कथा-कुसुम
कहानी- बड़ी माँ की गठरी
– यह तुलसी चौरा आज उदास क्यों लग रहा है? क्या बात है कम्मो?
अपने छत पर कपड़े डालती अंजू ने कम्मो को अपने घर के बाहर खड़े देख कर पूछा।
– आज बड़ी माँ बीमार है ना, इसलिए तुलसी जी को जल नहीं डाल पाई।
बड़ी माँ की आदत थी, बारह बजे के लगभग पूजा करने के बाद, तुलसी को जल दे, सूर्य को अर्घ्य देना और दस मिनट आँखें बंद कर बुदबुदाते हुए प्रार्थना करना। वे नित्य तुलसी के नवजात पौधों से लेकर प्रौढ़ पौधों तक में भखरा सिंदूर लगातीं। लगभग उसी समय अंजू कपड़े छत पर डालने आती। उनके घर के बाहर के बाग के एक कोने में तुलसी चौरे पर जल ढालते देख अंजू को अजीब सी शांति मिलती।
बड़ी माँ के शांत चेहरे से टपकनेवाली शांति अंजू के अंदर भी आ समाती।
मिट्टी के बागीचे में हाथ जोड़े खड़ी बड़ी माँ को वह कभी-कभी ही दुछत्ती पर आते देखती।
दोनों घर आमने-सामने थे। एक सीमेंट से निर्मित अधबना मकान, जिसमें बाहर की दीवार पर पलस्तर नहीं रहने के कारण ईंटें झाँका करतीं, दूसरा मिट्टी की दीवारों वाला मिट्टी-गोबर से लीपा गया काफी पुराना मकान…जिसकी जब-तब गिर चुकी मिट्टी के कारण नए ढंग से मरम्मत की जाती।
अंजू और शशिभूषण के आने के बाद से ही दोनों मकानों में दाँत काटी दोस्ती हो गई थी। ट्रांसफर होने के बाद इस ब्लाॅक में आने पर शशिभूषण को घर खोजने में बहुत दिक्कत का सामना करना पड़ा। आॅफिस के गार्ड ने अपने इस मिट्टी के घर के सामनेवाला घर दिलवा दिया।
तब अंजू आ पाई थी। आस-पास घास-फूस की झोपड़ियों से घिरे इस अधबने मकान में रहते हुए अंजू को बहुत कम लोगों से दोस्ती हो पाई थी। फुर्सत के क्षणों में कभी-कभार गार्ड साहब के घर आना-जाना रहता।
बड़ी माँ को आए एक सप्ताह हो गया था। घर की ढहती दीवारों को अपने कुशल हाथों के कमाल से बचाती, पिंडा पूजती, खाना बनाती बड़ी माँ। गोहाल साफ करती, गायों को दुहती बड़ी माँ। अपने बंद छत पर आ खिड़की से झाँक, अंजू को देख मीठी, उदास मुस्कान फेंकती बड़ी माँ।
आज दिखलाई नहीं पड़ी तो अंजू का चौंकना स्वाभाविक था।
– कब से बीमार है?
– यही कल रात से। खूब बोखार है।
कम्मो बुखार को बोखार ही कहती है। बड़ी माँ भी बोखार बोलती है। कम्मो के अन्य पाँचों भाई-बहन, माँ, गार्ड साहब सब बोखार ही कहते हैं। अंजू इसीलिए नहीं चौंकी। शशि बाबू की लुंगी तार पर डालती अंजू बोल उठी,
– ठीक है, आती हूँ देखने। डाॅ . को दिखलाया? दवा…?
– ….हाँ, पप्पा कल रात को ही होमियोपैथिक डाॅक्टर से चार पुड़िया ले आए थे।
अंजू ने सोचा था, दोपहर के आराम के बाद देखने जाएगी। पर छत से उतरते ही उसके पाँव कम्मो के घर की ओर मुड़ गए। लकड़ी के बाड़ को घूमकर पार किया और लकड़ी के फाटक की चर्र-चरमराहट सुनते हुए सामने के बागीचे में बहुत दिनों बाद प्रवेश किया।
एक तरफ नारियल, एक तरफ बेल के पेड़ स्वागत करते मिले। जब भी बेल के पेड़ को देखती है, ‘ सर मुड़ाते बेल पड़े ‘ याद आ जाता। वह मुस्कुराकर अंदर चल देती। उसके घर के गगनचुम्बी वृक्षों की कतारों से कहाँ दिखता था वह पेड़!
