धुँधली पड़ गयीं हैं नज़रें उसकी
मोतियाबिंद से
याद आने लगती हैं उसे वे थपकियाँ
जो समय दिया करता था उसकी पीठ पर
अपने कोमल हाथों से
उसे सुलाने के लिए
तब वह छोटी थी
और तुरंत सो जाया करती थी गहरी नींद में
उन थपकियों से
अब उसे इस उम्र में
समय के थपकियाँ देते हाथ
लगने लगे हैं कठोर-से
अब उनसे नहीं आती है नींद
उसे घेरने लगती हैं अनंत चिन्ताएँ
जैसे बिन बुलाए भी दे जाता है डाकिया
दुख-भरी पाती
वह पढ़ने लगती है
माँ की यादों में जाकर
उसके चेहरे पर पड़ी
आशंकाओं की असंख्य लकीरें
समझने लगी है
जागती आँखें और दुखते घुटनों का
युगल-बंधन
पहचानने लगी है
माँ की फीकी मुस्कान और चिर थकान को
समय के साथ
उसने भी काफी दौड़ लिया
फिर थक कर एक दिन जब वह
आईने के सामने सुलझा रही थी केश
तो आईने में देखा अपनी माँ को
रजत केश फैलाए
इंतजार
नहीं हुआ है
इस कस्बे में
कोई आतंकवादी हमला
और न ही है यहाँ कोई शीतयुद्ध
गोरों और कालों के बीच
न्यूक्लियर हमले का भी
यहाँ कोई डर नहीं
फिर भी डरती है वह
अपने पति के स्वर्गवासी होने
और बेटे के प्रवासी होने के बाद
रात का सन्नाटा
डराता है उसे
लगते हैं आवारा कुत्ते उसे
दहशतगर्द
टूटी और मौन पड़ी
पीली पत्तियों की चरमराहट
जब तोड़ खामोशियाँ
जन्म देती हैं सरगोशियों को
तब मन उसका भर उठता है
आशंकाओं से
पेड़ की हिलती परछाईयाँ
धर लेतीं हैं आदमवेश
उसे लगता है जैसे कोई कर रहा हो
उसके कत्ल की साजिश
हवा के थपेड़ों
और नीरवता से जूझता
छोटा-सा बल्ब
बन जाता है उसका रहनुमा
और बंद दरवाजा
उसका प्रहरी
भींच लेती है हाथों में वह
तकिये के नीचे रखी
विष्णु सहस्त्रनामावली को
और आँखों में भर
भवसागर पार कराने वाले की तस्वीर
इंतजार करती है
सुबह के उजाले का