कथा-कुसुम
कहानी- बुढ़ापा
“भईया का आज सुबह ही फोन आया था, सुन रहे हो तुम या मैं ऐसे ही बोले जा रही हूँ?” चाय का कप बढ़ाते हुए रेनू ने कहा।
“हाँ भई! सुन तो रहा हूँ।” कहते हुए अविनाश ने अख़बार से नज़र उठाकर रेनू की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
“राहुल की शादी तय हो गई है, इसी महीने की पच्चीस तारीख़ को शादी है। मुझे तो भाभी पहले से ही बुला रही हैं।” रेनू ने चहकते हुए कहा।
“हाँ, मायके के नाम से तो तुम्हारे पंख लग जाते हैं……भूल जाती हो कि अब तुम ख़ुद सास बन चुकी हो।” अविनाश ने कहा।
“तो क्या हुआ! माँ, भाभी-भईया और फिर राहुल सभी बुला रहे हैं तो क्या मेरा जाना नहीं बनता?”
“लेकिन एक हफ्ते के लिए बस। मैं बेटे- बहू के साथ बाद में आऊंगा और वापसी में हम सब साथ-साथ ही आ जायेंगे। मेरे यहाँ रहने से मालविका और आयुष को ऑफिस जाने में कोई परेशानी नहीं होगी वरना ये दोनों परेशान हो जायेंगे। वैसे भी मैं पहले से जाकर वहाँ क्या करूँगा?”
“ठीक है, जैसी आपकी मर्जी।” कहते हुए रेनू पूरे उत्साह से शॉपिंग की लिस्ट बनाते हुए शादी की तैयारी करने लगी। अविनाश उसे देखकर मुस्कुराते हुए अख़बार पढ़ने में तल्लीन हो गये।
रेनू-अविनाश अपनी छोटी-सी गृहस्थी में बहुत ख़ुश थे। बड़ा बेटा आयुष और उसकी पत्नी मालविका दोनों बैंक में कार्यरत थे। छोटा बेटा राघव दिल्ली में कॉम्पटीशन की तैयारी कर रहा था। अविनाश को रिटायर हुए दो साल हो गये थे।
रामपुर स्टेशन आते ही रेनू जल्दी से अपना सूटकेस लेकर उतरने लगी तभी सामने से भईया ने उसका सूटकेस थाम लिया और रेनू ख़ुशी से भाई से लिपट गयी। रास्ते भर अपना शहर, उससे जुड़ी छोटी-बड़ी, खट्टी-मीठी न जाने कितनी बातें, पुरानी यादों से ख़ुद को अपडेट करती रही। बदले हुए शहर को देखकर टोकती।” कितना कुछ बदल गया है अब, है न भइया!!”
घर पहुँच कर सबसे मिलकर उसे ऐसा लगा जैसे वह फिर से छोटी बच्ची हो गयी हो। चाची, बुआ, मौसी, भाई-भतीजे से घर भरा हुआ था। चाय पीते हुए उसने भाभी से पूछा, “अम्मा कहाँ हैं? नज़र नहीं आ रही हैं।”
“पहले चाय पी लो दीदी!! फिर मिलना।” भाभी ने कहा।
“क्यों?? वहीं चलकर पीते हैं न!” रेनू ने कहा।
“वहाँ नहीं पी पाओगी बिटिया!! बदबू के मारे बैठना मुश्किल हो जाएगा।” चाची ने नाक पर पल्लू रखते हुए मुँह बनाकर कहा।
“क्या हो गया है अम्मा को? आप लोग ऐसा क्यों बोल रहे हो?” डरते हुए रेनू ने पूछा।
“अरे!! कपड़ों में गंदगी निकल जाती है और क्या। बुढ़ापा है न, बताती भी तो नहीं हैं सो उधर पुरानी वाली कोठरी में शिफ्ट कर दिया है। इधर रहेंगी तो अच्छा नहीं लगेगा और रिश्तेदार भी मुँह बनायेंगे।” भाभी ने कहा।
