हवाएं मंथर गति से अपनी निश्चित तयशुदा दिशा की तरफ चल रही थी। वांछा ने सबसे पहले कई जगह फोन मिलाए फिर जेल से जुड़े मामलों की तहकीकात की। कितना दारूण व भयावह होता है जेल का परिदृश्य। जेल की चहारदीवारी को चाहे दूर से देखो , चाहे दीवारें लांघकर अंदर जाकर देखो मगर वहां सिवाए दर्द और बेबसी के कुछ नही मिलेगा। जो बंदिनियां वाचाल हैं यो जो सालों से गुमसुम हैं या जो जरूरत भर की जुबान हिलाती हैं मगर उनके मौन में कितनी व्यथा कथाएं छिपी होती हैं। बंदिनियों की कही अनकही आवाजें अक्सर चीख चीखकर वहां की दीवारों से टकराटकराकर लहुलुहान होती रहतीं। तन मन हारकर निराश होकर हताश मन के असंख्य टुकड़े धूल धूसरित होकर गर्म रेत बनकर गर्म हवा संग संताप पहुंचाता रहता। चलते चलते प्रखर पत्रकार वांछा हर चीज की जानकारी कुरेद कुरेदकर लेने लगती । चलते चलते पूछती या कुछ कुछ बताती जाती। अपने प्रोजेक्ट के सिलसिले में कई जेलों का सर्वे कर चुकी । कभी दिल्ली तो कभी गुड़गांव तो कभी दूसरे शहरों में जाना पड़ता। यूं बाहर से तो हर जेल एक जैसी नजर आती मगर जेल की अंदरूनी तस्वीरें हर जगह जुदा जुदा कहानी बयां करने लगतीं। कहीं कुछ समस्याएं तो कहीं कुछ।
‘ये तीसरी जेल देख रही मैं। पिछली बार जिस जेल में गई थी, वहां देखा कि कमरे केवल दो लेकिन वहां रिमांड पर आयी 24 औरतों मिलकर 34 औरतें ठुंसी हैं गोया ट्रेन का जनरल कंपार्टमेंट हो कोई। जगह की भयानक कमी , गर्मियों में पीने को पानी तक मयस्सर नही । हे भगवान , कैसे जीती होंगी ये सब की सब यहां इस काल कोठरी में जहां एक सेल में 15 से 20 औरतें ठुंसी हुई थीं जिनके पास कोई बिस्तर , बिछौना , तकिया कुछ नही , बस एक मामूली सी चटाई मिली थी और क्या ? ‘
पूछने पर एक पुरानी बंदिनी रीना ने धीमे से जवाब दिया- ‘ चंद बर्तन , पुरानी गंदी कंघी , शीशा और यहीं से मिले कपड़े। ‘
फिर वांछा खाने पर चर्चा करने लगी- ‘ सुनते हैं , यहां का खाना बहुत बेकार होता है ‘
‘ सही सुना आपने। रोज रोज वही एक जैसा खाना। कंकड़ और भूस मिली चपातियां। आलू के चंद टुकड़ों के बीच पानीनुमा सब्जियों में कोई स्वाद नही। दूध में नाममात्र की दूध की बूंदें होती , ज्यादातर पानी ही पानी मिला होता। बेस्वाद चाय। गंदगी इतनी कि रसोई में मक्खियां , मच्छर या क्राकरोच के अलाव ढेर सारे चूहे खाना चट कर जाते। हां , कभी कभी उस पानीनुमा दाल में से कंकड़ के अलावा लोहे के टुकड़े भी निकल आते। रोटियां झाड़ू से पलटी जाती और जो पौंछा लगाने का कपड़ा है , कई बार उसी पर सिकी रोटियां रख दी जाती। बर्तन तक ठीक से नही धुले जाते। कपड़े धोने के लिए लांड्री नही , हम तो बस किसी तरह धो सुखाकर सिरहाने रखकर तहा लेते।’
‘ क्या दालें पकाने से पहले कभी धोयी नही जाती , मेरा मतलब , साफ नही होती … ‘
‘ न , कभी नही। दिक्कत पानी की भी तो है। गंदे पानी की बदबू के बीच चिलचिलाती धूप और तपाने वाली लू की गर्म लपटों के बीच तपती जमीन पर पैर घसीटते हुए नहाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती और वो भी उस गर्म पानी के लिए। एक ही नलके से हमें शाम 6 बजे से पहले यानी तालाबंदी से पहले , हर हाल में अपने पीने का पानी भरना पड़ता वरना रात भर प्यासे मर जाओ। जहां लंबी लाइन लगी रहती और अपनी बारी के इंतजार में आपस में कैदियों की कहासुनी भी हो जाती। अब क्या क्या बताएं आपको ,हजार बातें हैं , कहां तक सुनाएं . कितने सारे चूहे यहां हर वक्त उछलकूद मचाते रहते , देखा आपने , कितने मोटे मोटे चूहे हैं यहां। रात में अक्सर नींद उचट जातीं हैं ‘
‘ चूहेदानी वगैरह की व्यवस्था नही है क्या . .
