गीता तेरा सहारा
कक्ष में एकदम शांति और नीरवता है। एक कोने में निढाल और जर्जर अवस्था में गीता हाथ में लिए एक जीवित देह। कभी कभार गीता के श्लोक का स्वर उभरता और धीरे-धीरे वह स्वर उस वृद्धा की यौवन अवस्था की तरह विलुप्त हो जाता। वृद्धा, जिसे पति प्यार से गीतू कहा करते थे।
उनका प्यार संभवतः गीतू के लिए ही था अन्यथा जीवन भर करोड़ों की आबादी में उनके दिल में किसी के लिए शायद प्यार जगा ही नहीं था। स्वयं के लिए ही सब कुछ प्राप्त करने की ख्वाहिश ने उनको सामान्य मानव से भी पृथक कर दिया था। किसी का भला उनके हाथ से न हो जाए, किसी के दुःख में कहीं काम न आ जाऊँ,इसी चिंता में सम्पूर्ण जीवन बिता दिया। गीतू से विवाह हुआ, चार पुत्रियाँ हुईं पर भगवान ने एक भी पुत्र नहीं दिया। संभवतः भगवान इस तरह की पीढ़ी को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे।
चारों पुत्रियाँ पूर्णतः पिता के पदचिह्नों पर चल रही थीं। सदा इस भय से भयाक्रान्त रहतीं कि कहीं उनके हाथ से दूसरें का भला न हो जाए।
स्वार्थी व्यक्ति जितनी तेज़ी से प्रगति करता है उतनी तेज़ी से ही उसका पतन भी होता है। पुत्रियाँ समय पर शिक्षा प्राप्त करके अच्छे पद पर आसीन हो गई। पुत्रियों को अचानक सूचना मिली कि पापा की तबियत नासाज़ रहती है अतः कुछ दिनों तक उन सबके पास बारी बारी से रहने की इच्छा है। तीन पुत्रियों ने असमर्थता जताई और पिता के पदचिह्नों पर चलने की सीख की पुष्टि की। चौथी पुत्री उन तीनों से समझदार थीं, वह जानती थी कि पिताजी के पास काफ़ी संचित धन है और उसको प्राप्त करने का इससे अच्छा अवसर नहीं हो सकता है। पिता जी और माँ को घर लाकर बेटी ने तथाकथित सेवा शुरू कर दी। दो दिन बाद पिता की तबियत बिगड़ने लगी तो घर से लगभग सौ किलोमीटर दूर एक अस्पताल में भर्ती करवा दिया।
पुत्री सुबह या शाम को एक बार अस्पताल जा कर मिल आतीं। अस्पताल में पिता की देख भाल उनकी पत्नी ही करतीं। एक दिन पति ने भावुक होकर पत्नी से कहा-“गीता मुझे तेरा ही सहारा है आज मुझे कोई स्नेह देने वाला भी नहीं है।” पिता का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन बिगड़ता गया। एक दिन शाम को डाक्टर ने पुत्री को बताया कि वृद्ध का स्वास्थ्य इतना अधिक ख़राब है कि शरीर और आत्मा का अलगाव कभी भी हो सकता है। पुत्री को तुरंत भावी समस्याओं का भान हुआ। उसने मगरमच्छी आँसू निकाले और मॉं को समझाया “घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है, मैं कल सुबह वापिस आ जाऊँगी, रात को घर सूना छोड़ना ठीक नहीं है।” पुत्री दिलासा देकर घर के लिए रवाना हो गई।
उधर पिता की तबियत और अधिक ख़राब हो गई। रात्रि दो बजे पिता ने शरीर त्याग दिया। गीता बेचारी अकेली उस मृत देह के पास बैठी रहीं। तीन बजे रात्रि में नये मरीज़ के लिए पलंग की आवश्यकता पड़ी तो डाक्टर ने गीता से बैड ख़ाली करने को कहा। गीता ने असमर्थता जताई तो डॉक्टर ने अपने स्टाफ़ की मदद से शव को मुर्दा कोठरी में रखवा दिया। गीता मुर्दा कोठरी के बाहर जड़वत बैठी पुत्री का इन्तज़ार करती रही। अगले दिन सुबह पुत्री आई और दाह संस्कार के बाद मॉं को लेकर घर आ गई। घर पर सबका रुखा व्यवहार देख कर गीता को पति की कही हुई बात “गीता मुझे तेरा ही सहारा है” याद आ गई। अब वह दिन भर एकान्त में ‘गीता’ हाथ में लिए बैठी रहती है।
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असमंजस
चौधरी साहब के घर पोती हुई तो शर्मा जी पड़ौसी धर्म का निर्वहन करने के लिए बधाई देने पहुँचे। चौधरी साहब नाराज़ हुए और कहने लगे, “लड़की होने की क्या बधाई दे रहे हो, कौन सा बेटा हुआ है जो ख़ुशी मनायें!” बेचारे शर्मा जी अपना उदास मुँह लेकर घर आ गये। कुछ रोज़ बाद शर्मा जी को पता चला कि चौधरी साहब की भैंस के पाडा (नर) हुआ है। शर्मा जी इस बार बड़े जोश के साथ चौधरी साहब के घर पहुँचे और बधाई दी। चौधरी साहब फिर से नाराज़ हुए और कहने लगे, ”शर्मा जी आपका दिमाग़ ख़राब हुआ है क्या! कौन सी पाड़ी पैदा हुई है जो बधाई दे रहे हो।”
बेचारे शर्मा जी असमंजस में पड़ गए। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें कब बधाई देनी चाहिए और कब नहीं।