गायत्री बहुत परेशान थी, उसके लिए तो यह सोच भी पाना नामुमकिन था। सुबह उसने रचना को दामाद जी से बात करते सुन लिया था और वह लगभग गिरते गिरते बची थी। उसके नहीं रहते कुछ भी होता तो उसे पता भी नहीं चलता और फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन उसके रहते ही यह हो, उसका मन जैसे बैठा जा रहा था। वह तो रचना के बार बार बुलाने पर चली आयी थी उससे मिलने, वर्ना बेटी के घर जाना उसकी सोच के हिसाब से ठीक नहीं था। पूरा दिन वह बहुत तनाव में रही, अपनी जिंदगी, बेटे की जिंदगी का पिछला आठ साल और अब बेटी का ये निर्णय, सब उसके जेहन में पूरे दिन तक घूमता रहा।
शादी के कई साल बाद कितने मुश्किल से बेटा पैदा हुआ था। घर में उनकी सास ने तो कहना भी शुरू कर दिया था कि अब दूसरी शादी की तैयारी करनी पड़ेगी। कितने तनाव के दिन थे वह और उसपर कोई भी नहीं था जिससे अपना दुःख बाँट सके। डॉक्टर से लेकर ओझा और बाबा के भी चक्कर लगाने के बाद कहीं जाकर उसकी गोद हरी हुई थी। फिर दस साल बाद रचना हुई थी। बेटे ने भी शुरू शुरू में बच्चा नहीं चाहा लेकिन बाद में उसको भी कई साल लग गए पिता बनने में।
पिछले कुछ दिनों में उनको यहाँ की दिनचर्या पता चल गयी थी, रोज पहले रचना ऑफिस से आती थी, फिर दामाद रिशू आते थे। उन्होंने घड़ी देखी, उसके हिसाब से रचना के आने का समय हो चला था। वह अपने आप को भरसक संयत करने की कोशिश में सोफे पर अखबार लेकर बैठ गयीं। वैसे तो निगाह अखबार पर थी लेकिन दिमाग कहीं और ही था उसका। दरवाजा खुलने की आवाज आयी, रचना ने अंदर आकर अपना बैग टेबल पर रखा और गायत्री के पास जाकर बैठ गयी। रोज तो गायत्री उसको देखकर खिल जाती थी और अक्सर तो मेज पर पानी का गिलास और कुछ मिठाई वगैरह भी रखी रहती थी। लेकिन आज तो ऐसा लगा जैसे उसका चेहरा उतरा हुआ है, उसने घबराकर गायत्री का माथा छुआ, लेकिन वह गरम नहीं था।
“तबियत ठीक नहीं है क्या माँ, बुखार तो नहीं लगता है”, रचना ने चिंतित होकर पूछा।
“नहीं रे ठीक हूँ”, उसने कह तो दिया लेकिन उसके बोलने के ढंग ने उसकी चुगली कर दी।
“रोज तो तू इतना ख़ुशी ख़ुशी मेरा इंतज़ार करती है, आज क्या हो गया। लगता है अपने नाती की बहुत याद आ रही है”, रचना ने कारण समझने का प्रयास करते हुए कहा।
उसने एक बार अपने फीके चेहरे से उसकी तरफ देखा और फिर उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए बोली “याद तो उसकी रोज ही आती है, पता नहीं कैसे अकेले रहता होगा। लेकिन अभी उसकी चिंता नहीं है मुझे”, उसने बात को टालने की गरज से कहा।रचना ने उसका चेहरा अपने हाथ में ले लिया और चिंतित होते हुए बोली “फिर क्या बात है माँ, बताएगी नहीं मुझको? “अच्छा, एक बात बता, तू मेरा कहना मानेगी, सच सच बता”।
“ओह, अब समझी, वापस भैया के पास जाना है इसलिए ये सब कह रही है। अभी अभी तो आयी है, कुछ दिन तो साथ रह ले ना, प्लीज़”, रचना ने माँ की गोद में लेटते हुए कहा। आज भी माँ की गोद में उसे जो सुकून मिलता था, वह कहीं और नहीं मिलता।गायत्री ने झुक कर बेटी का चेहरा चूम लिया, लेकिन आंसू का एक कतरा भी साथ साथ रचना के चेहरे पर टपक गया। अब उसे थोड़ी चिंता हुई और वह उठकर माँ का चेहरा अपने हाथ में लेकर सहलाते हुए बोली “क्या हुआ माँ, अच्छा बता क्या कह रही थी। अब भला तेरी बात नहीं मानूंगी तो और किसकी मानूंगी”।
गायत्री ने उसको गहरी नजर से देखा और सोच में पड़ गयी कि कैसे कहे। लेकिन बेटी के सवालिया निगाह को देखकर उसने सोचा कि अब कह ही देना चाहिए। “अच्छा तू मेरी कसम खा कि मेरी बात टालेगी नहीं”, गायत्री ने अपने आप को और आस्वस्त करने के लिहाज से कहा।
“बोला तो नहीं टालूँगी, तू पहले बता तो मुझे”, अब रचना की उत्सुकता और चिंता दोनों बहुत बढ़ गयी थी।
“तुझे पता है ना कि तेरा भाई और तू कितनी मुश्किल से पैदा हुए थे”। गायत्री ने अपनी बात अधूरी छोड़ कर एक गहरी सांस ली और बेटी की आँखों में देखा।
बेटी को अभी भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन उसने बात ख़त्म करने की गरज से कहा “हाँ मुझे सब पता है, कितनी बार तो तूने बताया था। तू अब बता भी कि बात क्या है”, रचना ने माँ का चेहरा प्यार से सहलाया।
“और फिर कितने साल के इंतज़ार के बाद तेरे भाई के घर बाबू हुआ था, कितना परेशान थे सब लोग”, माँ ने एक और बात समझाने के अंदाज से कही।
“अरे कहीं बाबू की तबियत तो नहीं खराब हुई, तू बताती क्यों नहीं?