लेकिन अभी उसे कुछ याद नहीं आया। घुप्प अँधेरे कमरे में खपड़े की छेदों से आती धूप की पतली कतारों में उसने देखा, बड़ी माँ खाट पर अपने ही हाथ का बना लेदरा बिछाए लेटी है। कृशकाय लेकिन भक-भक गोरी बड़ी माँ और दुबली लग रही थी। रंग तपन से लाल पड़ गया था।
– कैसीं हैं, बहुत बुखार है?
उन्होंने ना में सर हिलाया।
– सर दर्द कर रहा है, दबा दूँ?
– नय, हम बेस हियऊ। चिंता नय करो।
– आज आपको ना तो तुलसी को पूजते देखा, ना उपले थापते। और ना ही गेंहूँ-चना सुखाते। मुझे आश्चर्य हुआ। वह तो अभी कम्मो ने बताया।
वे निर्विकार अंजू को देख रहीं थीं। आँखों के पपोटे भारी थे। आँखों की थकन के बावजूद उन्होंने आँखें बंद नहीं की।
उन्हें बोलते हुए कम देखा था । सारी स्थितियों में तटस्थ। चुपचाप साधारण मुड़ी-तुड़ी लेकिन साफ साड़ी, ब्लाउज में कभी गार्ड साहब के घर की गायों को सानी दे रहीं हैं, कभी गोबर से पूरा घर लीप रही है, कभी खाना बना रही है।… कभी कुछ कर रही, कभी कुछ और। खाली बैठे हुए कभी नहीं देखा। लेकिन मुँह में जैसे ज़बान न हो।
पिछले वर्ष दीपावली में पहली मुलाकात हुई थी। उस समय दो महीने यहाँ रही थी। उससे पहले उसने जाना भर था कि वे वहाँ आया करतीं हैं।
तभी अंजू ने उनके व्यक्तित्व को पहचान लिया था।
– तुम्हारी बड़ी माँ जैसी चुप रहनेवाली लेडी मैंने आज तक नहीं देखी।
अंजू ने मुड़ कर लकड़ी की मेज पर बैठी कम्मो की बड़ी बहन अनोखी से कहा। अनोखी सच में अनोखी थी।
– हाँ चाची, हाँ चाची कहती वह कपड़े पर छपे फूल में सुई से लाल धागा भरती रही। लाल-हरे धागे से वह सोफे का कुशन बना रही थी। बड़ी माँ की गठरी वहीं उसके बगल में पड़ी थी।
– माँ कहाँ है अनोखी?
– खाना बना रही है। पप्पा आते ही होंगे।
उसने सर उठा कर एक बार देखा और दहेज के धागे में उलझ गई।
– याद है, आपसे मेरी पहली मुलाकात कहाँ हुई थी?
उनकी शांत चितवन अंजू को उकसा रही थी। आँखें लाल, चेहरा तपा हुआ पर कोई आह! उह! नहीं।
याद है? – अंजू ने दुहराया।
– हाँ! इयाद है। बाहरे तो मिलले हलियो।
इस बात के सहारे अंजू उस दिन तक बहती चली गई। अंजू ने जैसे उनके घर का फाटक खोला था, उसके हाथ में फाटक ने नया हरा रंग उधार दे दिया था। अंजू हाथ को देखती अंदर घुस आई थी कि कब से लटका पका बेल ऊपर से टपक पड़ा था। नीचे खड़े गोलू के सर को छूते हुए।
वह घबरा कर गोहाल की ओर भागी थी। वहाँ नाद में भूसा सानती गौरवर्णी एक औरत थी। आवाज़ से चौंक कर वह खड़ी हो गई थी। फिर लपकती आई। गोलू को झट सीने से सटा, उसका सर सहलाने लगी। देर तक दोनों गोलू में उलझी रहीं थीं।
– याद है चाची, उस समय गोलू बेल मुड़ाए हुए था। ऊपर से टपका बेल सीधे इसके बेल पर…।
अनोखी उसी दिन की तरह खिलखिला कर हँस दी।
– दोनों बेल… हा!…. हा!!… टटका-टटका बेल मुड़ाए था वह।
तभी कम्मो आई। सामने पड़ी लकड़ी की तीन टाँगवाली मेज से मेजपोश उठा, बेरहमी से एक तरफ फेंका और मेज को अंजू के सामने रखने लगी।
– अरे! यह क्या कर रही है, अभी कुछ नहीं चलेगा।
– बस, चाय पी लीजिए ना चाची।
वह जल्दी से बाहर बरामदे में बने चूल्हे के पास जा पहुँची। चूल्हे पर चढ़ी केतली से चाय ढाल लेती आई। तीन टाँगवाली मेज पर काँच का बड़ा गिलास रखा ही था कि अनोखी बोल पड़ी,
– कप नहीं है?