‘ कुछ नही , एक बार आयी थी मगर कुछ दिनों से तो वह भी गायब है। रात में डर लगता है , कहीं किसी के पैर में काट न लें ये चूहे। ‘ वह सोच सोचकर बोलती रही। .
‘ सुना है , दो हजार के लिए बनायी जेल में इस समय नौ हजार बंदिनियों को ठूंसा गया है जबकि सजा पायी औरतों की संख्या महज नौ सौ है। हर साल हजारों औरतें पकड़ी जाती हैं। कुछ तो छोटे मोटे अपराधों में ही पकड़ ली जाती हैं तो कुछ मर्डर में। ‘
‘ हूं . .. सो तो है मगर करें तो क्या करें , विचाराधीन कैदियों की सालोंसाल अदालत में सुनवाई ही नही होती सो वे बंद रहकर तड़पने को मजबूर हैं। ‘
‘ और कुछ के बच्चे भी तो होंगे ? ‘
‘ हैं न , 10 साल से कम उम्र के बच्चे यहां अपनी माताओं के साथ रह सकते हैं। ‘
‘ सुनते हैं , कई बार उनकी डंडों से पिटाई भी होती है। उनके साथ बेरहमी से कठोर वर्ताव किया जाता है। लेडी पुलिस खुद पकड़ी औरतों को थप्पड़ मार देती है , क्या ये सच है ?’
‘ हां , बेशक । ‘
‘ तो मानवाधिकार वालों की टीम जब आती है तो क्यों नही कुछ कहतीं आप लोग ये सब बातें ? ‘
‘ कोई फायदा नही कहने से। अक्सर हमें किसी मंत्री या बड़े अफसर आने की खबर तब मिलती जब हमारे शौचालयों की सफाई हो रही होती और नालियों में कीटनाशक डल रहा होता ताकि उन्हें बदबू न आने पाए। एक बार किसी अफसर को उस बदबू को सूंघकर उबकाई आ गयी थी सो सफाई का खास ध्यान रखा जाता। मैडम , हमें मुंह बंद रखने को कहा जाता है फिर भी एक बार पुष्पा ने मुंह खोलकर अपनी बीमारी की शिकायत की भी तो सुपरिटेंडेंट ने हमारी तरफ मुंह बिदकाते हुए देखा फिर अपने बड़े अफसरों से अंग्रेजी में कुछ कहा कि ये सब हत्यारन है , खतरनाक मुल्जिमें हैं , आपकी खैरियत इसी में है कि आप यहां से चुपचाप निकल लें वरना . .
‘ फिर , शिकायत पर कार्रवाई हुई क्या ?
