राकेश का बचपन गाँव में ही बीता था। राकेश को दादी अच्छी तरह याद है। याद है उसका गाँव और इमली चाची। उसके घर में रहने वाले सैकड़ों नौकर -चाकर। हाथी – घोड़े, बग्घियाँ, कार – मोटर, उसका बचपन बहुत ही ऐशो – आराम में बीता था। उसे अपने बचपन की लगभग हर बात अच्छी तरह से याद थी। गाँव का भूतिया कुआं, आम का बगीचा। राजा की हवेली। इन्हीं स्मृतियों में उसे याद थी, इमली चाची। इमली चाची हवेली में आती थी। और दादी और माँ की हमेशा मालिश करती। ये उनका रोज का काम था। नियम से वो सुबह -शाम दादी और माँ की मालिश करने के लिए आती थी। जहाँ मालिश की जाती उस कमरे में किसी को आने- जाने की इजाजत नहीं थी। एक तरह से वो जनानियों का कमरा था, वो। राकेश उस समय छोटा था। इसलिए उसको उस कमरे में आने -जाने की आजादी थी। राकेश को ये कमरा बड़ी अजीब लगता था। बड़ा ही रहस्यमयी। इमली चाची का मालिश का काम अधिक देर चलता। तो अक्सर वो राकेश के घर पर ही रुक जाती थी। इमली चाची के खाने के लिए एक थाली वहीं आँगन में पड़ी रहती थी। जिसमें दिन – दोपहर का खाना इमली चाची को दिया जाता था।
आते -जाते उसकी नजर उस थाली पर पड़ जाती थी। लेकिन, फेंकी हुई गंदी थाली में खाना देने के बावजूद इमली चाची ने कभी इसका प्रतिकार या विरोध दर्ज नहीं किया।
हालाँकि राकेश उनको उस गंदी थाली में खाना खाते देखकर जरूर झेंप जाता था। दरअसल, इमली चाची का पूरा जीवन ही उपेक्षित था। जब इमली चाची चली जाती। तो उस पूरे कमरे को नौकर पानी और सर्फ से धोते। इस तरह से उस कमरे को तब तक धोया जाता जब तक दादी को तसल्ली नहीं हो जाती थी। कमरे के साथ- साथ दादी भी राकेश को रहस्यमयी लगती थी। वैसे तो दादी इमली चाची से दूर- दूर ही रहती थी। मालिश के समय वो अपनी कमर, पैर, पीठ, हाथ, कंधे बहुत प्रेम से मलवाती लेकिन मालिश के बाद इमली चाची से दूर- दूर ही रहना पसंद करती। बात- बेबात झिड़क देती थी।
इमली चाची जिस चटाई पर बैठती थी। उसको भी घर के नौकर पानी और सर्फ से धोते। बहुत बार। जब तक दादी मना ना कर देतीं। कि चलो ठीक है। कि चलो अब धुलाई खत्म हो गई।
दादी का अजीबो- गरीब तरह का मनोविज्ञान था। जो हमारे समझ से बाहर का था। एक ही समय में वो इमली चाची से अलग – अलग कैसे व्यवहार कर सकती थी? मैं समझ नहीं पाता था। इस कारण दादी से ज्यादा बातचीत इमली चाची की नहीं होती थी। जो रहस्यमय कमरा था। इसमें एक तह की हुई चटाई जिसपे गर्मियों में दादी और माँ के शरीर की मालिश हुआ करती थी। वो थी। जाड़े में उसी कमरे में बोरसी ( एक तरह का पात्र जिसमें आग सुलगाकर सर्दियों में रखी जाती है ) पड़ी रहती थी।
राकेश देखता उसके घर में इमली चाची से तो लोग और सब बातों में हँसी मजाक करते। लेकिन पलंग पर जाने की इजाजत इमली चाची को नहीं थी। घर की चीजों को छुआ जाने का डर था।
घर में वो माँ और दादी की मालिश चटाई पर ही करती थी। राकेश देखता इमली चाची से इस घर में दो तरह का व्यवहार लोग करते थे। उनके लिये जब वो घर आती। तो एक अलग तरह का बर्तन उनके लिये रखा जाता था। एक चाय पीने का काँच का गिलास उस रहस्यमय कमरे के बाहर बरगद के पेड़ के नीचे पड़ा रहता था जिसमें धूल जमी होती। जब तक दादी और माँ जीवित रहीं। उसी गिलास को पानी से धोकर इमली चाची को चाय दी जाती थी। जब- जब इमली चाची मालिश के लिए उस घर में आती तो उनको जो चाय दी जाती। वो उसी बरगद के पेड़ के नीचे पडे गंदे से गिलास में पानी से धोकर दी जाती थी। राकेश अक्सर अपनी दादी से पूछता -”दादी माँ, इमली चाची को आप लोग कप में दूध वाली चाय क्यों नहीं देते। उनको आँगन में खराब पडे़ फेंके हुए काँच के गिलास में ही लाल चाय क्यों देते हैं?”
