व्यंग्य
व्यंग्य लेख- गुरुगिरी मिटती नहीं हमारी
हमारा देश हमेशा से ज्ञान का उपासक रहा है और इस पर कभी किसी को कोई शक नहीं रहा। ज्ञान के मामले में हम शुरू से उदार रहे हैं, केवल बाँटने में यकीन रखते हैं। ज्ञान की आउटगोइंग कॉल्स को हमने सदा बैलेंस और रोमिंग के बंधनों से मुक्त रखा है। हमने विश्व को शून्य देकर अपने पुण्य को इसी में विलीन किया। ज्ञान की उपासना और पूजा कर हम ईवीएम में बिना किसी छेड़खानी के पूर्ण बहुमत से विश्वगुरु के पद पर आरूढ़ हुए थे, जहाँ हमने बिना किसी घोटाले और नोटबंदी के पद की गरिमा और गरिष्ठता बनाए रखी थी। पद की ज़द में आने के बाद उसकी ज़िद छूटना मुश्किल होता है। पद के मद को किसी भी नशामुक्ति अभियान के ज़रिए त्यागना आसान नहीं होता है। जिस तरह से एक बार कोई व्यक्ति अगर सांसद/विधायक के पद को निपटा दे तो फिर आजीवन अपने नाम के आगे पूर्व सांसद/विधायक सटाए रहता है; ठीक उसी प्रकार एक बार विश्वगुरु के आसन पर आसीन होकर हमने इतना ऐतिहासिक सीन शूट कर दिया है कि अब भी हमारी ‘गुरुगिरी’ के चर्चे है। हमने अपने ज्ञान को इतना बुलंद कर दिया है कि अब जब चाहे हम अपनी गुरुगिरी को गुरुत्वाकर्षण के पार भेज सकते हैं।
तमाम वैश्विक संकटों और झंझटों के बावजूद कुछ तो बात है कि ‘गुरुगिरी’ मिटती नहीं हमारी। मुझे लगता है कि हमारी गुरुगिरी इसीलिए भी नहीं मिटती क्योंकि हम हर गुरु पूर्णिमा को गुरुगिरी का रिन्यूअल करवा लेते हैं। इसके अलावा हम नियमित रूप से अपनी गुरुगिरी का रंग-रोगन करवा के इसे नया बनाए रखते हैं। भारतवर्ष ने वर्षों से निस्वार्थ भाव से ज्ञान की गंगा बहाकर अज्ञान को शरण देकर उसका हरण किया है। इसी सदाशयता की चपेट में आकर ज्ञान गंगा अब मैली हो चुकी है, जिसे अब स्वच्छता ही सेवा समझकर सरकारी तरीके से असरकारी बनाने के प्रयास जारी हैं।
हमने योग के ज़रिए ज्ञान मुद्रा का भी प्रसार किया और ज्ञान से मुद्रा भी अर्जित की। शांति और अहिंसा के सफ़ेद कबूतर उड़ाने से पहले हम चिड़िया उड़ खेला करते थे, हालाँकि उस समय देश सोने की चिड़िया हुआ करता था इसीलिए उस समय इस खेल का बाज़ार मूल्य देश की जीडीपी निर्धारित करता था। हालाँकि अब भी कई लोग पहले वाली फ़ीलिंग लाने के लिए सोकर ही चिड़िया उड़ाते हैं।
पहले ज्ञान की बैलगाड़ी गुरुकुलों पर हाँकी जाती थी। अब ज्ञान स्कूल, कॉलेज, कोचिंग इंस्टिट्यूट्स की सवारी कर जल्द ही लंबी दूरी तय कर लेता है लेकिन सबसे अद्भुत बात यह है हम ज्ञान के लिए कभी शैक्षणिक संस्थानों या योग्यताओं पर निर्भर नहीं रहे। ज्ञान का उद्भव हमारे भीतर से होता रहा है और हर भारतीय इस प्रतिभा का मुकेश अंबानी है मतलब धनी है। बिना किसी कोच के शुरू से हमारी सोच रही है कि कराह रही इंसानियत को फर्स्ट एड से पहले ज्ञान की सख्त ज़रूरत है और इसके लिए इंसानियत पुस्तकों और अध्ययन का इंतज़ार नहीं कर सकती है। अत: ज्ञान का उत्पादन स्वयं के भीतर से होना चाहिए। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ जैसे कल्याणकारी सूत्रवाक्य भी हमारी इसी सोच से उपजे हैं।
असाक्षरता जैसी समस्या कभी हमारे ज्ञान के आड़े नहीं आई क्योंकि हमारा ज्ञान बहुत महीन और सूक्ष्म है, जिसे हम पतली गलियों से भी आराम से प्रवाहित करवा लेते हैं। चाहे देश भर में कहीं भी किसी भी घटना की डिलीवरी हो, सारे ऑन ड्यूटी गुरु अपने ज्ञान की तलवारे भांजने तुरंत अपने बिल में से बाहर आकर किसी न किसी के नाम का बिल ज़रूर फाड़ते हैं। हर मुद्दे पर अपनी विशेषज्ञ राय रखकर हम लघुता को तलाक दे, अपनी गुरुता को कुपोषण से बचाकर पुष्ट करते हैं।
ज्ञान और गुरुओं का अथाह भंडार होने के बाद भी विश्व के विकसित देशों की तुलना में पिछड़ जाना हमारी सादगी, बड़प्पन और त्याग दर्शाता है क्योंकि हम विश्वगुरु होने के नाते किंग बन सकते थे लेकिन किंग या किंगमेकर कुछ ना बनकर हमने विकास की बाधा दौड़ की प्रतिस्पर्धा को कम किया है।
हमारा मानना है कि विकास एक सरकारी कार्यक्रम है जो अपनी गति से चलना चाहिए जबकि गुरुगिरी हमारा एक निरंतर और शाश्वत प्रोजेक्ट है, जो विश्व मानव के कल्याण के लिए सदियों से चला आ रहा है और इस मामले में अभी फिलहाल हमारे सामने बाकि सब फटेहाल है।
– अमित शर्मा