– अभी-अभी तीन कप एक साथ शहीद हो गया। एक का तो डंडी टूटा है पहले से।
– बस, तोड़ दिया ना।.. तुम ना….।
– झोला गेलय का गे?
बड़ी माँ उठते हुए पूछने लगी। उन्हें कप की चिंता नहीं थी।
– नहीं बड़ी माँ। जली नहीं। बाल -बाल बच गई।
अंजू चाय पीते हुए बड़ी माँ से जो कुछ भी पूछती, उसका जवाब संक्षिप्त में दे वे चुप हो जातीं। इसी बीच अनोखी अपने दहेज के सामान को परे रख, बड़ी माँ की गठरी उठाने लगी।
बड़ी माँ की क्षीण आवाज़,
– नय…! नय छू।
तब तक अपने आँचल से हाथ पोंछती कम्मो की माँ भी आ पहुँची।
थकन उनके चेहरे से टपक रही थी। आते ही खाट के नीचे से मचिया को खींच बैठ गई। हाथ-पैर दबाती बोली,
– एकदम पस्त हो गए, इतना काम…। इनका काम भी तो बढ़ गया है। बाप रे!
बड़ी माँ संकुचित हो उठीं। जैसे जानबूझ कर बीमार पड़ीं हों। अंजू को बड़ी माँ का अथक कार्य याद आ गया।
अंजू थोड़ी देर में वहाँ से उठ आई।
भोजन के लिए शशिभूषण घर आए तो बातों में स्वतः बड़ी माँ उतर आईं।
– मैं नहीं जानती, उनमें ऐसी क्या खासियत है लेकिन कम्मो की बड़ी माँ मुझे बहुत प्रभावित करती है। चेहरे पर इतनी शांति है, आप आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकते।
– ऊपर से शिकवा-शिकायत किए बिना ढेरों काम।
वे खाते हुए मुस्कुरा दिए।
– आज बीमार हैं तो पूरा घर हमेशा की तरह अस्त-व्यस्त। पाँच -पाँच बेटियों के रहते गंदगी और अव्यवस्था रहती है। वे आती हैं, घर चकाचक। दीवाली में आती हैं, तो जगह-जगह उखड़ गई मिट्टी वाली दीवार को गोबर – मिट्टी से मरम्मतकर, चूना पोत पूरा घर चमका देती है। सारा काम अकेले ही सलीके से करतीं हैं। आज…।
मुँह में ग्रास भरते हुए शशिभूषण ने इतना ही पूछा – क्या हुआ?
– बुखार है।
शशि बाबू ने फिर कुछ नहीं कहा। अंजू ही कहने लगी,
– पहली बार तो मैंने उन्हें दाई समझ लिया था। एक साधारण सी सलवटों से भरी साड़ी में काम पर काम करता देख मैंने कम्मो की मम्मी को टोका भी था।
– क्या टोका था?
अपनी सीधी, सरल अंजू के सवाल वे समझ गए, फिर भी पूछा।
– यही कि कब से रखा कामवाली को? मेरे घर भी लगवा दो।
अंजू को याद आया, कम्मो की माँ ने बताया था – अरे! दाई नहीं, कम्मो की बड़ी माँ हैं। गाँव से आईं हैं। का करें, रहती भी तो वैसे ही हैं।
एक दिन बाद गोलू बेंत की कुर्सी पर बैठ पाॅकेट से कंचे निकाल गिन रहा था। थोड़ी देर पहले ही आया था। अंजू जान चुकी थी। पूछा,
– गोलू, तुम्हारी बड़ी माँ गाँव जाना क्यों चाह रही है? माँ को कहो, रोकेगी। वहाँ कोई है भी तो नहीं।
– नहीं मान रही है। कहती है, यहाँ उनका मन नहीं लग रहा है।
– क्यों?
– कहती हैं, वहीं मरेंगी, जहाँ डोली में बैठकर आई थी।
– अरे! बुखार से कोई मरता है क्या! तुमलोग क्यों नहीं जिद कर रहे हो?