कप रखकर रेनू जल्दी से कोठरी की तरफ गयी तो अम्मा को देखकर काँप उठी। एक कमज़ोर-सी काया बिस्तर पर करवट से लेटी थी। कोठरी के बाहर से ही दुर्गन्ध आ रही थी। माँ की स्थिति देखकर रेनू को रोना आ गया। अंदर जाकर माँ को आवाज़ दी तो आवाज़ पहचान कर माँ रेनू से लिपट कर बच्चों की तरह रोने लगीं। माँ के ब्लाउज के बटन टूटे हुए थे, जिसमें से उनकी सूखी हुई छातियाँ झाँक रही थीं, जिस पर किसी का ध्यान नहीं था। शायद गहरे रंग का पेटीकोट इसलिए पहनाया गया था ताकि गंदगी पर परदा पड़ा रहे। बिस्तर की सलवट पड़ी पुरानी बदरंग चादर पर जगह-जगह गन्दगी के धब्बे देखकर रेनू को गुस्सा तो बहुत आ रहा था पर शादी का घर देखकर वह चुप थी और विवश भी।
चाची आकर कहने लगीं, “अब घर में पचासियों काम हैं। कम से कम इंसान अपना ही काम कर ले तो हाथ बंट जाये। ज़िंदगी भर बड़ी साफ-सुथराई के लिए सबको खरी खोटी सुनाया करतीं थीं, अब ख़ुद पड़ी हैं गन्दगी में। जुबान तो कतरनी की तरह चलती थी। मजाल है बिना नहाये-धोये कभी पानी भी पिया हो जीजी ने। बहुएँ भी अब कितना करें?”
“चाची! कम से कम तुम तो ऐसा मत कहो। तुम्हें अपने हाथों से ब्याह कर लायी थीं अम्मा, देखा नहीं था पूरा घर-आँगन चमकता रहता था। हमेशा साफ-सुथरा रहना उन्हें पसंद था। मजाल है बिस्तर पर एक सिलवट भी पड़ जाये। पिताजी और चाचा के कपड़े जब धोकर प्रेस करती थीं तो चाचा अक्सर कहते थे- ‘भाभी! आप तो ड्राईक्लीन की दुकान खोल लो।’
चाची! वह सब भूल गयीं आप! जब मुन्ना और गुड़िया जुड़वाँ हुए थे तो अम्मा ने दोनों को कितनी कुशलता से पाला-पोसा था? कभी बच्चे गीले या गंदगी में नहीं रहे, आप भी सबकुछ अम्मा पर छोड़कर कितना निश्चिन्त रहती थीं। क्या सबकुछ भूल गयीं आप?” अम्मा सुबह जल्दी नहा-धोकर सूती 2 ×2 रूबिया की चटख रंग की धोती पहन कर चोटी करतीं फिर सिंदूर लगाकर तुलसी के चौरे में जल चढ़ाती। अम्मा हमेशा तैयार ही लगती थीं। घर में कितना भी काम हो, पर उनकी धोती में मजाल है कोई धब्बा लग जाये। पूरे खानदान में उनके कार्य-कुशलता की प्रशंसा थी। आज उन्हें इस दशा में देखकर बहुत रोना आ रहा था रेनू को। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे?
अपने को संभालती हुई वह जैसे-तैसे ताई की तरफ मिलने गयी तो ताई कुर्सी पर बैठी मिलीं। काफी कमज़ोर हो गयी थीं पर अम्मा से बेहतर थीं। रेनू को गले से लगाकर रोने लगीं, बोलीं, “मिल आयी अपनी अम्मा से। जबसे देवर जी ख़त्म हुए तभी से तेरी अम्मा की जीने की आस ख़त्म हो गयी। अब तो छोटी को देखकर बड़ा जी कसकता है।”
तभी बड़ी भाभी चाय-नाश्ता ले आयीं। एक ही प्लेट में हलुआ देखकर रेनू ने प्लेट ताई की तरफ बढ़ा दी। ताई ने काँपते हाथों से जल्दी से उसे थाम लिया। उनकी आँखों में हलुआ देखकर बच्चों की तरह चमक आ गयी थी। कंपकंपाते हाथों से उन्होंने एक चम्मच हलुआ मुँह में रखा ही था कि भाभी आ गयीं, उन्होंने प्लेट छीनते हुए ताई से कहा, “बूढ़ी हो गयी हो, चटोरापन गया नहीं अभी तक। न जाने कितनी भूख लगती है? हमसे तो एक रोटी मुश्किल से खायी जाती है पर इन्हें पूरे दिन पकवान चाहिए, चाहे पेट ही ख़राब हो जाये।
अब और कोई खायेगा या नहीं, सब आप ही के पेट में जायेगा। पूरी ज़िंदगी खाने में ही उड़ा दी, कुछ जोड़ा तो गया नहीं।”
ताई की झुकी नज़रें देखकर रेनू को रोना आ गया। अब इतना सुनकर किसके मुँह में एक घूँट भी उतरता?