‘ न , वे तो अपनी फाइलों का पेट भरकर चले जाते । हमारी शिकायतें या अर्जियां पता नही किस डस्टबिन में फेंक देते। ‘ उसने पूरी तटस्थता बरतते हुए कहा।
‘ कस्टडी में उन पर बलात्कार करने की रिपोर्ट भी तो आयी थी न ? ‘ उसने रटी रटायी बातें दुहरायीं।
‘ अब हम क्या मुंह खोलें ? हमारा मुंह खोलना ठीक नही। यहां रहते रहते अधिकांश औरतें मानसिक रूप से बीमार हो जाती हैं या विक्षिप्त अवस्था में हैं मगर उनका इलाज तक नही होता। ऐसी अधपगली औरतें धीरे धीरे पूरी तरह पागल होने लगती हैं , कई केस हैं ऐसे . . ‘ एक एक शब्द जैसे चबा चबाकर बोलती जा रही थी वो। अनायास उसे जेल के आला अफसरों का हिकारत भरा टालू रवैया याद आ गया । एक बार किसी नई लड़की ने जिद की कि उसे जेल मैनुअल दिखाया जाए ताकि उसे अपने अधिकारों की जानकारी हो सके मगर उन लोगों का रवैया बेहद अपमानजनक था।
‘ सुना है , घूसखोरी यानी गैर कानूनी स्रोतों से जेलकर्मियों की आय में दिनोंदिन इजाफा होता जा रहा हैं। तमाम कैदियों के हिस्से का राशन बेचकर कमाई करने का गोरखधंधा भी चालू है न ? अक्सर वे बीमार महिला कैदियों के लिए आईं दवाएं बेचकर मुनाफा कमाने के धंधे में लिप्त होते जाते हैं। सही है न ये सारी खबरें ? ‘
‘ सब सही है मगर विरोध करने का कोई फायदा नही बल्कि ऐसा करने पर वे उल्टा हमीं को धमकाने लगते- ऐ , हमारी खातिरदारी नही करोगी तो हम तुम्हें किसी भी इल्जाम में कालकोठरी पहुंचा देंगे , हां , सोच लेना . .। ‘ आम तौर पर वे ऊंचे अधिकारी यही मानकर चलते है कि हमने कोई न कोई अपराध तो पक्का किया है तभी हम जेल में है सो वे हमें संदेह और अपराधिनी की नजर से ही देखने के आदी है और हमारी शिकायतों पर ध्यान नही देते।
‘ बाप रे इनकी कोई अंतरात्मा वगैरा नही होती क्या , इन बेचारियों से भी ज्यादती , ओ गॉड। तुम लोग मिलकर क्यों नही रहती , मिलकर शिकायत करो तो शायद कुछ . .’
‘ वैसे तो हम सब मिलकर रहती हैं चाहे कोई किसी भी धर्म , जाति या संस्कृति के क्यों न हों मगर हम सब एक दूसरे के हमदर्द हैं तभी तो विपरीत हालातों में भी कैसे भी जी तो लेते हैं न ? ‘
जैसे ही वांछा उस कोठरी में पहुंची , बड़े ध्यान से वह वहां की सब चीजें देखने लगी। सालों पुराने लचर जेलतंत्र की दुरवस्था किसी से छिपी नही थी। न जाने कितने सालों से कितनी बंदिनियों के तेल पसीने से सने फटे पुराने , मैले और बदरंग कंबल को देखते ही मन घिना उठा। ऐसे बदबूदार कंबल को गोल गोल लपेटकर बिछावन की तरह इस्तेमाल करते देखा गया। उसका कंबल भी जगह जगह से फटा हुआ और कपड़े इतने गंदे और बदरंग जैसे सालों से साबुन ही मयस्सर न हुआ हो। क्या पता . .
