कथा-कुसुम
लघुकथाएँ
वह टिमटिमाता दीया
घर के मंदिर में जलते हुए दीये ने बल्ब की तेज़ रोशनी से पूछा,”क्या हँसी आ रही है तुम्हें मेरी टिमटिमाती रोशनी पर?”
“अरे! नहीं नहीं, उल्टे ईर्ष्या हो रही है तुमसे, कुम्हार के सुगढ़ हाथों से बने तुम्हारे आकार से, स्नेह से बनाई गई तुम्हारी बाती से, ममता से उँडेले गए उस तेल से, समर्पण के उस भाव से ,जिस से प्रज्ज्वलित कर अर्पण कर दिया तुमको, सर्व शक्तिमान को और प्रतिष्ठित कर दिया देवालय में श्रद्धा भाव से। मेरे भाग्य में ऐसा स्नेह-दुलार कहाँ! वह श्रद्धा और समर्पण भाव कहां! मेरे पास चकाचौंध है पर तुम्हारे जैसा अलौकिक प्रकाश नहीं!”
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धर्म और दुआ
धर्म ने दुआ से पूछा, “हम और तुम में क्या समानता है?”
दुआ बोली, ” तुम भी दिल से निभाए जाते हो और मैं भी दिल से निकलती हूँ। तुम भी लोगों का कल्याण करते हो, मैं भी लोगों का कल्याण करती हूँ।”
“अच्छा, तो हम में और तुम में अंतर क्या है।” धर्म ने फिर पूछा।
दुआ बोली,”अंतर बहुत बड़ा है, मैं अपने विवेक से निकल कर सीधे सही जगह पहुँच जाती हूँ पर तुम न जाने कितने आडंबर, पाखण्ड और विधि-विधान में फँस कर न जाने कहाँ से कहाँ पहुंच जाते हो! स्वयं भ्रमित हो जाते हो और औरों को भी भ्रमित कर जाते हो। तुम्हारे नाम पर इतनी सौदेबाज़ी होती है कि प्रलोभन मिलते ही बिक जाते हो। मेरी कोई सौदेबाज़ी नहीं होती, कोई प्रलोभन मुझे नहीं डगमगा पाता। कहते भी है न ‘दुआओं में बहुत असर होता है।’ तुम भी बहुत बलवान हो पर न जाने क्यों टुकड़ों में बँट कर अपना असर खो रहे हो। तुम्हें अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए लोगों की आस्था का अवलंबन चाहिए पर मैं बिना बँटे बिना रोक टोक केवल दिल से स्वत: निकल कर अपने गंतव्य पर पहुँच जाती हूँ। कभी कोई दिल दुखाता है तो बद् दुआ भी बन जाती हूँ फिर भी अधर्म से अच्छी हूँ। मैं तुमसे बहुत छोटी हूँ, मेरा दायरा भी तुमसे बहुत छोटा है। इसीलिए डरती हूँ कि इतने बड़े
दायरे में फैल कर तुम कैसे अपने स्वरूप पर आँच नहीं आने दोगे।”
बेचारा धर्म रुआँसा हो आशंकित हो उठा। अपने अस्तित्व के स्थायित्व और उज्जवल भविष्य के लिए। सोचने लगा, क्या पता शायद यह दुआ ही मुझे लग जाय और मेरा रूप सँवर जाए।
– अन्नदा पाटनी