व्यंग्य
पुस्तक छपवा लो, विमोचन करवा लो
– अख्तर अली
पुस्तक छपवा लो, पुस्तक छपवा लो। काव्य संग्रह, कथा संग्रह, गीत संग्रह, व्यंग्य संग्रह, उपन्यास, नाटक। पुस्तक छपवा लो, पुस्तक छपवा लो।
गली में से जैसे ही फेरी वाला आवाज़ लगाते हुए गुज़रा, मैं दरवाज़े की तरफ़ भागा और स्लीप पर खड़े चौकन्ने खिलाड़ी की तरह डाई मारकर उसे लपक लिया। उसे प्रेमपूर्वक सम्मान के साथ दामाद की तरह अंदर लाया। उसे सोफ़े पर बैठाया और मैं उसके सामने आधा झुका हुआ खड़ा रहा। उसकी आँखों में मैं अपना चेहरा ढूँढ रहा था, उसके माथे पर अपना भविष्य पढ़ने की कोशिश कर रहा था। मैं लेखक था और वह था प्रकाशक। वह पार्टी अध्यक्ष की तरह अकड़ता जा रहा था और मैं बिकाउ विधायक की तरह ढीला होता जा रहा था। वह थानेदार की तरह ऐठा, मैं संस्कृति की तरह दुबका। प्रकाशक साहित्य के तालाब में रहने वाला मगरमच्छ होता है और लेखक को इसी तालाब में नहाना है।
कुछ देर हम दोनों शांत रहे। हम दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे लेकिन हमारे देखने में शाकाहार और मांसाहार का अंतर था। मैं उसे ऊपर से नीचे की तरफ़ देख रहा था और वो मुझे नीचे से लेकर ऊपर तक देख रहा था। हम दोनों चुप थे पर एक-दूसरे को सुन रहे थे। यह देह की भाषा थी, जिसे बहरे भी सुन सकते हैं। देह की भाषा में व्याकरण की त्रुटी और उच्चारण का दोष नहीं होता है।
हम दोनों चुपचाप एक-दूसरे को पढ़ रहे थे लेकिन हमारे पढ़ने पढ़ने में अंतर था। मै उसे राशिफल की तरह पढ़ रहा था और वह मुझे समाचार की तरह।
प्रकाशक और लेखक के स्वभाव में कर्नल रंजीत और गुलशन नंदा के उपन्यास जैसा अंतर होता है।
‘मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ’, यह बात उसने मुझसे इस तरह कही, मानो मै उसके दस्तरखान में चूसकर फेंकी गयी हड्डी को चबाने वाला गली का शेरू हूँ।
अब मैं ज़रा लापरवाह-सा होकर बोला– कोई ख़ास बात नहीं है, बस कभी-कभी मन में ख़याल आता है कि एक संग्रह मैं भी निकलवा ही लूँ, जो लेखक नहीं हैं उनके भी दो-दो तीन-तीन संग्रह आ गये हैं। शानदार भव्य आयोजन में उनकी पुस्तक का विमोचन हुआ है, राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में उनकी पुस्तक की समीक्षा छपी है, जिसमें उनकी तुलना प्रेमचंद, ख्वाजा अहमद अब्बास और भीष्म साहनी से की गयी है।
फेरी वाले प्रकाशक ने मेरे से पूछा– आप उस विमोचन समारोह में गये थे?
मैंने बिन पद के नेता की तरह कुरते का ऊपर वाला बटन लगाकर कहा– मैं उस कार्यक्रम में माईक वाले की तरह आरंभ से अंत तक मौजूद था। मैं प्रमुख वक्ता से बहुत प्रभावित हुआ था। कार्यक्रम की समाप्ति पर मैंने जब उनसे पूछा कि इस पुस्तक की कौनसी कविता आपको सबसे अच्छी लगी? तो उन्होंने आश्चर्य से कहा था– अरे यह काव्य संग्रह था क्या, मैं तो कहानी संग्रह मान के बोल रहा था।
उनकी बात सुनकर मैं कुछ बोला नहीं, सिर्फ उन्हें देखा। उस समय मेरी आँख सामान्य से ज़रा बड़ी हो गयी थी।
उन्होंने प्राईवेट कम्पनी के सुपरवाईज़र की तरह बेचारगी और बेबसी की मुद्रा में कहा– यात्रा की तैयारी और आधार वक्तव्य लिखने में ही इतना वक्त लग जाता है कि पुस्तक पढ़ने का समय ही नहीं मिलता।
उनका दुःख सुन मैं पैर के नाखून से लेकर सिर के बाल तक तड़प गया। मेरी हालत ज़ीरो फंड वाली संस्था के खजांची की तरह हो गयी। उस वक्त मैंने अपनी रुलाई को बहुत मुश्किल से रोका जब उन बेचारे साहब ने बताया कि घर की ज़िम्मेदारी और ऑफिस का वर्क लोड इतना ज़्यादा होता है कि कभी-कभी तो मैं वक्तव्य भी नहीं लिख पाता हूँ। तब या तो लेखक से ही कहता हूँ कि भाई, मेरे मुँह से अपनी पुस्तक के बारे में तू जो-जो भी सुनना चाहता है वह लिखकर तैयार रखना मैं आकर बोल दूँगा। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जिसकी पुस्तक का विमोचन होना होता है वह लेखक होता ही नहीं है। वह कोई बहुत महत्वपूर्ण विभाग का आला अफ़सर होता है, उसकी काम करने की आदत ही नहीं होती है। परिश्रम में इनका विश्वास नहीं होता। ये केवल लाभ में आस्था रखते हैं। इनका हर काम दूसरे करते हैं, अपनी पुस्तक तक इन्होंने दूसरे से लिखवाई होती है।
मैंने फिर उन विमोचन विशेषज्ञ को देखा, इस बार मेरी आँखों में एक प्रश्न नृत्य कर रहा था– न पुस्तक पढ़ी, न वक्तव्य लिखा फिर आप मंच पर बोलते क्या थे?