‘ क्या यहां पढ़ने के लिए किताबें वगैरा हैं या दस्तकारी का काम नही होता यहां ? ‘ पढ़ी पढ़ायी बात दुहरा दी उसने।
‘ पहले जो जेलर साहिबा आयी थी , वे प्रौढ शिक्षा वगैरा में रूचि लेती थी । दस्तकारी का काम भी बहुत अच्छा करवाती थी। वे कहती थी- जब हम लोग टीवी देखेंगे , ट्रांजिस्टर सुनेंगे , किताबें वगैरा पढ़ेंगे या मनोरंजन में विजी रहेंगे तो हमारा तनाव कम रहेगा मगर .. अब वो बात नही। पुराने कर्मचारी हमेशा हर काम के लिए पैसे मांगते रहते हमसे। अगर सांसों की आवाजाही को जिंदा रहना कहते हैं तो हां , हम जिंदा हैं। ‘
सचमुच लचर जेलतंत्र में सालों पुरानी व्यवस्थाएं आज तक जस की तस चल रही हैं। उस डोरमेंटरी में पहुंचकर वांछा ने देखा , कितने छोटी जगह में 50 से 60 महिलाएं ठुंसी बैठी थी गोया यह बैरक न होकर ट्रेन का सामान्य श्रेणी का अनारक्षित डब्बा हो जिसमें समाज के हर वर्ग की बिना टिकट लिए औरतें बिठा दी गई हों , लगभग सभी गंवार , जाहिल और अनपढ़ कुपढ़ जिन्हें फ्लश साफ करने या इस्तेमाल करने का सलीका तक नही आता था। न वे खुद सफाई से रहती , न अपने आसपास वालों को ऐसे रहने के लिए सचेत करती। पता नही कैसे जिंदा रहते होंगे इसके बीच ये। जहां 6 से 8 को रहना चाहिए, वहां 60 औरतें , सजा सिर्फ 7 को , बाकी विचाराधीन नवजात बच्चों समेत , लगभग 10 बच्च्ेा वहां हमें उचबक की तरह देखने लगे। वांछा ने दूसरी बंदिनी से पूछा – ‘ यहां रहते बच्चे पढ़ते लिखते नही हैं क्या ? ‘
‘ यहां के तनाव और तनातनी भरे माहौल का असर इन बच्चों पर बहुत बुरा पड़ता है। वे पढ़ने लिखने के वजाए खूब ऊधम मचाते रहते। अक्सर खेलते रहते। जो इनकी माताएं कहती , उसे रट लेते। एक दिन एक बच्चा कह रहा था- कल हमारे केस का फैसला आना है , पता नही क्या सजा हो यानी जो सजा का मतलब ठीक से नही जानते , उनके लिए ये माहौल कितना जहरीला है . . . कुछ साल पहले एक सुपरिटेंडेंट आया था जो बड़ा निर्दयी और कामातुर इंसान था। अक्सर आधी रात गुजर जाने के बाद चुपके से आकर औरतों पर हाथ फेरने लगता। वेश्यावृति के पेशे वाली औरतें शायद उतना बुरा नही मानती । एक ऐसी ही भूतनी जैसी लंबे बालों वाली औरत थी जो आंख दबाकर ऐसी हरकतों का सपोर्ट करती। सुनते है कि वो दूसरे अफसरों व कैदियों के लिए लड़कियों का प्रबंध करती थी। कोई नयी लड़की आती तो वह उससे अपने कपड़े , बर्तन वगैरा धुलवाने लगती। मुलाकातियों से मिले सामान भी वह जेल अफसरों से मिल बांटकर खा जाती। कई औरतों को अफसर कभी कभी अपने दफ्तर बुलवा लेते। अरे मैडम , यहां क्या नही होता , सब कुछ होता है . .. सब कुछ। ‘ एक लंबी सांस खींचकर वह चुप रह गयी।