– सब लोग मना कर रहा है, नहीं मान रही है।
नुकीले चिबुकवाले गोलू का ध्यान फिर से कंचों पर।
बातों-बातों में कम्मो ने एक दिन बताया था, बड़ी माँ ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय बड़े पप्पा और आठ-दस लोगों को पोरा के ढेर से भरी कोठरी में छुपा कर रखा था।
भूसे की ढेरी में सबका पिस्तौल, डायरी, बम छिपा कर रखती थी। सबको खाना बनाकर खिलाती थी। उन लोगों का लिखा कागज लेकर, कुछ लोगों को खाना खिलाने के बहाने सिर-मुँह ढँककर खेतों की तरफ जाती थी। नाश्ते की पोटली सब में बँधा होता था जरूरी सामान और भड़काऊ लेख।
जब आजादी मिली थी, यही बड़ी माँ खूब नाची थी…. खूब!
अंजू ने उत्सुकता से पूछा था,
– तुमको तुम्हारी बड़ी माँ ने बताया ?
– नहीं! ऊ तो किसी को बताने नहीं देती थी। उनकी ओर से एकदम मनाही थी।
वह मुस्कुराई – वह तो पप्पा एक दिन सबको बता रहे थे कि हमारे बड़े पप्पा कैसे अंग्रेजों से लड़े थे। उस समय बड़ी माँ यहाँ नहीं, गाँव में थी। आजादी के बाद उन दोनों को सम्मानित किया गया था।
बड़ी माँ की दृढ़ता, धीरता, संतोष का राज धीरे-धीरे खुल रहा था। अंजू दम साधे सब सुन रही थी।
– देखने में नहीं लगता कि….।
….इसीलिए तो अंग्रेज भी नहीं पकड़ पाए थे।
बीच में ही कम्मो बोल पड़ी थी।
सीधी, सरल, अपढ़, भुच्च देहाती महिला में ऐसा कुछ भी नहीं था, जो अविश्वास का कारण बनता।
अंजू आज फिर कम्मो के घर जा पहुँची। वे अपनी गठरी को खाट पर ही एक तरफ रख कर लेटी थी। और भी क्षीणकाय… और भी कमजोर।
– अब मत जाइए, यहीं सबके साथ रहिए।
उन्होंने धीरे से सर हिलाया, जिसका मतलब ना था।
– ठीक। पर अभी क्यों जा रही हैं? अच्छा हो जाइए, फिर चले जाइएगा।
उन्होंने ना में फिर सर हिलाया।
– अब जाएँगे।
– वहाँ डॉक्टर की सुविधा तो नहीं होगी। क्यों ज़िद कर रही हैं?
उन्होंने कुछ नहीं कहा लेकिन चेहरे पर दृढ़ निश्चय।
तब तक रिक्शा लेकर गार्ड साहब आ गए। वे उठकर चारों दिशाओं में प्रणाम करने लगीं। गठरी किसी को छूने नहीं दी। खुद ही उठाकर चलने को उद्मत। गुड्डी…कम्मो की तीसरी बहन गठरी थामने के लिए आगे बढ़ी, उन्होंने हाथ के इशारे से मना कर दिया। कम्मो की मम्मी एक तरफ से घेर कर उन्हें रिक्शे तक लेती आई।
सिर हिलातीं, हाथ उठा आशीर्वाद देतीं रिक्शे पर चढ़ीं। साथ में गोलू जा बैठा। हुड पर एक रंगहीन लोहे का बक्सा और गोद में गठरी। अक्सर उन्हें एकांत में इस गठरी से उलझते देखा जा सकता था ।
हाँ, किसी की आहट पाते ही गठरी बाँधने लगतीं। पता नहीं, खाली मिले थोड़े से समय में भी उसमें क्या तलाशा करतीं।
रिक्शा चल पड़ा। कम्मो के पप्पा भी रिक्शे के पीछे चल पड़े।
गार्ड साहब को छुट्टी मिली सिर्फ एक दिन की। उन्हें गाँव पहुँचा, वे दूसरे दिन रात तक लौट आए। साथ में वहाँ का कमिया और एक महिला को रख दिया।
हफ्ते भर तक की दवा थी। अगले हफ्ते दवा लेकर फिर जाने का प्रोग्राम था। लेकिन तीन दिन बीतते, ना बीतते कम्मो दौड़ी आई।
– चाची, चाची! हमलोग गाँव जा रहे हैं। आप घर देखिएगा ना।
– क्यों? क्या बात है?