“नहीं नहीं, बाबू एकदम ठीक है, उसको कुछ नहीं हुआ है”, गायत्री ने तुरंत कहा। उसके चेहरे पर एकदम से घबराहट सी फ़ैल गयी बाबू के तबियत खराब होने के बारे में सोचकर।
“तब आखिर बात क्या है, तू फिर आज उदास क्यों है, कुछ बताएगी भी?
“ठीक है बताती हूँ, तू कहेगी तो मैं तेरे घर कई महीने रह जाऊंगी लेकिन तू ऐसा मत कर”, गायत्री अभी भी असली बात सीधे सीधे कह नहीं पा रही थी।
“तो मैंने कब कहा कि तू जल्दी चली जा, तू ही तो कहती रहती है कि ज्यादा दिन नहीं रुकूंगी तेरे घर, अब बता भी कि बात क्या है”।
“अच्छा यह बता, तुझे पता है, एक औरत के लिए सबसे ख़ुशी की बात क्या होती है”, गायत्री ने पूछा।
रचना थोड़ी देर सोचती रही और फिर हँसते हुए बोली “हां, पता है, जब उसकी माँ उसके पास रहती है”।
गायत्री भी मुस्कुरा पड़ी, उसे इस जवाब की उम्मीद नहीं थी। फिर उसने रचना का सर सहलाते हुए कहा “सही सही बता, तू जानती है ना”।
“इसमें पूछने की क्या बात है, एक औरत ही क्या किसी को भी सबसे ज्यादा ख़ुशी अपनों में मिलती है”, रचना ने कुछ सोचते हुए कहा।
गायत्री को लगा कि इसे कैसे समझाए, फिर उसने एक और सवाल पूछा “जानती है, जब बच्चा पहली बार पेट में आता है तो एक औरत के लिए कितना सुखदायी होता है”।
रचना को अब कुछ अंदेशा हुआ, कहीं माँ को पता तो नहीं चल गया। लेकिन उसने तो किसी से भी बताया नहीं था। तो क्या राकेश ने बता दिया माँ को, लेकिन राकेश तो ऐसा नहीं करेगा? उसके चेहरे पर तमाम भाव आ जा रहे थे और गायत्री उसके चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
‘जानती है, जब एक औरत के पेट में और उसकी जिंदगी में किसी नए के आने की आहट होती है ना तो उससे ज्यादा सुकूनदायी उसके लिए कुछ भी नहीं होता। जब बच्चे का पहला एहसास होता है, जब बच्चा पेट में पहला लात चलाता है और जब वह अंदर घूमना शुरू करता है, तब उसकी माँ को जो सुख मिलता है, वह दुनियाँ का सबसे बड़ा सुख होता है”।
रचना एकटक माँ को देखे जा रही थी, माँ के चेहरे को देखते हुए उसे एहसास हो रहा था जैसे यह सब बताते हुए माँ खुद उसे अपने पेट में महसूस कर रही हो। उसे एक पल के लिए लगा जैसे कि वह एक बड़ी भूल करने जा रही है, लेकिन फिर उसने सँभलते हुए कहा “ये तो सच ही होगा माँ, आखिर तुम्हारा अनुभव है”।
“एक औरत के लिए उसका माँ बनना सबसे गर्व और ख़ुशी का पल होता है बेटी। और यह मुझसे बेहतर और कोई नहीं जानता है। कभी सोचा है तुमने कि जो लोग कई कई वर्ष संतान सुख के लिए तरसते हैं, उनके दिल पर क्या बीतती है! जब बच्चा नहीं होने पर लोगों के ताने सुनने पड़ते हैं तो कलेजा फट जाता हैं”, गायत्री अपनी रौ में बोलती जा रही थी।
“इतना तो मैं भी जानती हूँ माँ कि बच्चे से ही एक औरत का जीवन सम्पूर्ण होता है। लेकिन यह सब तुम मुझसे क्यों कह रही हो?, रचना ने अनजान बनने का एक और प्रयास किया।
