एक किश्त अदा करता हूँ तो दो और आ जाती हैं। ये बिल और उनकी सुविधाजनक किश्तें कहाँ से आती हैं सच कहूँ, मैं भी नहीं जानता। खर्च रुपये में करता हूँ तो भी बिल डॉलर में आता है। खर्च आज करता हूँ तो बिल के साथ किश्तनामा आहिस्ता-आहिस्ता बीस-तीस दिन बाद आता है। कहीं क्रेडिट कार्ड की माया है, तो कहीं उधारी की। रोज़ तय करता हूँ कि पोस्टमैन के आने के पहले घर पर ताला मारकर कहीं दो-चार घंटे घूम आऊँगा। मैं जाता तो हूँ घूमने, पर रास्ते की दुकानों में एक-दो चीजें इतनी सस्ती, आकर्षक और जरूरी दिख जाती हैं कि उन्हें सविनय उठा लाता हूँ। दुकानदार अक्सर एक बंदर छाप दंतमंजन खरीदने पर दूसरा फ्री में दे देते हैं। ऐसा कई चीजों के साथ होता है। यकीन मानिये, खाली हाथ बिना किसी झोले या बैकपैक के जाता हूँ और लौट कर आता हूँ तो ऐसा भरा-भरा आता हूँ जैसे ससुराल से आ रहा होऊँ। बस ससुराल वाले अच्छे हैं, वे न बिल भेजते हैं और न ही किश्तों में पेमेंट माँगते हैं।
मैं क्या करूँ, ये मुए दुकानदार मेरे पसंद किए बिना ही मुझे कुछ नया, कुछ पुराना पकड़ा देते हैं। कहते हैं, ‘आपसे क्या पैसे मांगना, उधार ले जाओ। हिंदी के इतने बड़े लेखक हो अगले साल जो रायल्टी या पारिश्रमिक मिलेगा, वह जमा कराते जाना।’ मैं कहता हूँ- ‘हिंदी के लेखक को इतना पारिश्रमिक मिलता तो वह मुफ्त की पुरानी पत्रिकाएँ ढूँढने तुम्हारी दुकान पर आता ही क्यों।’ पर दुकानदार बड़े चालू और समझदार होते हैं, कहते हैं – ‘चलिए आपको सारी चीजें मुफ्त में पाने की ताजा स्कीमें बताते हैं। इन योजनाओं में हर किसी को इनाम मिलता है।’ न जाने क्यों मुझे पक्का विश्वास हो जाता है कि मेरे नसीब में पचास प्रतिशत छूट का कूपन निश्चित ही निकलेगा। मुझे सुना-सुनाया याद भी आता है कि फलां स्टोर पर एक स्कीम में किसी को पचास इंच का टीवी मुफ्त मिला था, किसी को रोलेक्स की घड़ी निकली थी, भले ही वह नकली थी।
यहाँ भी स्कीम का फॉर्म दे कर दुकानदार ने शालीनता से ऑटोग्राफ माँगे और मेरे साथ सारे स्टाफ ने सेल्फी खिंचवाली। मुझसे कहने लगे कि यदि मैं शहर के अखबार में यह फोटो और स्कीम की खबर छपवा दूँ तो मैं अच्छी भेंट पा सकता हूँ। कवि हृदय हूँ, मुगालते में बना रहता हूँ कि बाजार में मेरी कितनी माँग है और इज्जत भी। अपनी रचना के साथ खबर भी लगा देता हूँ। रचना तो नहीं छपती पर खबर सचित्र छप जाती है। दुकानदार मुझे ‘बाय वन, गेट वन फ्री’ के पाँच कूपन मुफ्त में दे देते हैं। इस तरह मैं बिना तत्काल पैसे दिए कई चीजें खरीदता, और बंपर इनाम बटोरता। एक महीने बाद मेरे ऑटोग्राफ के साथ बिल और किश्तपत्र टपकने लगते। कई बार ऐसे पुख्ता किश्तनामे देखकर भी मेरी स्मरण शक्ति वापस नहीं लौटती। परिवार के सामने मुझे यह स्वीकार कर पाने में बड़ी कठिनाई होने लगती कि मैंने ऐशोआराम की कई फालतू चीज़ें ऐसे खरीदी थीं जिनकी किश्तें आ रही हैं। दुकानदार से हिसाब पूछता तो वे मेरी ‘लॉफिंग इमोजी’ के साथ उनके मुस्कुराते हुए चेहरे और मेरे हाथ में लटक रहे झोले या बड़े आइटमों का सचित्र तिथिवार विवरण भेज देते। अब हर महीने की बीस-बाइस तारीख तक किश्तों का उगाहीनामा नियमित आने लगा था, ताकि एक तारीख को मिलने वाली तन्ख्वाह में से बड़ा हिस्सा मैं उन्हें अर्पित कर आऊँ।