– बड़ी माँ बहुत बीमार हो गईं हैं। एकदम आखरी ….।
– ….अरे ! कैसे इतना ज्यादा….?
– बहुत ठंडा मार दिया है। उनका हाथ-पैर ऐंठ रहा है। यहाँ भी आना नहीं चाह रही है।
– पहले ही तुम लोग में से कोई उनके साथ चली जाती।
– कैसे जाते चाची, सबका फाइनल एक्जाम है। हमीं लोग के चलते मम्मी भी नहीं गई। उसके जाने से गोहालो तो सूना हो जाता।
कम्मो हड़बड़ाती हुई अपने घर लौट गई।
अंजू ने शशि बाबू से उनलोगों के साथ जाने की अनुमति माँगी। वह इतनी आग्रही हो उठी कि वे इंकार नहीं कर सके।
सिंह जी के परिवार के साथ वह भी चल पड़ी। आधे घंटे के बस के सफर के बाद बीस मिनट पैदल चलना पड़ा। अचानक बादल कर देने के कारण शाम में ही अँधेरा घिर आया। दूर से टिमटिमाती लालटेन की रौशनियाँ नज़र आने लगीं। स्थान-स्थान पर बिजली के पोल गड़े थे। शाम की आँधी में कहीं तार टूट गया था और अँधेरे ने झट साम्राज्य फैला लिया था। वे थोड़ा और आगे बढ़े, तो एक बैलगाड़ी पीछे से आकर रूकी।
– का हो, सिंह बाबू हैं का?
– हाँ, हमही हैं।
– आओ हो, सब लोग बैलगड़िया पर बैठ जा। मलकिन के देखे जाइत हऽ का? खबर काहे नय करलऽ। हम आ जैतलियो ।
– का खबर करते, थोड़ी दूर की तो बात है।
उसके अविचल आग्रह पर सबको बैठना पड़ा। पंद्रह मिनट बाद सब बड़े से ध्वस्त हो चले घर के बाहर थे। अँधेरा पूरी तरह गाँव को गिरफ्त में ले चुका था। लालटेन लेकर कई लोग दौड़े आए।
गाँव में पोल भी गड़ा था। बिजली भी हर घर में थी। लेकिन आँधी में कई तार टूट कर गिर गए थे। परसों ही। आज तक बन नहीं पाए थे।
सबको छोटे से दरवाजे को सिर झुकाकर पार करना पड़ा। गाड़ीवान ने अंदर जाकर एक किनारे खड़ी खरहरा खटिया बिछा, वहीं पड़ी चटाई उस पर डाल दी।
सामने ही एक और खटिया पर बड़ी माँ सोई थी। साँस घर्र-घर्र करती चल रही थी। खाट के नीचे बोरसी रख से ठंड को मात देने की कोशिश जारी थी। उधर खूँटी से लटकी लालटेन ने उजाला बिखेरने की जिम्मेदारी सँभाल ली थी।
– अँधेरिया रात में हाथ को हाथों नहीं सुझा रहा है। वहीं इंजोरिया रहने से इत्ता अँधेरा नहीं मिलता। मलकिन सो रही है। उठा दें का बाबू?
साथ में रहनेवाली कमलिया ने पूछा।
– नहीं, छोड़ दो। अब कैसी है?