अचानक हवा संग तेज बदबू का झोंका आया और वांछा पूछ बैठी- ‘ अरे , इतनी भयानक बदबू , शौचालय कैसे क्या हैं , कितने हैं ? .’ अभी आपको बदबू आई न ? नियमित सफाई होती नही , पर हम तो इसके आदी हो गए। क्या करें ? मजबूरी है। इतने कैदियों में बस एक इस तरफ , दूसरा उस पीली दीवार की तरफ। बीमार कैदियों के लिए कहने के लिए डॉक्टर जरूर है मगर महज फर्ज अदायगी के लिए। वे जल्द से जल्द यहां से भाग जाना चाहते। वक्त जरूरत कभी नही आता। उसके पास हर बीमारी की एक ही दवा है कि दर्द नाशक दवाएं देकर पिंड छुड़ा लेना या ज्यादा परेशानी होने पर नींद की गोली पकड़ा देते। हां , जिसके पास पैसा है , उसे जरूर सुविधाएं मिल जाती वरना आम औरतें तो भगवान भरोसे मरने जीने के लिए विवश हैं मैडम। ‘ उसने पूरी तटस्थता सोच समझकर सधा हुआ जवाब दिया।
बेचैन आंखों वाली अधेड़ दिखती औरत सिर पकड़ मायूसी से बैठी थी। कुरेदने पर बोली- ‘ सेसन कोर्ट से आया था फैसला जिसके तहत जमानत नामंजूर कर दी गयी। फिर खिसकते गए वेशकीमती साल दर साल। मामला हाईकोर्ट तक पहुंच पाया ? वहां क्या हुआ था ? पता नही। ठीक से कुछ भी बता पाने की स्थिति में ही कहां है वो ? बात बात पर आंखें भर आती और ज्यादा कुरेदने पर चुप्पी साध लेती फिर तो उनके मुंह से कुछ भी कहलवा पाना मुश्किल होता। वे या तो हूं , हां , करती रहती या रूखा सा जवाब देकर पल्ला झाड़ लेती। जिंदगी तो पूरी यही बीतती रीतती जा रही है साल दर साल , जिंदगी के वेशकीमती साल तो निकल गए जो अब वापस आने से रहे। जिन्हें हमने बच्चे देखा था , वे जवान हो गए और जो तब बूढे थे , वे अब मर खप चुके। जर्जर कृशकाय पिताजी आए थे एक बार , कंपकंपाते हाथों से हथेली थामते हुए कहा था- ‘ पता नही तेरे को दुबारा देख पाऊंगा या नही , हो सके तो मुझे माफ कर देना। ‘ उनकी वो थरथराती आवाज सुनकर कलेजा चिरने लगा था , आज भी उनके बोल रात के अंधियारे में भी सुनायी पड़ती है।
वहां के सीन याद आते रहते। कोई स्त्री क्यारियों में पानी दे रही थी तो कोई अपने कपड़े सुखा रही थी तो कोई जेल परिसर में बने स्कूल से लौटते बंदिनियों के बच्चों के प्रति अपने अंदर बची खुची ममता को लुटा रही थीं तो कोई दड़वे में उसी मटमैले कंबल को ओढ़े आंखें मूंदे जीते जी मुर्दा बनी सोने जागने के बीच की स्थिति में पड़ी थी। इनके लिए दिन रात का मायने खत्म हो चुका था। दीवाल से चढ़ती उतरती धूप से समय मापने जांचने का हिसाब लगाती ये अक्सर भूल जाती कि यहां रहते हुए इनकी उम्र के कितने साल सर्र से सरकते चले गए। ये भला कैसे जान पाएंगी जीने का अर्थ ? इनके लिए तो जीवन का पहिया बस यहीं थम गया सालों से। बस यही एक जगह एक ही धुरी पर टिकी है जस की तस उनकी जिंदगी जैसे तारकोल में चिपक गया हो जिंदगी का चलता पहिया। तभी तो अधिकांश औरतें अपनी सजा को अधिकतम मानकर बताती हैं।
‘हमको यहां रहते हुए 18 साल पूरे हो रहे हैं। भाग्य की बिडंबवना देखिए जरा , पहले तो सब कुछ था हमारे पास मगर अब . . 25 साल से तो यहां हैं। सब कुछ ऊपर वाले की मर्जी से होता है। यही किस्मत में बदा था और क्या कहें ? ‘ बताते हुए उनका गला भर्राने लगा। बाकी काम आंसुओं ने कर दिया।