सिरदर्द का बहाना बनाकर रेनू चुपचाप अपने कमरे में आकर ख़ूब रोयी। वह सोचने लगी, कितनी बड़ी रसोई थी घर में, जिसकी स्वामिनी ताई होती थीं। पाक- कला में इतनी दक्ष कि आस-पास के गाँवों में उनकी मिसालें दी जाती थीं। आतिथ्य-सत्कार का बड़ा शौक था ताई को। कभी उनके द्वार से कोई भूखा नहीं गया। सबको प्यार से खिलाना और ख़ुद सबसे बाद में खाना। बाबा ताई के लिए कहते थे कि बहू तो साक्षात अन्नपूर्णा है। इसके हाथ में सारे रस विद्धमान हैं, ये तो अगर नीम भी छौंककर दे तो वह भी स्वादिष्ट लगेगा।
आज ताई की विवशता देखकर कलेजा काँप रहा था। जो सबको खिलाने के लिए तत्पर रहती थीं, उनकी ये दशा देखी नहीं जा रही थी।
रेनू का मन शादी-ब्याह के कामों में नहीं लग रहा था। उसे लग रहा था कि उसने मायके में आकर बहुत बड़ी भूल की है। अविनाश सही कह रहे थे पर उसने उनकी बात कहाँ मानी? किसी भाई-भाभी को टोकना, समझाना या फिर सलाह देना मतलब अपने लिये सदा के लिये बैर ले लेना होगा। पूरी रात रेनू ने आँखों में ही काट दी, सोचते-सोचते। उसे डर लगने लगा कि बुढ़ापा क्या वास्तव में इतना भयावह होता है? तभी सब कहते हैं कि बुढ़ापा कट जाए तब जानो। भाई-भाभी का व्यवहार ऐसा हो जायेगा, कभी सोचा नहीं था। सामने ड्रेसिंग टेबल के शीशे में उसे अपना अक्स नज़र आने लगा। झुर्रियों भरा चेहरा, कमज़ोर शरीर, गंदे कपड़े और खाने के लिये तरसती हुई लालची आँखें। डर के मारे रेनू ने कसकर आँखे मींच लीं, उसे लगने लगा कि उसका जीवन कैसे कटेगा? वर्तमान से कटकर उसे भविष्य की चिंता सताने लगी।
अगले दिन अविनाश अचानक से परिवार सहित आ गये। रेनू का उतरा हुआ मुँह देखकर पूछा, “तबियत तो ठीक है तुम्हारी?”
भाभी ने मज़ाक में कह दिया, “आपसे भी तो इनके बिना रहा नहीं गया तो फिर इनका तो ये हाल होना ही था।” सब हँसने लगे। रेनू ने भी मुस्कुराने की असफल कोशिश की। सुबह से अगले तीन दिन तक सब ब्याह के कामों में ही व्यस्त रहे। बहू आगमन के बाद से ही एक-एक करके रिश्तेदार विदा होने लगे। रह गये बस घर के सदस्य और रेनू का परिवार।
रेनू की उदासी को भाँप कर उसकी बहू मालविका ने पूछा, “मम्मी! कुछ हुआ है क्या? आप इतना परेशान क्यों हैं? मुझे बतायें।”
“कुछ नहीं।” रेनू ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
तभी अविनाश ने अंदर आकर कहा, “कोई बात तो है रेनू! जो तुम मुझसे छिपा रही हो। बताओ, शायद मैं कुछ कर सकूँ।” अविनाश ने जैसे ही रेनू का हाथ पकड़ा, रेनू के सब्र का बाँध टूट गया। बड़ी हिचकिचाहट के साथ उसने सबकुछ अविनाश को बता दिया। काफी देर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद उन्होंने आयुष और मालविका से बात की। इसके बाद मन ही मन कुछ निर्णय लिया फिर आयुष, मालविका और बड़े भैया को साथ लेकर बाज़ार चले गये। दो-तीन घंटे बाद सब लोग बाज़ार से वापस आ गये। आयुष और अविनाश सबसे बातें करने में लग गये। थोड़ी देर में ताई जी वाली बड़ी भाभी चाय-नाश्ते की ट्रे लेकर आ गयीं। उन्होंने आयुष से पूछा, “तुम्हारी मम्मी कहाँ हैं?”