– वैसने है। का बताएँ, भिनसरे बदहोश पर बदहोश हो रही थी। हम घबराकर संतोस को भेज दिए। एकदमे लग रहा था कि नय बचेगी।
बड़ी माँ बेसुध थीं। उठाना उचित नहीं था, किसी ने उठाया भी नहीं। रात को उनकी तबियत और गड़बड़ा गई। विचार हुआ, सुबह उन्हें लेकर बैलगाड़ी से वापस चला जाए। वहाँ डॉक्टर की सलाह से आगे निर्णय लिया जाए।
पर रात ही भारी पड़ रही थी। अभी तक आँखें खोल उन्होंने किसी को देखा नहीं था।
सवेरे उजाला फैलने से पूर्व ही उन्होंने आँखें उलट दी। कोहराम मच गया। जिसने सुना, दौड़ा चला आया। घर के सामने मिट्टी के खलिहान में तिल रखने की जगह नहीं। सब यूँ रो-पीट रहे थे, जैसे उनका अपना गुजर गया हो।
अंजू की आँखें भी नम थीं। उनके साथ बिताए कई पल याद आ रहे थे। उनके साधारण, अचुंबकीय व्यक्तित्व के बावजूद उनसे प्रभावित अंजू उन्हें भूल नहीं पा रही थी। कुछ लोगों ने रोते-रोते बताया,
– मलकिन का ई हाल नय होता। ऊ तो बलौक से लौटने के बाद दोनों-तीनों दिन मालिक के समाधि पर गई। कई घंटा वहीं बैठी रहती। टोकने पर भी नय उठती थी। हमलोग केतना कोसिस करते, नय मानती थी। इसलिए बोखारों बढ़ गया, साँसों धौंकनी जैसा चलने लगा।
अर्थी उठी, तो जैसे पूरा घर-आँगन, खेत-खलिहान, गोहाल-बारी सूना हो गया। अब मुँह अँधेरे किसी परिचित की आवाज़ यहाँ नहीं सुनाई पड़ेगी।
दूसरे दिन अंजू को लौटना था। लेकिन वह पहले कम्मो के बड़े पापा का समाधि स्थल, वह खेत, जहाँ स्वतंत्रता सेनानी छुपे थे तथा अन्य संबंधित जगहों को देखना चाहती थी। अतः उस दिन रूक गई।
सवेरे-सवेरे बिना बोले वह गोलू और कम्मो को लेकर निकल पड़ी। रास्ते में अपने खेत की ओर जाता जुराठ कंधे पर उठाए हुए एक खेतिहर मिल गया।
अंजू की इच्छा जानकर वह सब जगह उन तीनों को लेकर गया। अंत में समाधि स्थल पहुँचे सब। खूब साफ-सुथरा। गोबर से लीपा हुआ। आस-पास चंपा, गेंदा, जूही के मुर्झाए फूल पड़े थे…. सूखे हुए। वहीं एक ओर बड़ी माँ की गठरी पड़ी थी। सबसे पहले उसी खेतिहर ने देखा।
– अरे! मलकिन का मोटरिया हिंए गिर गया! ऊ बदहोस हुई तो हमको होसे नय रहा। हम उनको इसी कँधवा पर उठाकर ले गए थे। मोटरिया हिंए पड़ल रह गया, देखबे नय किए।
वह झट से गठरी उठा, गोलू को थमाने लगा।
– ले जा, घरे ले जा।
कम्मो ने लपककर गठरी गोलू के हाथ से छीन ली और वहीं उलट दी ।
– देखें, बड़की माँ क्या-क्या छिपाकर रखती थी।
– हाँ, उनका खजाना देखें। छूने नहीं देती थी।
गोलू भी उत्सुक था।
दो पिस्तौल, एक जोड़ी खड़ाऊँ, एक जोड़ी धोती-कमीज, डायरी और अखबारी कतरन… उसमें छपी दाढ़ीवाले व्यक्ति की तस्वीर!
– अरे! बड़े पप्पा!! यह तो बड़े पप्पा का फोटो है।
कम्मो, गोलू साथ बोल पड़े।
वह आदमी धीरे से बोला,
– इनका हिंया पोरा के ढेरी में आग लगाकर जला दिया था।
क्यों? अंग्रेजों द्वारा पकड़ लिये गए थे क्या? …कितने स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में लोगों को पता तक नहीं। – अंजू बोल रही थी।
– अरे नय, नय! उ ससुर लोग तो परछाँही भी नय पा सका था। ई तो जात-बिरादरीवाला लोग दुश्मनागी में आग में झोंक दिया। सबको जमीन-जायदाद चाहिए था।
एक बार गौर से अंजू को देख आगे कहा – सुराज मिलने के अड़तीस साल बाद। सुराज में…..।
उसने गमछे से बार-बार आँखें पोछीं।
अंजू का मुँह खुला का खुला रह गया …..सुराज में?
मन में एक कसक सी उठी,
शहीदों के मज़ारों पर लगेंगे
हर बरस मेले !
वतन पर मरनेवालों का
बाकी यही निशां होगा !!
फिर अंजू चुपचाप उसी कपड़े में एक जोड़ा खड़ाऊँ, धोती -कमीज, डायरी, अखबार की कतरन और दोनों पिस्तौल सहेज गठरी बाँधने लगी।
उसकी पलकों पर आहिस्ते से दो बूँद आँसू चमक उठे।
– अनिता रश्मि