दादी, हँसती-”बेटा वे लोग नान्ह जात ( छोटी जाति) के हैं।”
इमली चाची जब अपने घर जाती। तो उनको रात की बची हुई बासी रोटियाँ एक कपड़े में बाँधकर दी जाती। यही इमली चाची की मजदूरी थी। चँद बासी रोटियों को लेकर ही इमली चाची हवेली पर आकर माँ, दादी और घर की जनानियों की तेल से घँटो मालिश करती थी। खैर, इमली चाची मेरे लिये कौतूहल का विषय थी। माँ,और दादी इमली चाची को विधवा कहती। मैं एक बार विधवा का मतलब माँ से जानना चाहता था। माँ ने ही मुझे बताया था। विधवा का मतलब बेवा होता है। इमली चाची जवानी के दिनों में ही विधवा हो गई थी। उनके कई लड़के और बच्चे थे। उनका घर मिट्टी का था। उनकी फूस की मड़ई थी। जब भी मैं उधर से गुजरता आँगन में मुर्गे, मुर्गियाँ इधर – उधर भागते हुए दिखाई देते। इमली चाची के आँगन में बकरियाँ बँधी होती। कई बार जब मुझे तेज बुखार आता। गाँव के वैध चाचा बकरी का दूध पिलाने को कहते। ये दूध मुझे इमली चाची के यहाँ से मिलता था। इसके अलावा इमली चाची खेतों में मजदूरी भी करती थी। भडभूजन के यहाँ जब भूँजा, भूँजाया जाता था। तो इमली चाची जंगल से पत्ते बटोरकर लाती। लकड़ियाँ चुनकर लाती।
राकेश धीरे- धीरे बड़ा होता गया। राकेश की मसें भीग आई थी। अब जनानियों के कमरे में राकेश को जाने की इजाजत नहीं थी। फिर, राकेश पढ़ाई के लिए शहर चला गया। धीरे- धीरे राकेश अब शहर का होकर रह गया। उसकी व्यस्तताएँ बढती चली गईं। वो यदा- कदा एकाध दिन के लिए गाँव लौटता। शहर से कुछ दिनों के लिए गाँव चला जाता तो गाहे- बगाहे उसकी नजर इमली चाची पर पड़ ही जाती थी। वो इमली चाची को देखता तो उसे वो रहस्यमय कमरा फिर अपने पास बुलाता। वो सोचता कि वो फिर से जाकर देखे कि दादी माँ, या माँ की मालिश इमली चाची क्या पहले की तरह ही करती है। वो उस चटाई के बारे में सोचता। उसके बाद फर्श के पानी और सर्फ से धुलाई के बारे में सोचता कि क्या वे चीजें पहले की तरह ही क्रमवत वैसे ही चल रहीं हैं। या फिर शहर की तरह वहाँ भी अब बदलाव आ गया है। जहाँ – जाति- पाति का कोई बंधन नहीं है।
खैर, राकेश जब भी इमली चाची से मिलता तो वो अभिवादन में उनके पैर जरूर छूता। शिक्षा का प्रभाव राकेश पर पड़ना तो अवश्यंभावी था। हालांकि इस बात से राकेश की दादी राकेश पर बहुत गुस्सातीं। और उसको बुरा भला कहतीं।
राकेश की शादी गाँव में ही हुई थी। उसकी पत्नी अभी सास – ससुर की सेवा में दिन- रात लगी रहती थी। राकेश की पत्नी इधर गर्भ से थी। गाँव में तो ऐसे भी अस्पताल कम होते हैं। इमली चाची ही गाँव में महिलाओं को आज भी प्रसव कराती थी। जिस दिन राकेश की पत्नी को बच्चा होने वाला था। उस दिन ही रात को अचानक से राकेश की पत्नी को बहुत तेज दर्द पेट में उठा। रात को ही राकेश इमली चाची के घर से इमली चाची को बुलाकर ले गया था। सारी रात इमली चाची ने जागकर ही बिताई। सुबह- सुबह राकेश की पत्नी को बच्चा ठीक – ठाक से हो गया। राकेश इस बार इमली चाची का ऋणी हो गया था। गाँव आता तो इमली चाची के लिये कोई- न- कोई उपहार साड़ी, कपड़े या मिठाई लेकर जरूर आता।