“शायद नानी की तरफ।” आयुष ने कहा।
भाभी जब अम्मा की कोठरी की तरफ गयीं तो वहाँ का दृश्य देखकर अचम्भित थीं। कोठरी को रेनू और मालविका ने मिलकर नया रूप दे दिया था। कोठरी को फिनायल से अच्छी तरह साफ करके अम्मा और ताई दोनों की चारपाई उसमें डाल दी थीं। एक व्हीलचेयर और दो छड़ी की भी व्यवस्था कर दी थी। अम्मा को नहला-धुला कर बड़ी मुश्किल से डायपर पहनने के लिए तैयार किया था। दोनों को गाउन पहनाकर उनके बाल अच्छी तरह से संवारकर क्लेचर लगा दिये थे। दवाई और पानी की बोतल-गिलास सब साइड टेबल पर करीने से रख दिये थे। कोठरी से दुर्गंध की जगह रूम फ्रेशनर की सुगंध आ रही थी। एक तरफ अलमारी में डायपर की पेटी तो दूसरी तरफ गाउन तह करके रखे हुए थे। मामी सब देखकर जल्दी से मामा, चाची, मौसी और दूसरी बहुओं को बुला लायीं। सब विस्मय से मालविका को देख रहे थे। मामा रोते हुए कहने लगे, “बहन, तूने हमारी आँखे खोल दीं, हमसे बहुत ग़लती हो गयी।”
तभी चाची आगे बढ़ के बोलीं, “लल्ली! एक-दो दिन को तो दिखाने के लिए सब कर लेते हैं, पूरी ज़िंदगी करो तो बात है। ऐसे में अपनी बहू से साफ-सफाई करा कर इन बहुओं को जलील करके अच्छा नहीं किया तुमने!”
रेनू सकपका कर बोली, “नहीं चाची! ऐसा नहीं है। हम किसी को नीचा क्यों दिखाएंगे? वैसे भी सब अपने ही तो हैं। अब अगर थोड़ी समझदारी से काम ठीक हो जाए तो क्या दिक्कत है? अम्मा और ताई दोनों साथ रहेंगी तो दोनों का मन लगा रहेगा। छोटी-छोटी बातों के लिए बहुओं को आवाज़ नहीं देंगी। एक ही व्यक्ति दोनों की देखभाल कर सकता है। एक को कहीं जाना हो तो दूसरे पर छोड़कर आराम से चला जाये।”
“और ये डायपर, यह कौन बदलेगा गू-मूत के? भाभी ने बुरा-सा मुँह बनाकर कहा।
तब मालविका ने कहा, “मामी जी! आप चिन्ता मत करिए। मम्मी की माँ हमारी भी नानी हैं, तो इस नाते हमारी भी ज़िम्मेदारी बनती है उनकी सेवा की। मैंने और आयुष ने बात करके एक नर्स की व्यवस्था कर दी है। वह दोनों का ध्यान रखेगी, नहलाना, कपड़े धोना, समय से खाना-पीना, दवाएँ आदि सबकुछ।”
“वाह भई वाह! मान न मान मैं तेरा मेहमान।
बहूरानी! पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं? मामा रिटायर हो चुके हैं, इतना फालतू पैसा नहीं हैं यहाँ। वाह रेनू दीदी! ख़ुद तो करी बेइज्जती। अब रही-सही बहू से भी करा दी।” फिर मामा की तरफ देखकर रोने का अभिनय करके बोलीं, “देख लो जी! बस यही कसर रह गयी थी और बिठा लो सर पे।”
“चुप नहीं रहोगी तुम, मुझे भी सही-ग़लत का ज्ञान है। कब तक आँखों पर परदा डालती रहोगी? मामा ने रुँधे हुए गले से कहा।