मेरी फैली गयी आँखों का उत्तर उन्होंने अपनी आँखों को छोटी कर के दिया – इस स्थति में हम लोग पिछली पुस्तक के विमोचन में कही गई बात पुस्तक और लेखक का नाम बदल कर कह देते हैं। इसमें ज़रा भी ख़तरा नहीं होता है क्योकि विमोचन समारोह तो मेले के सांस्कृतिक कार्यक्रम की तरह होते हैं, वहाँ लोग होते हैं मगर देखते नहीं। यह विमोचन समारोह है बाबू, यहाँ नाश्ता आते ही लोग सुना हुआ भूल जाते है।
मैं उस विमोचन समारोह के कुछ और रोचक संस्मरण सुनाता पर फेरीवाले ने हाथ के इशारे से रोक दिया। उसका इशारा पाते ही मैं चुप हो गया और उसके बोलने की प्रतीक्षा करने लगा। उसने बोलने के पहले मुँह पर मास्क लगाया। जब वह मुँह पर मास्क लगा रहा था तब मैं उसे आँखों से मस्का लगा रहा था। अब तो इस देश में दो ही चीज़ चल रही है मास्क और मस्का।
फेरी वाले ने कहा– आप मेरे से क्या चाहते है?
मैंने कहा– इन तरसती हुई आँखों को वह मंज़र दिखा दो। अब बस एक ही ख्वाहिश है कि मरने से पहले अपनी पुस्तक का विमोचन देख लूँ। लम्बे वक्त से मैं लेखन की कड़ी धूप में भटक रहा हूँ अब तो मेरे सिर पर पुस्तक का ठंडा साया कर दो।
फेरीवाले ने मुँह बनाकर कहा– आप लोगो के साथ यह बड़ी मुश्किल है, आप लोग हमेशा ऐसा बोलते हो मानो किसी गोष्ठी में बोल रहे हो। न तो तुम्हारे सामने माइक है न कोई श्रोता है। बस मै हूँ और हम धंधे की बात कर रहे हैं, बोलो तुमको क्या माँगता है?
मैं अपने आपको अपने आप में जितना समेट सकता था, उससे भी ज़्यादा अपने आपको अपने आप में समेटकर बोला– आपकी प्रकाशन संस्थान से मेरा एक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो जाता तो मेरा शुमार भी व्यंग्यकारों में हो जाता। हालाँकि व्यंग्य तो मैं अब भी लिख रहा हूँ लेकिन मै उस भक्त की तरह हूँ जिसके मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध लगा है।
फेरीवाले ने कहा– अच्छा तो तुम भी छ्पोना से संक्रमित हो ही गये। ठीक है, जब बोलो छाप देंगे। आकर्षक आवरण रहेगा, किसी हिन्दी के प्रोफ़ेसर से भूमिका लिखवा देगे।
सुनकर मैं गदगद हो गया। मैंने कहा– मेरी पच्चीस रचनाएँ तैयार है |
उन्होंने कहा – एक संग्रह में कम से कम तीस रचनाये होनी चाहिये , ठीक है बाकी की पांच रचनाओं का इंतेज़ाम हम लोग कर लेगे , आप अपनी पच्चीस रचनाये दे दीजिये |
मैंने कहा– पाँच रचनाएँ भी मैं लिखकर दे दूँगा।
उन्होंने कहा– इस स्थति में हम लेखक के भरोसे बैठे रहेगे तो कर लिये धंधा।
मैंने सकुचाते हुए कहा – पैसो की बात भी कर लेते हैं?
वे बोले– वह भी कर लेंगे पहले आप अपनी पूरी ख्वाहिशें तो ज़ाहिर कीजिये। सिर्फ़ किताब छापना है या विमोचन और समीक्षा भी करवानी है?
मैंने कहा– सिर्फ़ मटन भर से बिरयानी थोड़ी न बन जाती है , दूसरे मसालों की भी तो दरकार होती है न!
फिर उन्होंने मन ही मन हिसाब लगाया। हवा में लिखते और हवा में ही मिटा देते, फिर हवा में ही उन्होंने टोटल किया और बताया इतना पैसा लगेगा।
मैंने झिझकते हुए कहा– आप पैसा माँग रहे हैं जबकि प्रकाशक तो लेखक को पैसे देते हैं।
उन्होंने स्पष्ट किया– बिलकुल सही कहा आपने। लेकिन पैसे उन्हीं लेखकों को मिलते हैं, जिन्होंने सिर्फ़ रचना ही पैदा नहीं की बल्कि अपने पाठक भी पैदा किये हैं। वस्तु के उत्पादन में उपभोक्ता और पुस्तक के प्रकाशन में पाठक ही लाभ हानि तय करते है। आपको तो इतना पैसा लगेगा।
मैंने दीवार की ओट में खड़ी बाते सुन रही पत्नी की तरफ़ देखा तो वह अपने कान के झुमको को दोनों हाथो से छुपाती हुई यह कह कर भागी– नहीं अब इन्हें नहीं दूँगी।
– अख़तर अली