आज लौटकर घर आया तो हाथ का सामान आँगन में रखकर डाकपेटी देखी। डाकपेटी खाली थी। प्रसन्नचित्त हो मैंने अपना पंजा डाकपेटी में अच्छी तरह से घुमाया और सुनिश्चित कर लिया कि कोई लिफाफा पेटी की सतह से चिपका नहीं था। मैं घर में घुस ही रहा था कि दालान से उठती पदचाप कानों में समा गयी। ‘सर, आज कुछ लेट हो गया। ये लीजिये आपकी डाक।’ पोस्टमैन ने डाक क्या दी, दुखती रग को गंभीर रूप से छेड़ गया। इस डाक की तो पूछिए ही मत, इन्हें खोलने से कोई फायदा नहीं है। सूखी टहनियों के पिटारे को खोलने पर जैसे साँप निकलते हैं, वैसे ही इन लिफाफों को खोलने पर फुफकारते बिल या ओवरड्यू हो गई किश्त की सूचना निकलती है। कभी डाक से नेग के लिफाफे तो आने से रहे। कर्जे के चक्रव्यूह में फँस कर अब मैं बाहर निकलने के रास्ते खोज रहा हूँ।
कुछ कारोबारी खुद को बाइसवीं सदी का समझते हैं। वे भी माल इक्कीसवीं सदी का देते हैं, पर बिल दसवें वेतन आयोग की अनुशंसाएँ ध्यान में रखकर बनाते हैं। उन्हें बिल भेजने की इतनी जल्दी रहती है कि अक्सर उनका बिल द्रुत गति से ईमेल के जरिए आ जाता है। पर सब दुकानदार इतने कर्मठ नहीं होते। वे माल बेच देते हैं, साइन करा लेते है पर फाइनल हिसाब डाक से भेजते हैं। इच्छा तो कई बार होती है कि दुकानदार को बिल सहित माल वापस कर दूँ पर बीस-तीस दिन के उपयोग में माल की शक्ल इतनी बदल गई होती है कि चीन के निर्मातागण भी यह मानने से इनकार कर दें कि वह उनका उत्पादित माल है। घाटे का बजट चलाते-चलाते मैं खुद को अब वित्त मंत्री जैसा कुशल आँकड़े हेराफेरी विशेषज्ञ समझने लगा हूँ और घोर महंगाई के जमाने में भी अपना घर चला रहा हूँ।
पिछले दिनों मेरे एक मित्र ने नया ‘फ्यूनरल होम’ खोला। हम उसके उद्घाटन में शामिल हुए। पश्चिमी देशों में फ्यूनरल होम बहुत फायदे का धंधा है। इसमें स्वर्गवासी आत्मा की निर्जीव देह की अंतिम क्रिया होती है। एक तरफ विद्युतचालित चैम्बर में संस्कार करने का ऑन बटन रहता है। दूसरी तरफ बड़ा सुसज्जित हॉल होता है, जहाँ उच्चस्तर की शोकसभाएँ की जाती हैं। शोकधुन बजाने वाला बैंड बैठता है। दो-चार पेशेवर आशुकवि विदागान गाते हैं। उनकी बारह पेज की पत्रिका के एकाग्र विशेषांक के कवर पृष्ठ पर मृतात्मा का चयनित फोटो छपता है। मालिक मित्र ने बताया ‘फ्यूनरल होम की अग्रिम बुकिंग कराने पर पचास प्रतिशत तक की छूट है। भुगतान दस साल तक मासिक किश्तों में कर सकते हो। बेसिक पॉलिसी से ले कर प्लेटिनम पॉलिसी तक उपलब्ध है पर जिंदगी में एक ही बार मरना है तो ठाठ से मरो। डिस्काउंट में प्लेटिनम पॉलिसी ले लो।’ उन्होंने ‘फैमिली एंड फ्रेन्ड्स’ के लिए प्लेटिनम पॉलिसी की बड़ी किफायती दर रखी थी। मित्र सेल्समैन ने क्या मालूम कौन सा जादू चलाया कि हमने अपने लिए ‘फुल्ली पेड’ पॉलिसी ले ली। एक पॉलिसी खरीदो और दो लोग मरो। समयपूर्व मर गए तो किश्तें न भरने का फायदा और दस साल बाद मरे तो क्रियाकर्म की कोई अतिरिक्त लागत नहीं।
दोहरे लाभ की इस योजना में मुझे फायदा ही फायदा लगा। अपने क्रियाकर्म की और पत्नी के क्रियाकर्म की अग्रिम व्यवस्था कर के मैं बहुत खुश हूँ। आपकी रुचि हो तो मुझे बताइगा, मेरे माध्यम से पॉलिसी लेंगे तो सुकून से मर सकेंगे। हमारा आपसी रिश्ता मजबूत हो जाएगा तो मैं आपकी शोक सभा में भाषण भी मुफ्त में दे पाऊँगा। इसमें मेरा फायदा इतना ही है कि मैं दस पॉलिसी बिकवा दूँगा तो मुझे आगे से प्रीमियम नहीं भरनी पड़ेगी। मरने पर मुफ्त में ‘फाइव स्टार’ दाह संस्कार हो जाएगा, स्वर्ग की यात्रा मुफ्त हो जाएगी। बस एक ही बात का डर है, मैं जब दुनिया से रफादफा हो जाऊँगा तब अस्पताल के बिल पर यह डिस्काउंट नहीं मिलेगा जहाँ लिखा होगा – “हमारे यहाँ इलाज करा कर एक की जगह दो मरो, बाय वन डाय टू।”