“मामा जी, आप मामी को कुछ मत कहिये। कभी-कभी अनजाने में या परिस्थितिवश कहीं चूक हो जाती है। मामी! आप मेरी बात सुनो, आपको कोई पैसे नहीं देने हैं। नर्स के पैसे और दोनों नानी की दवाइयों के पैसे मैं हर महीने मामा जी के एकाउंट में भेज दिया करूँगा। अब आप मामा जी और मम्मी किसी से भी एक शब्द नहीं कहेंगी।”
तभी मालविका ने धीरे से कहा, “वैसे तो मैं बहुत छोटी हूँ और बड़ों के सामने मुझे बोलने का कोई हक़ नहीं है फिर भी मैं कहना चाहती हूँ अगर हम नानी को अपने साथ ले भी जायें तो भी इनका मन वहाँ नहीं लगेगा। जब व्यक्ति बूढ़ा हो जाता है तो वहाँ की एक-एक चीज़ से मोह बढ़-सा जाता है। जो भी ताना-बाना इन्होनें शुरू से बुना है, यह उसी में उलझी रहती हैं। इन सबसे अलग होना इनके लिए बड़ा कठिन है। नानी की हर वस्तु या व्यक्ति से जो रिलेटिविटी बन चुकी है न! वह इनके लिये बहुत मायने रखती है। घर में चलती-फिरती बहुएँ, लड़के-बच्चों को देखकर इन्हें अपने अस्तित्व का बोध होता है कि ये सब उन्हीं के द्वारा बनाया गया बगीचा है। गृहस्थी देखकर ख़ुश होती हैं कि कभी ये सब उन्होंने सजाई थी तभी किसी चीज़ के नुक़सान पर इन्हें गुस्सा भी आता है, बस थोड़ी-सी अतिरिक्त देखभाल और प्यार के अतिरिक्त इन्हें कुछ नहीं चाहिए। थोड़ा इनके पास बैठकर इनका हाल-चाल पूछ लो तो न जाने कितने आशीर्वाद दे देंगी और अंत में बस यही कहेंगी कि अब तो भगवान बुला ले।” रोते हुए मालविका कहने लगी।
“मेरी माँ तो बचपन में ही गुज़र गयी थीं, मुझे नानी ने ही पाला था। बिना देखभाल के उन्होंने बहुत कष्ट सहे, जिसका पछतावा मुझे आज भी है। बुढ़ापा तो एक दिन सब पर आना है। हम सभी को इस रास्ते से गुज़रना है तो क्यों न हम सब मिलकर इस समस्या को हल करें? मामी जी! क़सम से मेरा मक़सद किसी की बेइज्जती करना या नीचा दिखाना नहीं था। मुझे भी आप सब से प्यार है।”
मालविका की बातें सुनकर चाची और मामी का चेहरा उतर गया था पर छोटे मामा के चेहरे पर ख़ुशी थी। उन्होंने रेनू के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और आयुष को सीने से लगाकर कहा, “बड़े भाग्यशाली हो जो ऐसी जीवनसाथी मिली है। काश! हर घर में तुम्हारे जैसे बेटे हों, मुझे गर्व है तुम पर।” रेनू के चेहरे पर फिर से वही ख़ुशी दिखाई दे रही थी, जो कहीं गुम हो गयी थी।
तभी छोटे मामा ने चाची की ओर देखकर मुस्कुरा कर कहा, “अब तो ख़ुश हो जाओ चाची! सारा मैनेजमेंट दुरुस्त हो गया है। अब तो तुम्हारा ही नम्बर है। किस्मत बड़ी तेज है चाची की। मान गये चाची।”
चाची ने घूरकर मामा को देखा तो सब ठहाका लगाकर हँस पड़े।
– अंजलि शर्मा