सोचती रही वह। इन बेचारियों ने क्या देखा , क्या जी पाईं। इनकी सोच के पंख कटे हैं। इन्होंने जो भी जाना , बूझा , यहीं इस चहारदीवारी से या आसपास के कुछ लोगों से ही तो जाना समझा। इनके पीले पत्तेनुमा मुरझाए चेहरे पर यांत्रिक किस्म्ा के नपे तुले हाव भाव नजर आते। उनके बारे में जिरह करने के लिए मुंह खोलते ही – ‘ नही , नही , एकदम गलत सोच रही हो तुम। न , कतई निर्दोष नही हैं ये1 अरे , इनके भोले भाले चेहरे पर मत जाओ। कुछ न कुछ तो जरूर रहा होगा वरना ऐसे कैसे किसी बेगुनाह को जेल में ठूंस देगी पुलिस। आप इतने भावुक तरीके से मत सोचिए प्लीज। गुनाह आखिर गुनाह होता है। इट्स क्राइम , यू नो ? ‘ वे बड़ी बड़ी आंखें नचाते हुए चौड़ी करते हुए कहतीं। अनायास मुंह से निकल गया-किसी ने सच लिखा है- लमहों ने खता की , सदियों ने सजा पाई। यूं तो हम सब कहीं न कहीं किसी न किसी देखे अनदेखे पिंजड़े में कैद रहते , चाहे वो पारिवारिक बंदिशें का पिंजरा हो , चाहे रूढि़यों या गली सड़ी परंपराओं के नाम पर बंधक बनाया गया हो , चाहे किसी की ताउम्र गुलामी का जुआ ढोना पड़े मगर कैद तो वहां भी है ही।
इससे बडी विडंबना और भला क्या हो सकती है कि ऐसी स्त्रियां जिन्होंने सीधे सीधे कभी कोई अपराध किया ही नही लेकिन अपने सगे आत्मीयजनों के संग लपेट दी गई या उन्हें बचाने की खातिर कानून की चपेट में आ गई सो लंबे समय से जेल में सड़ने के लिए अभिशप्त हैं। ये कितनी बड़ी अमानवीयता है कि जिनकी खातिर ( कभी पति तो कभी भाई ) वे सालोंसाल सजा काट रही है , वही लोग इनकी सुध लेने तक नही आते। पता चला कि चार से छह साल तक तो मिलने जुलने वाले आते जाते रहते मगर उसके बाद सभी अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त होकर गुमनाम होकर न जाने कहां किस खोह में दुबक जाते और फिर सालों साल अपना चेहरा नही दिखाते। सबसे बड़ी त्रासदी तो ये कि इन्होंने हत्या जैसे जघन्य अपराध सीधे या अप्रत्यक्ष तौर पर किए ही नही मगर अपने अनकिए अपराध की सजाएं काट रही हैं।
सच्चा झूठा का निर्णय तो अदालतें सुनाती हैं और ये किस हद तक कितने प्रतिशत सही गलत की परख सचमुच हो पाती है , कोई नही जान पाता। दरअसल कानूनों के मकड़जाल इतने महीन , बारीक और रहस्यमय से हैं कि वहां से निकल पाना बेहद दुष्कर होता जाा। मुश्किलें इतनी कि पग पग पर पगबाधाओं की अनवरत लंबी जटिल प्रक्रिया झेलते झेलते ही उम्र निकल जाए। वाकई , तकलीफ होती है ये सोचकर कि आज जिनकी उम्र 55 या 60 से ऊपर है , और ये 15 – 16 साल की सजाएं काट चुकी हैं मगर इनकी खातिर कागजी कार्रवाई करने वाला कोई नही रहा। उनके बारे में उनके उन्ही सगों को कोई फिक्र ही नही कि वे उन्हें वहां से वापस ले जाने के लिए कोई पहल करें। न तो वे उनसे मिलने सालों से वहां गए हैं और न ही जाना चाहते हैं। उनके घर वाले या तो उन्हें भूल चुके हैं या भूल जाना चाहते हैं1। उनके बारे में कुछ भी सकारात्मक करने की जेहमत भला कौन उठाएगा ? ये कैसी अमानवीयता है , सोचते ही वांछा का दिल दहल उठता। किसी को पारिवारिक रंजिश के चलते हत्या के आरोप में बंद कर दिया गया तो किसी पर पड़ोसन के बच्चे को मार डालने का आरोप है। ऐसे अनगिनत मसले हैं जिनके बारे में मुंह खोलकर साफ साफ बताने से वे परहेज करतीं हैं। जितनी तरह के चेहरे उतनी तरह के आरोप प्रत्यारोप भी।