“अच्छा तो तू समझती है यह, फिर ऐसा क्यों सोच रही है, बोल”, गायत्री ने रचना का हाथ अपने हाथ में इस तरह ले लिया, जैसे रचना आज भी एक छोटी सी बच्ची हो।
“मैं क्या सोच रही हूँ माँ”, रचना के शब्द थोड़े लड़खड़ाने लगे। अब उसे पूरा आभास हो गया था कि माँ को पता है लेकिन एक आखिरी बार उसने नहीं समझने की कोशिश की।
“तुझे पैदा करने के लिए कितना साल इंतज़ार करना पड़ा था हमको, और तू अपनी अजन्मे बच्चे को इस दुनिया में आने से ही रोक रही है। तू ऐसा सोच भी कैसे सकती है, अरे एक बार भी नहीं सोचा किसी की जान लेने में”, गायत्री की आँखों से आंसू टप टप करके गिरने लगे।
रचना अवाक् रह गयी, उसे नहीं पता था कि माँ इस तरह भी रिएक्ट कर सकती है। उसने गायत्री का चेहरा अपने हाथ में लिया और उसके आंसू पोंछने लगी।
कुछ देर तक माँ उससे सटी हुई बैठी रही फिर अपना चेहरा पोंछते हुए बोली “अच्छा बता, तू ऐसा नहीं करेगी ना”।
वो सोचने लगी कि माँ को कैसे समझाए, लेकिन अब बात तो करनी ही पड़ेगी। उसने माँ की पनीली आँखों में ऑंखें डाल कर देखा।
“अच्छा तू ये बता कि तू मुझे खुश और तरक्की करता देखना चाहती है ना, सही सही बोल”, रचना ने थोड़ा जोर देकर पूछा।
“तेरी और सबकी ख़ुशी के लिए ही तो कह रही हूँ, और तेरी तरक्की से मुझसे ज्यादा और कौन खुश होगा”, गायत्री ने कहकर उसका चेहरा चूम लिया।
“तो फिर इतनी जल्दी बच्चा आ गया तो मेरे कैरियर का क्या होगा माँ? आज के गलाकाट युग में कितना मुश्किल होता है आगे बढ़ना और उसमे बच्चा आ गया तो मुश्किल में पड़ जाऊँगी मैं”, उसने गायत्री को समझाना चाहा।
गायत्री ने उसे गौर से देखा और उदास लहजे में बोली “यह सब तो पहले सोचना था, लेकिन अब यह मत कर। आज भले तुमको सही लग रहा हो लेकिन कुछ साल बाद तुम्हीं को अपने इस निर्णय पर अफ़सोस होगा”।
“देखो माँ, अब तुम लोगों वाला ज़माना तो रहा नहीं कि पति कमाए और बाकी सब खाएं। और फिर मेरी भी कुछ तमन्नाएँ हैं, आखिर मैंने भी पढ़ाई इसीलिए तो की है कि मैं भी कुछ करूँ। अब ऐसे में बच्चे के चलते या तो मैं नौकरी छोडूं, या लम्बी छुट्टी लूँ, दोनों ही तरफ से मेरे कैरियर का नुक्सान ही होना है”।
गायत्री ने तुरंत कहा “तू नौकरी मत छोड़, मैं हूँ न बच्चे के देख रेख के लिए। लेकिन एक बार अगर इसको गिराने का सोच लिया तो आगे पता नहीं क्या हो, मेरा अनुभव तो तू जानती ही है”।
रचना को अब समझ में नहीं आ रहा था कि माँ को कैसे समझाए, इसलिए उसने फिलहाल बात को टालना ही उचित समझा। उसने गायत्री के हाथ को अपने हाथ में लेते हुए कहा “ठीक है माँ, तू जैसा कहती है वही करुँगी मैं, अब तो तू खुश है ना”।
गायत्री को जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ, उसने एक बार फिर पूछा “सच में तू मेरी बात मान लेगी?
