । उस पर तबले पर उस्ताद ज़ाकिर हुसैन । मुझे तो जैसे जन्नत मिल गई हो । लगभग ३ घंटे कार्यक्रम चला ।
रागों की वो स्वरलहरियां जो उनके कंठ से निकलीं तो यूं एहसास हुआ जैसे संगीत का कोई समुंदर बह रहा हो। उसके बाद उनके भक्ति संगीत के गायन ने सबको मंत्रमुग्ध कर दिया । ओम नमो भगवते वासुदेवाय , निरंजनी नारायणी,मेरो अल्लाह मेहरबान और हनुमान स्तुति ने वह समां बाँधा जैसे किसी समाधि में तल्लीन मन को असीम शांति मिल गई हो ।
उनके मुंह से राग भैरव में ‘मेरो अल्लाह’ सुनते हुए लगा कि ईश्वर और अल्लाह के बीच धर्म की दीवार टूट गई हो, और यह जगत परमात्मा में एकाकार हो गया हो ।
यहाँ मुझे श्री ओम निंश्छल के लिखे लेख का एक अंश याद आ रहा है कि एक बार पंडित जी की तबीयत बिगड़ गई। रास्ते में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पड़ी। उन्होंने ड्राइवर से कहा गाड़ी यहीं रोक लो। वह बोला पंडित जी यह तो दरगाह है। उन्होंने कहा क्या फर्क पड़ता है एक ही बात है। वे कहते हैं ऐसी जगहों से यह आवाज आती है, हिंदू मुसलमान क्यों सोचते हो? इस अर्थ में लगभग सारे संगीतकार एक हैं। वे मानते हैं कि मंदिर में गाएं-बजाएं या किसी पीर-औलिया की दरगाह में, उनका ईश्वर सब जगह एक है।
सचमुच उनकी यही दिव्य और विलक्षण चेतना थी जो पूर्णरूपेण भक्ति रस में सराबोर होकर श्रोताओं के मन को आल्हादित करती रही । उस्ताद ज़ाकिर हुसैन की तबले पर थिरकती उँगलियाँ और चमत्कारी संगत ! वह दृश्य याद करती हूँ तो आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं । कार्यक्रम समाप्त हुआ पर मन की प्यास नहीं बुझी ।
अगले दिन सुबह मैं किचन में चाय बना रही थी। अचानक बिलिकुल पीठ के पीछे से आवाज आई,” अच्छा, चाय बन रही है ?” मैंने मुड़ कर देखा तो पं.जसराज जी थे । मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं क्या करू । इतनी भावविह्वल हो गई कि एकदम झुक कर उनके चरणस्पर्श किए ।उनके लिए ज्यादा दूध की चाय बनाई ।फिर वहीं मेज पर बैठ कर उन्होनेखूब बातें की ।इतना बड़ा कलाकार और नाम को अभिमान नहीं । मैंने उन्हें नागदा आने का निमंत्रण दिया । उन्हें नागदा के रसिक श्रोताओं के बारे में बताया और समय समय पर आयोजित संगीत के कार्यक्रमों की जान कारी दी । चलते चलते मुझसे बोले” तुम बुलाओगी तो मैं नागदा जरूर आऊँगा ।” यह मेरे जीवन के अविस्मरणीय स्वर्णिम पल थे ।
वे नागदा तो नहीं आ पाए पर लगभग दस वर्ष बाद उज्जैन में उनका कार्यक्रम था । उज्जैन नागदा से सड़क मार्ग से लगभग 54 किलोमीटर था पर रास्ता इतना ख़राब और ऊबड़ खाबड़ कि डेढ़ घंटा लग जाता । मैं तो यह सुनहरी मौक़ा किसी भी क़ीमत पर चूकना नहीं चाहती थी । कार से रवाना हो गए । हम जब उज्जैन पहुँचे तो देखा प्रांगण खचाखच भरा हुआ था । बड़ी मुश्किल से बैठने की जगह मिली । कहने की आवश्यकता नहीं कि जसराज जी के कार्यक्रम ने क्या रंग जमाया । मैं तो सोच कर ही गई थी कि उनसे मिले बग़ैर नहीं लौटूंगी पर सिक्योरिटी बहुत तगड़ी थी उन्होंने हमें आगे जाने ही नहीं दिया । अब क्या किया जाय । तो एक उपाय सूझा । हम किसी तरह वहां पहुँच गए जहां उन्होंने जूते उतारे थे । भीड़ वहाँ भी कम नहीं थी और रस्सी भी बंधी थी । जैसे ही जसराज जी जूते पहनने आए मैंने जोर से आवाज दी ,”पंडित जी पंडित जी ।” उन्होंने सिर घुमाया बोले ,”हाँ ,तू ऐसा कर मैं श्री सिंथेटिक्स के गेस्टहाउस में ठहरा हूँ वहाँ आ जा । “ मुझे तसल्ली हुई कि चलो उनसे मिलना हो जायेगा। पता नहीं वह कौन से वाले गेस्टहाउस में ठहरें थे कि हम घंटे भर तलाशते रहे पर उनका पता नहीं चला ।
रात का एक बज गया था मेरे पति ने वापस नागदा चलना ठीक समझा क्योंकि रास्ता ख़राब होने के साथ साथ सुनसान भी हो जाता था । बडे मायूस होकर लौटे ।
कुछ दिन बाद प्रसिद्ध कवि डॉ.. शिवमंगल सिंह सुमन मिले जिन्हें मैं चाचा जी कहती थी , बोले ,” तू कहाँ ग़ायब हो गई थी ? पंडित जसराज जी तेरा इंतज़ार करते रहे और दोहराते रहे कि अरे अन्नदा आने वाली है ,,कहाँ रह गई ।” मैं तो इतना सुनते ही गदगद हो गई कि पं. जसराज जी को मेरी जैसी साधारण इंसान का नाम इतने बरसों बाद याद रहा । सुमन चाचा जी को पूरी बात बताई तो उन्होंने बताया कि वह गेस्टहाउस शहर से बहुत दूर था ।
पं. जसराज जी के गायन से बाबूजी बहुत प्रभावित थे , कौन नहीं होगा । मेरे लिए यह बड़ी सुखद अनुभूति है कि बाबूजी के लिए जसराज जी के मन में बड़ी श्रद्धा थी। राष्ट्रपति भवन में पद्म अलंकरण समारोह था । बाबूजी को पद्मश्री तथा जसराज जी को पद्मभूषण की उपाधि से नवाज़ा गया था । समारोह के अंत में पं. जसराज जी बाबूजी की ओर आए और उनसे लिपट कर अपना सर उनके कंधे पर रख दिया । फिर हमलेगों की तरफ मुड़ कर बोले बाबूजी के कंधे पर सर रख कर मुझे ऐसा लगता है जैसे माँ की गोदी मिल गई हो । उनकी बात सुन कर मेरी आँखों में आँसू भर आए क्योंकि मेरी माँ का कुछ दिन पहले ही देहांत हुआ था । फिर राष्ट्रपतिभवन की सीढ़ियों पर खड़े हो कर उनके साथ कई फोटो खिंचवाईं ।
अब जो प्रसंग मैं आपको सुना रही हूँ वह अकल्पनीय है । हिसार में बहुत बड़ा समारोह था । पं. जसराज व बाबूजी मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे । मंच पर जसराज जी की पत्नी मधुरा जी, फिर जसराज जी ,बाबूजी फिर मैं , इस क्रम से हम बैठे थे ।भाषणों का दौर चल रहा था । इसी बीच मैं क्या देखती हूँ कि जसराज जी ने मधुरा जी का हाथ लेकर बाबूजी के हाथ में रख दिया । बाबूजी एकदम से सकपकाए और मैं भी चौंक गई, और शायद मधुरा जी भी नहीं समझ पाईं कि क्या हो रहा है । तभी जसराज जी मधुरा जी से बोले ,” अरे सुनो ,इस हाथ की वाइब्रेशंस फ़ील करो ।” मैं तो स्तब्ध रह गई।
इतना बड़ा संगीतज्ञ ,क्या यह उनके भारतीय संस्कृति का, उनके संस्कारवान और संवेदनशील होने का प्रमाण नहीं है ? हमारी आनेवाली पीढ़ियों के लिए कितना बड़ा संदेश है यह ।