ओफ , किस तरह इनसे वहां कितनी तरह के काम कराए जाते। कोई अल्लाह को याद कर रहा तो कोई हनुमान चालीसा का पाठ। सच तो ये है कि जेल के बीच हम न हिंदू रह जाते , न मुसलमान बल्कि हम सब अपने हालातों की शिकार बेबस मजबूर इंसान हैं बस। जेल में रहती उन औरतों की विभिन्न छवियां वांछा की स्मृति पर दस्तक देती रहीं। वहां की बैरकों में ठुंसी औरतों ने ( चाहे जुर्म किया हो या नही मगर सजा तो काटनी है ) अपनी जिंदगी के तमाम वेशकीमती पल तो यूं ही गवां दिए जिनकी भरपाई कभी नही हो सकती। इनके हितार्थ एनजीओ वगैरा कुछ क्यों नही कर रहे , सवाल उठते रहते लगातार। फिर इस संबंध में हुई बातचीत के अंश याद आ गए-
‘ देखो , जेल का नाम सुनकर ही खौफ खाने लगते। जेल . .. सुनते ही आम आदमी की रूंह कांप जाती और अनजाना किस्म्ा का डर रेंगने लगता नसों में सो इन्हें जेल से निकालने की पहल करने में जोखिम तो है ही , समझ रही हो न ? ‘
हूं , मगर इनकी हालत कभी एकदम से बिगड़ने लगे या इनका अंतिम समय आ जाए अचानक से तो ?
‘ तुरंत अस्पताल भिजवाने की व्यवस्था हैं। वहां साहब पंचनामा तैयार करवाते हैं फिर इनके घर वालों को सूचित करके उन्हें सुपुर्द करने की कोशिश की जाती है। किसी बूढी औरत ने प्रसंगवश बीच में ही टोक दिया- हवालात ऐसी ही जगह है कि यहां जो एक बार आ जाता है फिर तो चाहे वो किेतना ही पाक साफ क्यों न हो , मगर कालिख की कोठरी में पैर धरो तो जिंदगी भर के लिए कालिख तो पुत ही जाएगी सूरत पै . . नही क्या ? सवाल ही सवाल बर्रेयों की तरह उड़ते रहे मेरी आंखों के सामने।
तथाकथित इज्जतदार लोग समाज के डर से अपनी ममता का गला रेत डालते। उनके लिए उनके बच्चे अभी उतने ही छोटे हैं जितना वे छोड़ आयी थीं1 बच्चे की याद को सीने से चिपटाए वे बात बात पर फफककर रोने लगतीं । उनके मासूम चेहरे और वे भोली बातें रह रहकर याद आने लगीं। वो मीता थी जिनका बोलना और रोना साथ साथ चल रहा था- ‘ हमारे दो बेटे हैं , पहला 11 का , दूसरा 9 साल का। ‘
‘ मगर अब तो वे बड़े हो गए होंगे ? ‘ पूछते ही – ‘ हां , सो तो है . . वे सोच में पड़ जाती मगर उनकी आंखों में वही बचपन के दृश्य रिवाइंड होते रहते। जहां जिस हाल में वे उन्हें छोड़ यहां आईं , बस बच्चा उतना सा ही बनकर उनकी आंखों के एलबम में घूमता रहता। कभी उसकी अठखेलियां , शरारतें याद करके आंखें गीली करती तो कभी उनके मीठे मीठे बोल रह रहकर याद आते रहते।
‘मिलने आते हैं वे कभी ? ‘ सुनते ही वे अचानक खामोश हो गईं। बिना कुछ बोले भी उनकी आंखें डबडबा आईं। नीली साड़ी के पल्लू से सिर ढापते हुए निरीह आंखों से चारों तरफ देखतीं रहीं तभी जेलर साहिबा बोलीं- ‘ देखिए , हमें तो हर हाल में न्यायालय का आदेश पालन करना होता है। हम तो कोर्ट के आदेशों के ताबेदार हैं बस। ‘ ‘ हूं , वो तो ठीक है मगर जब ये 14 साल की सजा काट चुकी हैं तो फिर दया याचिका पर सरकार विचार क्यों नही करतीं ? ‘