“हां माँ, अब चल जल्दी से कुछ खाने को दे”, कहते हुए उसने पेट पर हाथ फेरा जैसे बहुत भूख लगी हो। गायत्री की नजर भी पड़ी और वह यह सोचकर पूरी तौर से आस्वस्त हो गयी कि रचना ने पेट पर हाथ फेरकर उस अजन्मे बच्चे को पैदा करने का वादा कर दिया हो।
रात को बिस्तर पर जैसे ही रिशू आया, रचना ने उसको एकदम से पकड़ लिया। “क्या हुआ रचना, सब ठीक तो है?, उसने पूछा।
“सब ठीक नहीं है रिशू, माँ को पता चल गया कि मैं अबॉर्शन करवाना चाहती हूँ और वह बेहद दुखी हो गयी थीं। उन्होंने मुझे तब तक नहीं छोड़ा जब तक मैंने उनसे यह झूठा वादा नहीं कर दिया कि मैं यह अबॉर्शन नहीं करवाऊँगी”, रचना ने एक सांस में ही कह दिया।
रिशू भी सोच में पड़ गया, वह भी रचना के निर्णय से सहमत था। इतनी जल्दी बच्चा दोनों नहीं चाहते थे लेकिन अब अबॉर्शन के सिवा कोई चारा भी नहीं था।
“लेकिन करवाना तो पड़ेगा ही, कहीं तुम सचमुच तो बच्चे के लिए नहीं सोचने लगी”, रिशू ने रचना को सहलाते हुए कहा।
“बेकार की बात मत करो, लेकिन अब माँ का क्या किया जाए। उनको समझाना संभव नहीं है और बाद में जब उनको पता चलेगा अबॉर्शन के बारे में तो वह कितना दुखी होंगी, मैं अंदाजा लगा सकती हूँ। और सबसे बड़ी बात कि फिर मैं उनसे आंख कैसे मिलाऊँगी”, रचना बेहद परेशान थी।
रिशू भी सोच में डूबा था, वैसे भी वह रचना की माँ से बहुत बात नहीं करता था, इसलिए उनको समझाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। अब इस समस्या का हल उसकी निगाह में कुछ दिख नहीं रहा था। उसने रचना को समझाने के हिसाब से कहा “चलो सो जाओ, कल सोचेंगे क्या करना है, कभी कभी समय भी समाधान सुझा देता है”।
रचना बिस्तर पर निढाल हो गयी, उसके दिमाग में शाम को माँ से हुई सारी बातचीत घूम रही थी। आखिर माँ ने जो अपने जीवन में देखा और झेला है, उसके हिसाब से तो वह सही ही कह रही है। लेकिन जरुरी तो नहीं कि उसे आगे चलकर बच्चे के लिए दिक्कत ही हो। फिर अपना कैरियर भी तो देखना है, अगर उसने लम्बी छुट्टी ली तो पता नहीं कितने लोग उससे आगे निकल जायेंगे और फिर उसके बाद यही नौकरी बची रहेगी, इसकी भी क्या गारंटी है। नहीं, अभी उसे बच्चे के चक्कर में नहीं पड़ना है, माँ को फिलहाल झूठ बोलकर काम चलाना पड़ेगा, आगे देखेंगे।
अचानक रिशू के दिमाग में कुछ कौंधा और उसने रचना को अपनी तरफ घुमाते हुए कहा “इतना आसान तरीका है और हम झूठमूठ परेशान हो रहे हैं। अरे माँ को बोल देंगे कि मिसकैरेज हो गया और नहीं होगा तो डॉक्टर से भी कहलवा देंगे, बस छुट्टी”।
रचना का चेहरा भी खिल गया, इतना आसान उपाय है और वह इतना परेशान थी। उसने रिशू को चूम लिया और मुस्कुराते हुए आंख मूदकर लेट गयी।
सुबह रचना की नींद एक सपने से खुली, उसका पूरा शरीर पसीने से तरबतर था। उसे पूरा तो नहीं याद था लेकिन उसने देखा कि वह अपने कंपनी की प्रेसिडेंट बन गयी है और उसी समारोह में एक बच्चा उसको एक गुलदस्ता भेंट कर रहा है जिसका सर गायब है। उसने घबराकर दूसरी तरफ देखा तो एक टेबल पर बच्चे का कटा सर पड़ा था जिसकी ऑंखें उसे ही लगातार देख रही थीं।
वह घबरा कर कमरे से भागी और जाकर माँ से लिपटकर रोने लगी। गायत्री भी हड़बड़ाकर उठ गयी और परेशान होकर उसको सहलाने लगी।
“क्या हुआ बेटी, तबियत तो ठीक है ना”, गायत्री ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए पूछा। कुछ पल बाद रचना ने सर हिलाकर उसे आस्वस्त किया कि वह ठीक है और फिर उसने अपनी कल्पना में उस बच्चे के कटे हुए सर को उसके धड़ से जोड़ दिया।
अब उसे वापस नींद आने लगी और वह अपनी माँ से लिपटकर उसकी गोद में एक बच्चे की तरह सो गयी।
*रेखाचित्र: मार्टिन जॉन