इतने में पूरे प्रांगण से उनसे गाने की फ़रमाइश गूँज उठी । उन्होंने श्रोताओं से कहा, “ मेरी बात सुनिये मैं जहाँ अतिथि के रूप में जाता हूँ वहाँ गाता नहीं हूँ । यह मेरे नियम के विरुद्ध है ।” बाबूजी ने उनसे कहा,” यह भी कोई बात हुई। इतने लोग आपको सुनने को लालायित बैठे हैं । मैं भी बहुत आतुर हूँ तो ऐसा कैसे हो सकता है कि आप न गाएँ । बाबूजी का इतना कहना था कि पं.जसराज जी ने सिर झुका कर के दोनों हाथ जोड़ लिए । फिर तो एक के बाद एक ,तीन भजन सुना कर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया । पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा और सब पं. जसराज जी के सम्मान में खड़े बहुत देर तक तालियाँ बजाते रहे ।
पं. जसराज के संगीत की बारीकियाँ तो कोई संगीत मर्मज्ञ ही बता सकता है । उनके गायन की ज़बरदस्त प्रशंसिका होने के नाते और उनसे व्यक्तिगत रूप से जो मुझे प्राप्त हुआ उसे परमपिता परमेश्वर का प्रसाद मान कर श्रद्धा से अवनत हूँ ।
अब जो संस्मरण आपको सुनाने जा रही हूँ वह प्रसंग कैनडा टोरोंटो का है । वहाँ के सुप्रसिद्ध विष्णु मंदिर में पं. जसराज जी का गायन था । मेरा भाई सुधीर जो टोरोंटो में रहता है , कार्यक्रम की समाप्ति के बाद उनसे मिला और उन्हें घर आने का निमंत्रण दिया जो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया । समय,दिन व तारीख़ तै होगई। सुधीर नियत समय पर उन्हें लेने पहुँचा । कमरे से बाहर निकल कर आए तो बोले,” बाबूजी कैसे हैं ? आराम कर रहे हैं क्या ?” सुधीर बोला, “ बाबूजी तो भारत में हैं ।”
“अरे, मैं तो सोच रहा था कि वे तुम्हारे पास होंगे । मैं तो उन्हीं से मिलने के लिए बहुत उत्सुक था । देखो मैं बहुत थका हुआ हूँ तो ऐसा करते हैं कि तुम्हारे यहाँ का प्रोग्राम कैंसिल कर देते हैं ।”
सुधीर बेचारा बड़ा निराश हुआ । उसने बहुत से लोगों को उनसे मिलने और सुनने के लिए बुला रखा था। दो दिन पूरी मेहनत करके बेसमेंट में म्यूज़िक सिस्टम को फ़िक्स किया ।सबसे ज़्यादा तो उसे हैरानी इस बात की थी कि वह अपने मित्रों को क्या कहेगा। वह बस इतना कह सका कि आप चलते तो बहुत अच्छा होता । बहुत लोग आपका इंतज़ार कर रहे हैं ।” यह कह कर वह रवाना होने ही वाला था कि पं. जसराज जी ने उसके उतरे हुए चेहरे की निराशा को भाँप लिया । एकदम से बोले ,” अच्छामुझे दस मिनट दो, मैं तैयार होकर आता हूँ , फिर चलते हैं ।”
सुधीर की तो जैसे जान में जान आ गई । रास्ते भर खूब बात करते आए ।उसका घर देख कर बहुत प्रसन्न हुए । नीचे बेसमेंट में बड़ा सा मंदिर देख कर तो वे भावविभोर हो उठे । टेबल टेनिस की टेबल देख कर बच्चों की तरह खेलने के लिए मचल उठे ।यहाँ मैं बताना चाहूँगी कि पंडित जी क्रिकेट के भी बहुत शौक़ीन थे ।क्रिकेट के मैच भी खूब देखते थे ।
खैर उन्एहोंने एक दो टेबल टेनिस के गेम वे खेले और सुधीर को हरा दिया । फिर वहां उपस्थित सभी लोगों से वह तपाक से मिले । सबके साथ भोजन किया ।बहुत चाव से उन्होंने खाया और खाने की खूब तारीफ भी करते रहे । सुधीर ने उनको कुछ सुनाने का अनुरोध किया तो बोले मेरा नियम है कि मैं ऐसे गाता नहीं हूँ । पर जब खाना खाने के पश्चात मंदिर में आकर बैठे तो एकाएक अच्यतुं केशवं गाना शुरू कर दिया । वहाँ उपस्थित सभी अवाक् थे और सुधीर तो इतना भावुक हो गया कि उसकी आँखें से आँसू बहने लगे । फिर उन्होंने एक दो भजन और सुनाए और फिर बोले” अब चलें!
