बात उस समय की है जब मैं कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से बी एड कर रही थी। मैं होस्टल में रहती थी। मेरी रूम पार्टनर अम्बाला की थी, अतः उसे लोकल मार्केट व वस्तुओं का काफी ज्ञान था। हम कभी-कभी उस शहर को जानने की उत्कंठा लिए कुछ विशेष जगहों में निकल जाया करते थे।
हम वहां भी जाते जहां श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था, कुछ दूर पर वह स्थान था जहां पर बाण शैया पर भीष्म पितामह कई दिनों तक थे। वहीं पर एक विशाल बरगद का पेड़ भी था, जहां कुंवारी लड़किया हर सोमवार अच्छे जीवनसाथी की कामना लिए जातीं।
इन सबके अलावा वहां की लड़कियों का और मेरा भी पसंदीदा स्थान था ब्रह्मसरोवर। शाम को अक्सर हम होस्टल की लड़कियाँ सरोवर के किनारे जाकर बैठ जाया करती थीं । अजब शांति का अनुभव होता था। शांत व निर्मल जल मन को बाँध लेता था। जल में उठती सूक्ष्म तरंगों को टकटकी लगा कर देखना बेहद भाता था, उन तरंगों से कुछ जुड़ाव सा हो गया था। ग़ज़ल व तरंग का तालमेल मन को बहुत अच्छा लगता था ।
कैंपस में आस-पास जगजीतसिंह की ग़ज़लें हवाओं में घुली सी रहतीं। और ऐसा क्यों ना होता भला, जब जगजीतसिंह जी स्वयं कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के एलुमनाई रह चुके थे। अक्सर ब्रह्मसरोवर के किनारे बैठी लडकियाँ उनकी ग़ज़लों में डूबी रहतीं। वो उनमें इस कदर खोतीं कि खुद को हर्फ़ दर हर्फ़ उन्ही किरदार में ढाल लेतीं। कभी गाते-गाते उनका चेहरा अश्कों से भर जाता तो कभी अजीब सी ख़ुमारी दिखती, उनकी आँखों में। तब मुझे कुछ भी समझ न आता था, न शब्द न भाव… लेकिन हाॅ, मैं जगजीत सिंह साहब की गायकी की मुरीद थी।
हमें तो जो ढर्रा दिखाया गया था उसी में चल रहे थे, जिसके अनुसार हमें आवश्यकता से अधिक कुछ भी सोचना मना था। जिंदगी के सभी सम्बंध जरूरतों व उम्मीदों पर ही आधारित होते थे तब। कदम-कदम पर कई पुल थे और हर घर दहलीज़।
वक्त बीत चला … मैं अब भी ग़ज़लें सुनती हूं। कहतें हैं न कोई न कोई आपको जिंदगी के मायने सिखाने वाला मिल जाता है, और आप जीने लगते हो। राह में चलते चलते कोई ऐसा मिलता है जो धीरे से कह जाता है..ग़ज़लों की कोई उम्र नही होती। ग़ज़ल अभी बाकी है। अब जब ग़ज़लें सुनती हूँ तो कभी-कभी वो मेरी ही रूह की आवाज़ लगती है मुझे। शब्द-शब्द जीती हूॅ आँखें मूंदे..उनके सारे भाव अब मुझे समझ आने लगे हैं। वो भाव मेंरे चेहरे पर भी उभर आते होंगे शायद..पर हो सकता है कि मेरे सामने वाले को यह समझ नही आता होगा, जैसे पहले मुझे नही आता था।
जिंदगी भी उसी कुरुक्षेत्र सी है जहां एक तरफ भीष्म पितामह की बाणों से बिंधी मरण शैया है दूसरी तरफ ब्रह्मसरोवर सी ग़ज़ल।
सच है कि एहसासों की कोई उम्र नही होती। बेशक ये बंधनो के बसेरे में कसमसाते रहते हों , पर दिल चाहता है कि ज़िंदगी के कुछ हिस्से ज़िंदगी के नाम करती चलूँ।
ए ज़िंदगी तू ग़जब है, तेरे फ़लसफ़े निराले।
शुक्रिया, ज़िंदगी!