फिर वही व्यवस्था से जुड़े कंटीले सवालों की घेराबंदी। जितने विचलित कर देने वाले सवाल , उतने ही तटस्थ किस्म के ठंडे से उत्तर। मसलन , सेशन कोर्ट से केस खारिज हो गया तो अब हाईकोर्ट में जाएगा। अमुक के वकील को इतना इतना पैसा चाहिए , हमारी पैसा खर्चने की हैसियत नही सो हमारी वेल नही हो पा रही यानी अनगिनत उलझने वाली बातें। बेशक हमारे देश में न्यायिक व्यवस्था है जहां कानून सबसे ऊपर जिसके तहत सबको बराबर न्याय मिले , ऐसी व्यवस्था है मगर कहीं भी समयबद्धता का अनुपालन नही हो पा रहा। कहीं कुछ तो समय की सीमा रेखा तय की जानी चाहिए कि अमुक अमुक केस अधिकतम इतने समय तक निबट जाएगा। चूंकि ऐसा कुछ भी नही है जिसके लागू न किए जाने पर कुछ दाण्डिक प्रावधान तय किया गया हो। शायद यही वजह है कि ज्यादातर फाइलों पर ‘ लंबित है ‘ दर्ज रहता है सालोंसाल। अफसोस होता है कि ये सोचकर कि आखिर कब तक लंबित रहेंगे उनके मसले। तो क्या उनकी अभ्यर्थना अनसुनी रह जाएगी ? और वे वहीं रहते हुए मर खप जाएंगी एक न एक दिन ? अब चंपा को ही लो जो 9 सालों से यहां का नरक काट रही है जिस पर अपने पति के खून का आरोप था। घाव पर हाथ रखते ही जैसे समूची माला बिखर गई हो- ‘ अब क्या बताएं मैडम , बोलने को कुछ नही बचा। सौत और सौत की बेटी ने झूठी गवाही देकर फंसा दिया। पहले सोचती थी कि यहां से निकलूंगी तो उस चुड़ैल का गला दबाकर मार डालूंगी , बदला लेने की भावना चैन से जीने नही देती थी। मगर अब सब शांत हो चुका। वैसी प्रतिशोध की भावनाएं नही रहीं। कितना सुंदर , सरस जीवन चल रहा था हमारा। हम तो महफिल की शान थे। हर फन में माहिर माना जाता था हमें। चाहे गीत संगीत की महफिल सजी हो , चाहे नाचने गाने का माहौल हो , चाहे देसी संगीत यानी भक्ति संगीत हो या बन्ना बन्नी गाना हो , ढोलक देखते ही मेरी उंगलियों को कुछ हो जाता था। हथेलियों की थाप सुनकर बूढे भी जवानी की जोश में आ जाते थे , मरणासन्न के प्राण तक लौट आए थे एक बार तो। हां , कितनी जगहों पर देवी भजनों के लिए बुलाया जाता था जहां कई बार इनाम किताब भी मिला मगर सजाएं तो अकेले ही काटनी पड़ती। न जाने किसका श्राप मिला जो यहां पटक दी गयी फिर भी जिंदा हूं मगर उम्मीदें बची हैं अभी। जो तकदीर में बदा है , भुगतना ही है।’ इतना सब सुनने के बाद वांछा ने गहरी सांस ली और सोच में पड़ गयी।
सचमुच , कैसे और कब आजादी ही हवा में सांस ले पाएंगी वे ? हरेक की बस यही आखिरी तमन्ना है कि वे जल्द से जल्द आजाद हो जाएं जिससे वे फिर से अपनों संग जीने का एक मौका दुबारा से हासिल कर सकें। हर बंदिनी को बस उस सुनहरी जादुई घड़ी का इंतजार मरते दम तक बना रहता जब पीछे मुड़कर जेल की चहारदीवारी उन्हें कभी न देखनी पड़े। जहां उन्होंने अपने जीवन के वेशकीमती समय को यूं ही तिल तिलकर गलाते सड़ाते नाहक गंवा दिए , फिर भी , बस एक ही सपना उनकी आंखों में तैरता रहता कि कब वे यहां से मुक्त होकर बाहर की आजाद हवा संग मस्ती से अपनों संग जीते हुए फिर से अधूरी जिंदगी को नए सिरे से पूरा कर सकें।