इसके बाद वह जब टोरोंटो आए तो सुधीर को स्वयं फ़ोन किया, पूछा ,” कहाँ हो ? सुधीर ने कहा ,” बस आपका कार्यक्रम सुनने विष्णुमंदिर आ ही रहा हूँ । वे बोले,” आ जाओ, मैं तो पहुँच भी गया हूँ । सुधीर उनके ममत्व से गदगद होगया ।
आप कल्पना कर सकते हैं कि उनकी सहृदयता संवेदनशीलता ने पल भर में किसी की ख़ाली झोली में जैसे एक ख़ज़ाना भर दिया हो । सुनते आ रहे थे कि बड़े बड़े गायक थोड़े शॉर्ट टेंपर्ड होते हैं । बड़ी जल्दी उन्हें ग़ुस्सा आ जाता है । पर पं. जसराज के ये संस्मरण सुन कर तो आप भी मुझसे सहमत होंगे कि हुनर के साथ यदि विनम्रता हो तो शख्सियत में चार चांद लगा देती हैं।
बीबी सी के इंटरव्यू में अपनी संगीत यात्रा के बारे में पंडित जसराज ने कहा था, “यह कह पाना बहुत कठिन है कि कितनी साँसें लेनी हैं, कितने कार्यक्रम करने हैं. मैं नहीं मानता कि संगीत के क्षेत्र में मेरा कोई योगदान है. मैं कहाँ गाता हूँ. मैंने कुछ नहीं किया है. मैं तो केवल माध्यम मात्र हूँ. सब ईश्वर और मेरे भाईजी की कृपा और लोगों का प्यार है.” आज के युग में जब कलाकार अपनी ढपली अपना राग बजाने में विश्वास रखते हैं ऐसे समय में पंडित जी का यह कथन उनकी विनम्रता की पराकाष्ठा ही माना जायेगा ।
आठ दशक तक संगीत की उपासना करते हुए 90 वर्ष की आयु में उनका स्वर्गवास होगया ।ऐसे दिव्य व्यक्तित्व का निधन देश विदेश, समूचे संगीत जगत की अपूर्णीय क्षति है ।देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री मोदी अमित शाह तथा हर क्षेत्र की बडीहस्तियोंन्ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया है । स्व अटल बिहारी वाजपेयी तो उन्न्हें पहले ही रसराज की उपाधि दे चुके थे ।
सुरों की खान पंडित जसराज भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन ब्रह्मांड में 11 नवंबर, 2006 को खोजे गए हीन ग्रह या Minor Planet 2006 के रूप में वो हमेशा विद्यमान रहेंगे। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ (IAU) ने इसे ‘पंडित जसराज’ नाम दिया है। यह ग्रह मंगल और बृहस्पति ग्रह के बीच का है । अनादि अनंत का हिस्सा होकर. पंडित जसराज की आवाज़ भी उसी अपरिमित अनादि और अनंत से उभरकर हमेशा के लिए गूंजती रहेगी.
न्यूयॉर्क में एक संगीत भवन का नाम ‘ पंडित जसराज ऑडिटोरियम’ रखा गया है.
यद्यपि उन्होंने अपनी विरासत तैयार की है जिनमेंपंडित संजीव अभ्यंकर, तृप्ति मुखर्जी, कला रामनाथ, पंडित रतन मोहन शर्मा, पं. शारंगदेव , दुर्गा जसराज, आदि और भी अनेक हैं।परंतु पं. जसराज तो पं. जसराज हैं । उनकी जगह तो कोई ले ही नहीं सकता ।
विंश्व भर में मशहूर संगीत पुरोधा पंडित जसराज को शास्त्रीय संगीत को एक नया आयाम देने के लिए आने वाली पीढि़यां श्रद्धा से याद करेंगी। वह समय अवश्य आयेगा, जब जसराज जी की कीर्तिपताका उनके ‘अष्टछाप-गायन’ से और भी अधिक पुष्ट होगी।
मुझे एक बात का अभी पता लगा कि पं जसराज जी ने कुछ दिन पहले वेब सीरीज़ “बंदिंश बेंडिट्स की तारीफ़ करते हुए कहा था ,”अच्छा लगा शास्त्रीय संगीत के ऊपर कुछ आया है । कितने जीवंत और जागरूक थे ।अपने आसपास, टीवी तथा मनोरंजन में में भी वे रुचि लेतेथे ।
अंतिम समय में जसराज जी न्यू जर्सी के घर में थे । मैरीलैंड से इतने पास होते हुए भी क्रूर कोरोना के कारण मैं उनके दर्शन करने से वंचित रह गई इसका मुझे सदा अफ़सोस रहेगा ।बस इस बात की तसल्ली है कि पं. जसराज जी से जुड़ीं स्मृतियाँ मेरे जीवन की अमूल्य धरोहर के रूप में आजीवन मेरे साथ रहेंगी ।
मैं संगीत मार्तंड पंडित जसराज जी को अपनी ओर से आप सबकी ओर से तथा सभी संगीत प्रेमियों की ओर से अश्रुपूरित श्रद्धांजलि और पुष्पांजलि अर्पित करती हूँ ।
– अन्नदा पाटनी