धीरे- धीरे राकेश का गाँव आने – जाने का सिलसिला थम गया था। इधर एक दिन दादी माँ के बाद माँ का भी स्वर्गवास हो गया था। दादी माँ के स्वर्गवास में राकेश गाँव गया था। उस समय इमली चाची से उसकी मुलाकात हुई थी। राकेश इमली चाची से मुखातिब होकर बोला -”चाची, आपने, अपनी बहू की उस रात बहुत सेवा की। आपके कारण ही मेरा बच्चा सकुशल इस धरती पर जन्म ले सका। मन करता है, आपके पाँव दबाऊँ। कहते हैं, ना लोग कि माँ के चरणों में ही स्वर्ग होता है। एक दिन मैं आपके घर आऊँगा और आपके पैर दबाऊँगा।”
राकेश की पत्नी को जो लड़का पैदा हुआ था। उसका एक पैर टेढ़ा था। इमली चाची ने सौरी वाले दिन से ही विक्रांत (राकेश का लड़का) के पैरों में तेल मल- मलकर पैर को ठीक किया था। करीब चार -पाँच महीने की मालिश के बाद विक्रांत का पैर सीधा हो गया था। इस बात को बीते चार पाँच -साल हो गये थे। राकेश, विक्रांत को जब भी क्रिकेट खेलते हुए। या दौड़ते हुए देखता। तो इमली चाची याद आ जाती। तब राकेश अपने आपको कोसता कि कितनी सीधी – साधी स्त्री के साथ उसके घर वालों ने दुर्व्यवहार किया।
इमली चाची हँसकर कहती -”बबुआ, मुझे नरक में भेजोगे क्या ? कहाँ तुम ऊँची जाति के होके मेरे पाँव दबाओगे। कहाँ हम नान्ह जात के लोग और कहाँ तुम ऊँची जाति के लोग।”
“इमली, चाची मैं जाति के हैसियत से नहीं। बल्कि बेटे की हैसियत से आपके पाँव दबाऊँगा।”
दादी माँ की मृत्यु के दो- तीन महीने बाद राकेश की माँ लंबी बीमारी के बाद चल बसीं।
माँ, की अंत्येष्टि के बाद एक दिन राकेश लायब्रेरी में कोई किताब उलट- पलट रहा था कि तभी उसकी नजर बरगद के पेड़ पर चली गई। टहलते- टहलते उसने बरगद के आसपास नजर दौड़ाई। लेकिन एल्युमीनियम की वो गंदी थाली उसे कहीं नहीं दिखी। उसकी नजर काँच के गंदे गिलास को ढूँढ रही थी। लेकिन वो गिलास भी बरगद के आसपास कहीं नहीं दिखा। राकेश तेजी से बैठक पार करते हुए नौकरों के कमरे में गया और एक नौकर से पूछा -”वो काँच का गंदा, गिलास और एल्युमीनियम की गंदी थाली, जिसमें इमली चाची खाना खाती थी। वो नहीं दिख रहे हैं। तुम लोगों ने फेंक दिया क्या?”
“अब, उसकी क्या जरूरत है? ”नौकर बोला।
“क्यों?”
“क्यों क्या ? इमली चाची गुजर गईं?”
“कब?”
“हो गये करीब बीस – पच्चीस दिन?”
राकेश का कलेजा धक् से करके रह गया।
“तुम लोगों को एकबार फोन करना चाहिए था।”
“अब एक चमईन के मरने पर आपको फोन करना हमें ठीक नहीं लगा। ये बहुत छोटी सी बात थी।”
“वो चमईन नहीं मेरी माँ थी। माँ।”
“क्या?”नौकर कुछ समझ नहीं पाया।
राकेश की आखिरी ख्वाहिश थी कि वो एक बार अपने हाथों से इमली चाची का पैर जरूर दबाये।
टहलते हुए राकेश उस कमरे तक गया। कमरे में चटाई वैसे ही फैली हुई थी। लगा जैसे, इमली चाची माँ को तेल लगा रही हो!